भगवान सूर्य का युधिष्ठर को अक्षयपात्र प्रदान करने और सूर्य आराधना की कथा

 सूर्य आराधना  विप्रवर ! ये वेदों के पारंगत ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रहे हैं | परन्तु में इनका पालन पौष्ण करने में असमर्थ हूँ ‘ यह विचार कर मुझे बड़ा दुःख हो रहा हैं | भगवन ! मैं इन सबका त्याग नहीं कर सकता परन्तु इस समय मुझ में इनका पालन करने का सामर्थ्य नही हैं ऐसी अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए ? यह कृपा करके बतलाइये ‘ | जनमेजय ! धर्मात्माओ में श्रेष्ठ धौम्य मुनि ने युधिष्ठर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक का ध्यान सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात उन्होंने इस प्रकार कहा |

धौम्य ऋषि ने कहा – राजन ! सृष्ठी के प्रारम्भ काल में जब सभी प्राणी भूख से व्याकुल हो रहे थे , तब भगवान सूर्य ने पिता के समान उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों का जल खीचा और दक्षिणायन में लौटकर पृथ्वी को उस रस से आविष्ट किया |  

इस प्रकार जब समस्त भूमंडल में क्षेत्र तैयार हो गया , तब परिणित हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाए हुए जल से अन्न आदि समस्त ओषधियों को उत्त्पन किया |

चन्द्रमा की किरणों से अभिषित हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता हैं , तब छ: प्रकार के रसो से युक्त पवित्र ओषधिया उत्पन्न होती हैं | वही पृथ्वी में प्राणियों के लिए अन्न उत्पन्न होता हैं | इस प्रकार सभी जीवो के प्राणों की रक्षा करने वाले सूर्य भगवान ही हैं , इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ |जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम् उज्ज्वल हैं , ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का उद्दार करते हैं | भीम , कार्तवीर्य अर्जुन , वेंपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों ने तपस्या , योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपतियों से प्रजा को उबारा हैं |

हे युधिष्ठर ! तुम इसी तरह सत्कर्म का आश्रय लेकर धर्मानुसार ब्राह्मणों का भरन पौष्ण करो | भगवन ! ‘ राजा युधिष्ठर ने ब्राह्मणों के भरण पोषण के लिए , जिनका दर्शन अत्यंत अद्भुत हैं | उन भगवान सूर्य की आराधना किस प्रकार की ? राजेन्द्र ! मैं सब विधि बतला रहा हूँ | तुम एकाग्रचित और धैर्य धारण कर सुनों |

महात्मने ! धौम्य ऋषि ने जिस प्रकार युधिष्ठर को सूर्य भगवान के एक सौ आठ नाम बताये थे , उनका वर्णन कर्ता हूँ सुनों |

भगवान सूर्य देव के १०८ नाम

सूर्योsर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि: ।
गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ।।1।।

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वयुश्च परायणम ।
सोमो बृहस्पति: शुक्रो बुधोsड़्गारक एव च ।।2।।

इन्द्रो विश्वस्वान दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्चर: ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वरुणो यम: ।।3।।

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पति: ।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाड़्गो वेदवाहन: ।।4।।

कृतं तत्र द्वापरश्च कलि: सर्वमलाश्रय: ।
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तया क्षण: ।।5।।

संवत्सरकरोsश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु: ।
पुरुष: शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन: ।।6।।

कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद: ।
वरुण सागरोsशुश्च जीमूतो जीवनोsरिहा ।।7।।

भूताश्रयो भूतपति: सर्वलोकनमस्कृत: ।
स्रष्टा संवर्तको वह्रि सर्वलोकनमस्कृत: ।।8।।

अनन्त कपिलो भानु: कामद: सर्वतो मुख: ।
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता ।।9।।

मन: सुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक: ।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोsअदिते: सुत: ।।10।।

द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह: ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम ।।11।।

देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख: ।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय करुणान्वित: ।।12।।

एतद वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजस: ।
नामाष्टकशतकं चेदं प्रोक्तमेतत स्वयंभुवा ।।13।।

 भगवान सूर्य देव के १०८ नाम

सूर्योsर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि: ।
गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ।।1।।

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वयुश्च परायणम ।
सोमो बृहस्पति: शुक्रो बुधोsड़्गारक एव च ।।2।।

इन्द्रो विश्वस्वान दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्चर: ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वरुणो यम: ।।3।।

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पति: ।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाड़्गो वेदवाहन: ।।4।।

कृतं तत्र द्वापरश्च कलि: सर्वमलाश्रय: ।
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तया क्षण: ।।5।।

संवत्सरकरोsश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु: ।
पुरुष: शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन: ।।6।।

कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद: ।
वरुण सागरोsशुश्च जीमूतो जीवनोsरिहा ।।7।।

भूताश्रयो भूतपति: सर्वलोकनमस्कृत: ।
स्रष्टा संवर्तको वह्रि सर्वलोकनमस्कृत: ।।8।।

अनन्त कपिलो भानु: कामद: सर्वतो मुख: ।
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता ।।9।।

मन: सुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक: ।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोsअदिते: सुत: ।।10।।

द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह: ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम ।।11।।

देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख: ।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय करुणान्वित: ।।12।।

एतद वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजस: ।
नामाष्टकशतकं चेदं प्रोक्तमेतत स्वयंभुवा ।।13।।

हिंदी अनुवाद भगवान सूर्य देव के १०८ नाम

  1. अरुण- तांबे जैसे रंग वाला
  2. शरण्य- शरण देने वाला [ शरण वत्सल ]
  3. करुणारससिन्धु- करुणा- भावना के महासागर
  4. असमानबल- असमान बल वाले
  5. आर्तरक्षक- पीड़ा से रक्षा करने वाले
  6. आदित्य- अदिति के पुत्र
  7. आदिभूत- प्रथम जीव
  8. अखिलागमवेदिन- सभी शास्त्रों के ज्ञाता
  9. अच्युत- जिसता अंत विनाश न हो सके
  10. अखिलज्ञ- सभी शास्त्रों में निपूर्ण
  11. अनन्त- जिसकी कोई सीमा नहीं है
  12. इना- बहुत शक्तिशाली
  13. विश्वरूप- सभी रूपों में दिखने वाला
  14. इज्य- परम पूजनीय
  15. इन्द्र- देवताओं के राजा
  16. भानु- एक अद्भुत तेज के साथ
  17. इन्दिरामन्दिराप्त- इंद्र निवास का लाभ पाने वाले
  18. वन्दनीय- स्तुती करने योग्य
  19. ईश- इश्वर
  20. सुप्रसन्न- बहुत उज्ज्वल
  21. सुशील- शील विचारो से युक्त
  22. सुवर्चस्- तेजोमय चमक वाले
  23. वसुप्रद- धन दान करने वाले
  24. वसु- देव
  25. वासुदेव- भगवान श्री कृष्ण
  26. उज्ज्वल- धधकता हुआ तेज वाला
  27. उग्ररूप-क्रोद्ध में रहने वाले
  28. ऊर्ध्वग- आकार बढ़ाने वाला
  29. विवस्वत्-चमकता हुआ
  30. उद्यत्किरणजाल- रोशनी की बढ़ती कड़ियों का एक जाल उत्पन्न करने वाले
  31. हृषीकेश- इंद्रियों के स्वामी
  32. ऊर्जस्वल- पराक्रमी
  33. वीर- (निडर) न डरने वाला , निर्भय
  34. निर्जर- न बिगड़ने वाला
  35. जय- जीत हासिल करने वाला
  36. ऊरुद्वयाभावरूपयुक्तसारथी- बिना जांघों वाले सारथी
  37. ऋषिवन्द्य- ऋषियों द्वारा पूजे जाने वाले
  38. रुग्घन्त्र्- रोग के विनाशक
  39. ऋक्षचक्रचर- सितारों के चक्र के माध्यम से चलने वाले
  40. ऋजुस्वभावचित्त- प्रकृति की वास्तविक शुद्धता को पहचानने वाले
  41. नित्यस्तुत्य- प्रशस्त के लिए तैयार रहने वाला
  42. ऋकारमातृकावर्णरूप- ऋकारा पत्र के आकार वाला
  43. उज्ज्वलतेजस्- धधकते दीप्ति वाले
  44. ऋक्षाधिनाथमित्र- तारों के देवता के मित्र
