।।श्री गणेशाय नमः ।।
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरित मानस
प्रथम सोपान
बालकाण्ड – भाग 2
यह श्री रामचरितमानस पुण्यरूप , पापों का हरण करने वाला , सदा कल्याणकारी , विज्ञानं और भक्ति को देने वाला , माया मोह और मल का नाश करने वाला , परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय हैं |जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं , वे इस संसार रूपी सूर्य की अति प्रचंड किरणों से नहीं जलते |
चौ 0 – नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी ॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥
दो 0 – नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥
कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ॥
राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥
दो 0 – राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ २७ ॥
चौ 0 – भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो । निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं । बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥
गनी गरीब ग्रामनर नागर । पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥
साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृपाला ॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी । भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान सिरोमनि कोसलराऊ ॥
रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिनमति मोतें ॥
दो ० – सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु ।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ २८(क) ॥
चौ 0 – हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास ।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ २८(ख) ॥
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने । राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥
दो ० – प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ २९(क) ॥
चौ 0 – राम निकाईं रावरी है सबही को नीक ।
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ २९(ख) ॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ २९(ग) ॥
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक समाना ॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥
दो॰ मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ ३०(क) ॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़ ।
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ ३०(ख)
तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा भव सरिता तरनी ॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥
रामकथा कलि पंनग भरनी । पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥
रामकथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि । भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि । साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि ॥
संत समाज पयोधि रमा सी । बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपति रासी ॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी । रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥
दो ० – राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ ३१ ॥
चौ 0 – राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिय सुभग सिंगारू ॥
जग मंगल गुन ग्राम राम के । दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के । बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के । बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥
समन पाप संताप सोक के । प्रिय पालक परलोक लोक के ॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के । कुंभज लोभ उदधि अपार के ॥
काम कोह कलिमल करिगन के । केहरि सावक जन मन बन के ॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥
हरन मोह तम दिनकर कर से । सेवक सालि पाल जलधर से ॥
अभिमत दानि देवतरु बर से । सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से । जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥
सेवक मन मानस मराल से । पावक गंग तंरग माल से ॥
दो ० – कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड ।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥ ३२(क) ॥
चौ 0 – रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु ।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ ३२(ख) ॥
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी । जेहि बिधि संकर कहा बखानी ॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध बिचित्र बनाई ॥
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई । जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी । नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं ॥
नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए । भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
करिअ न संसय अस उर आनी । सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥
दो ० – राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार ।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ ३३ ॥
चौ 0 – एहि बिधि सब संसय करि दूरी । सिर धरि गुर पद पंकज धूरी ॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी । करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा । बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ॥
संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधु मासा । अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं । तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा । आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना । करहिं राम कल कीरति गाना ॥
दो ० – मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर ।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥ ३४ ॥
चौ 0 – दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारद बिमलमति ॥
राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥
चारि खानि जग जीव अपारा । अवध तजे तनु नहि संसारा ॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥
रामचरितमानस एहि नामा । सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥
मन करि विषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एहिं सर परई ॥
रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥
रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥
दो॰ जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु ।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी । रामचरितमानस कबि तुलसी ॥
करइ मनोहर मति अनुहारी । सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदधि घन साधू ॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई । सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥
सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥
मेधा महि गत सो जल पावन । सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥
दो ० – सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि ।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ ३६ ॥
चौ 0 – सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥
राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई ॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥
अरथ अनूप सुमाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान बिराग बिचार मराला ॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥
अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥
नव रस जप तप जोग बिरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई । श्रद्धा रितु बसंत सम गाई ॥
भगति निरुपन बिबिध बिधाना । छमा दया दम लता बिताना ॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना । हरि पत रति रस बेद बखाना ॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा । तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा ॥
दो ० – पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु ।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥ ३७ ॥
जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥
अति खल जे बिषई बग कागा । एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥
संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे । कामी काक बलाक बिचारे ॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई । राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥
गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
बन बहु बिषम मोह मद माना । नदीं कुतर्क भयंकर नाना ॥
दो ० – जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ ३८ ॥
चौ 0 – जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई । जातहिं नींद जुड़ाई होई ॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना । फिरि आवइ समेत अभिमाना ॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा । सर निंदा करि ताहि बुझावा ॥
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई । महा घोर त्रयताप न जरई ॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ । जिन्ह के राम चरन भल भाऊ ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥
अस मानस मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥
सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि ॥
दो० – श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल ।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥ ३९ ॥
चौ 0 – रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥
सानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरुप सिंधु समुहानी ॥
मानस मूल मिली सुरसरिही । सुनत सुजन मन पावन करिही ॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा । जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥
उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥
रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरंग मनोहरताई ॥
दो ० – बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग ।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग ॥ ४० ॥
चौ 0 – सीय स्वयंबर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका । केवट कुसल उतर सबिबेका ॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई । पथिक समाज सोह सरि सोई ॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी । घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥
सानुज राम बिबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं । ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥
राम तिलक हित मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥
काई कुमति केकई केरी । परी जासु फल बिपति घनेरी ॥
दो ० – समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग ।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥
दो ० – अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥
चौ 0 – आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥
सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥
दो ० – मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥
चौ 0 – अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥ ४३(ख) ॥
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥
दो ० – ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥ ४४ ॥
चौ 0 – एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥
दो ० – संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥
चौ 0 – अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥
दो ० – प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ ४६ ॥
चौ 0 – न जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥
दो ० – कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ ४७ ॥
चौ 0 – एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥
दो ० – ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥
सो ० – संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ ४८(ख) ॥
चौ 0 – रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥
दो ० – अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ ४९ ॥
चौ 0 – संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥
जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधमा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
दो ० – ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ ५० ॥
चौ 0 – बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
छं ० – मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥
सो ० – लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ ५१ ॥
चौ 0 – जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधी बिपरीत भलाई नाहीं ॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥
दो ० – पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप ।
आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ ५२ ॥
चौ 0 – लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥
दो ० – राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥
चौ 0 – मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर वेषा ॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
दो ० – सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ ५४ ॥
चौ 0 – देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता ॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥
दो ० – गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥
मासपारायण, दूसरा विश्राम