  45. पुष्कराक्ष- कमल नयन वाले
  46. लुप्तदन्त- जिनके दांत नहीं हैं
  47. शान्त- शांत रहने वाले
  48. कान्तिद- सुंदरता के दाता
  49. घन- नाश करने वाल
  50. कनत्कनकभूष- तेजोमय रत्न वाले
  51. खद्योत- आकाश की रोशनी
  52. लूनिताखिलदैत्य- असुरों का नाश करने वाला
  53. सत्यानन्दस्वरूपिण्- परमानंद प्रकृति वाले
  54. अपवर्गप्रद- मुक्ति के दाता
  55. आर्तशरण्य- दुखियों को अपने शरण में लेने वाले
  56. एकाकिन्- त्यागी
  57. भगवत्- दिव्य शक्ति वाले
  58. सृष्टिस्थित्यन्तकारिण्- जगत को बनाने वाले, चलाने वाले और उसका अंत करने वाले
  59. गुणात्मन्- गुणों से परिपूर्ण
  60. घृणिभृत्- रोशनी को अधिकार में रखने वाले
  61. बृहत्- बहुत महान
  62. ब्रह्मण्- अनन्त ब्रह्म वाला
  63. ऐश्वर्यद- शक्ति के दाता
  64. शर्व- पीड़ा देने वाला
  65. हरिदश्वा- गहरे पीले के रंग घोड़े के साथ रहने वाला
  66. शौरी- वीरता के साथ रहने वाला
  67. दशदिक्संप्रकाश- दसों दिशाओं में रोशनी देने वाला
  68. भक्तवश्य- भक्तों के लिए चौकस रहने वाला
  69. ओजस्कर- शक्ति के निर्माता
  70. जयिन्- सदा विजयी रहने वाला
  71. जगदानन्दहेतु- विश्व के लिए उत्साह का कारण बनने वाले
  72. जन्ममृत्युजराव्याधिवर्जित- युवा,वृद्धा, बचपन सभी अवस्थाओं से दूर रहने वाले
  73. उच्चस्थान समारूढरथस्थ- बुलंद इरादों के साथ रथ पर चलने वाले
  74. असुरारी- राक्षसों के दुश्मन
  75. कमनीयकर- इच्छाओं को पूर्ण करने वाले
  76. अब्जवल्लभ- अब्जा के दुलारे
  77. अन्तर्बहिः प्रकाश- अंदर और बाहर से चमकने वाले
  78. अचिन्त्य- किसी बात की चिन्ता न करने वाले
  79. आत्मरूपिण्- आत्मा रूपी
  80. अच्युत- अविनाशी रूप वाले
  81. अमरेश- सदा अमर रहने वाले
  82. परम ज्योतिष्- परम प्रकाश वाले
  83. अहस्कर- दिन की शुरूआत करने वाले
  84. रवि- भभकने वाले
  85. हरि- पाप को हटाने वाले
  86. परमात्मन्- अद्भुत आत्मा वाले
  87. तरुण- हमेशा युवा रहने वाले
  88. वरेण्य- उत्कृष्ट चरित्र वाला
  89. ग्रहाणांपति- ग्रहों के देवता
  90. भास्कर- प्रकाश के जन्म दाता
  91. आदिमध्यान्तरहित- जन्म, मृत्यु, रोग आदि पर विजय पाने वाले
  92. सौख्यप्रद- खुशी देने वाला
  93. सकलजगतांपति- संसार के देवता
  94. सूर्य- शक्तिशाली और तेजस्वी
  95. कवि- ज्ञानपूर्ण
  96. नारायण- पुरुष की दृष्टिकोण वाले
  97. परेश- उच्च देवता
  98. तेजोरूप- आग जैसे रूप वाले
  99. हिरण्यगर्भ्- संसार के लिए सोनायुक्त रहने वाले
  100. सम्पत्कर- सफलता को बनाने वाले
  101. ऐं इष्टार्थद- मन की इच्छा पूरी करने वाले
  102. अं सुप्रसन्न- सबसे अधिक प्रसन्न रहने वाले
  103. श्रीमत्- सदा यशस्वी रहने वाले
  104. श्रेयस्- उत्कृष्ट स्वभाव वाले
  105. सौख्यदायिन्- प्रसन्नता के दाता
  106. दीप्तमूर्ती- सदा चमकदार रहने वाले
  107. निखिलागमवेद्य- सभी शास्त्रों के दाता
  108. नित्यानन्द- हमेशा आनंदित रहने वाले

ये अमित तेजस्वी भगवानसूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्माजी ने किया | इन नामों का उच्चारण करके भगवान सूर्य को नमस्कार करना चाहिए \ समस्त देवता , पितृ जिनकी सेवा करते हैं , सिद्ध जन जिनकी आराधना करते हैं जिनका क्रांतिमान हैं उन भगवान भास्कर को मैं अपने हित के लिए प्रणाम कर्ता हूँ |

जो मनुष्य सूर्योदय के समय भलीभांति एकाग्रचित होकर सूर्य के एक सौ आठ नामों का जप पाठ कर्ता हैं वह स्त्री , पुत्र , धन , रत्न राशी पूर्वजन्म की स्मृति धेर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त कर लेता हैं |

जो मनुष्य स्नानादि से निर्वत होकर पवित्र चित से शुद्ध चित हो देवेश्वर भगवान सूर्य के नामों का कीर्तन करता हैं , वह मनचाही वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं |

हे जनमेजय ! ऋषि धौम्य के कहने पर ब्राह्मणों को देने के लिए अन्न की प्राप्ति के उद्देश्य से नियम से स्थित हो मन को वश में रख कर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए धर्मराज युधिष्ठर ने उत्तम तपस्या का अनुष्ठान किया | राजा युधिष्ठर ने गंगा जी में स्नान करके पुष्प और नैवेध्य से भगवान श्री दिवाकर भगवान का पूजन किया और उनके समुख खड़े हो गये | चित को एकाग्र होकर गंगाजल से आचमन करके वाणी को वश में रखकर प्राणायाम पूर्वक स्थित रहकर अष्टोत्तरशत नामत्म्क स्तोत्र का जप किया |

सूर्य देव ! आप सम्पूर्ण जगत के नेत्र तथा समस्त प्राणी यों की आत्मा हैं | आप ही सब जीवों की उत्त्पति स्थान और कर्मानुष्ठान में लगे हुए पुरुषो के सदाचार हैं |

आप ही सम्पूर्ण जगत के आधार हैं आपसे ही ये प्रकाशित होता हैं आप ही जसे पवित्र करते हैं | सूर्य देव आप ही ऋषियों द्वारा पूजित हैं |तैतीस करोड़ देवी देवता सिद्धजन आपकी आराधना कर सिद्धि प्राप्त हुए हैं |सातों लोको में ऐसा कोई प्राणी नहीं दीखता जो आप भगवान सूर्य से बढकर हो |

यदि आपका उदय नहीं हो तो सम्पूर्ण जगत अंधकारमय हो जाता हैं | ब्रह्माजी ने जो दिन बनाया हैं उसका आदि और अंत आप ही हैं |

त्वं हंस सविता भानुंरशुमाली वृषाकपि ;|

विवस्वानमिहिर: पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च ||

सहस्त्ररश्मिरादित्य स्तपनस्तवं गवामप्ती: |

मार्तण्डाय रवि: सूर्य: शरणार्यो दिनकृत तथा ||

आशुगामी तमोन्न्श्च हरिताश्रवश्रच कीत्यर्स्र ||

जो सप्तमी और षष्टि को खेद और अहंकार से रहित हो भक्तिभाव से आपकी पूजा अर्चना कर्ता हैं उस मनुष्य को लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं , उन पर कभी आपति नहीं आती , वे कभी मानसिक चिंताओं से ग्रस्त नहीं होते , वे सम्पूर्ण पापो से रहित होकर चिरंजीवी एवं सुखी होते हैं | हे सूर्यदेव ! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की मनोकामना से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ | आप मुझे अन्न देने की कृपा करे |

जब युधिष्ठर ने भगवान प्रत्यक्ष भास्कर की आराधना की तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन युधिष्ठर को दर्शन दिया | भगवान सुरदेव बोले ! तुम जो भी कुछ चाहते हो , वह सब तुम्हे प्राप्त होगा | मैं बारह वर्ष तक तुम्हे अन्न प्रदान करूंगा |

राजन ! यह मेरी दी  हुई ताम्बे की बटलोई लो | सुव्रत ! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल मूल कंद भोजन करने योग्य अन्य पदार्थ तथा साग जो चार प्रकार ली भोजन सामग्री तैयार होगी वह तब तक अक्षय बनी रहेगी जब तक द्रोपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी | आज से चौदहवे वर्ष तुम अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लोगे | इतना कहकर भगवान सूर्य देव अंतर्ध्यान हो गये |

जो कोई स्त्री पुरुष मन को संयमित कर इस स्तोत्र का पाठ करेगा वह दुर्लभ से दुर्लभ वर भी प्राप्त कर लेगा |जो प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ करता हैं अथवा बार बार सुनता हैं यदि वह पुत्र चाहता हैं तो पुत्र ,धन चाहता हैं तो धन , विद्या चाहता हैं तो विद्या सलभ ही प्राप्त हो जाती हैं | जो दोनों संध्याओ के समय इस स्तोत्र का पाठ करता हैं वह आजीवन सुख पूवर्क जीवन यापन करता हैं |

यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्माजी ने इंद्र भगवान को इंद्र भगवान ने नारद जी को नारदजी ने धौम्य ऋषि को प्रदान किया धौम्य ऋषि से इसका उपदेश राजा युधिष्ठर ने प्राप्त कर अपनी समस्त मनोकामनाए पूर्ण की |जो इसका अनुष्ठान करता हैं वह युद्ध में विजय प्राप्त करता हैं  , बहुत धन पाता हैं और अंत में सूर्य लोक में स्थान प्राप्त करता हैं | गंगा जी के जल से युधिष्ठर बाहर आकर धौम्य ऋषि के चरण पकड़ लिए और अपने भाइयो को गले लगा लिया | द्रोपदी ने उन्हें प्रणाम किया | फिर युधिष्ठर ने बटलोई को चूल्हे पर रखा और रसोई तैयार करवाई | उसमें तैयार चार प्रकार की रसोई जब तक द्रोपदी भोजन नही कर लेती उसमे भोजन समाप्त नहीं होता |

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