कार्तिक स्नान विधि

 

 

 

 

 

 

 स्नानके लिये श्रेष्ठ तीर्थोंका वर्णन

ब्रह्माजी कहते हैं- कार्तिकका व्रत आश्विन शुक्लपक्षकी

दशमीसे आरम्भ करके कार्तिक शुक्ला दशमीको समाप्त करे, अथवा आश्विनकी पूर्णिमाको आरम्भ करके कार्तिककी पूर्णिमाको पूरा करे। भक्तिमान् पुरुष आश्विन शुक्लपक्षकी एकादशी आनेपर भगवान् विष्णुको नमस्कार करके उनसे कार्तिकव्रत करनेकी आज्ञा प्राप्त करे और विधिसे कार्तिकव्रतका पालन करे। बारहों महीनोंमें मार्गशीर्षमास अत्यन्त पुण्यप्रद है, उससे अधिक पुण्यफल देनेवाला नर्मदातटपर वैशाखमास बताया गया है। उससे लाखगुना अधिक प्रयागमें माघमासका महत्त्व है। उससे भी महान् फल देनेवाला कार्तिकमास है। इसका महत्त्व सर्वत्र जलमें एक-सा ही है। एक ओर सब दान, व्रत और नियम तथा दूसरी ओर कार्तिकका स्नान तराजूपर रखकर ब्रह्माजीने तौला तो कार्तिकका ही पलड़ा भारी रहा। स्नान, दीपदान, तुलसीके पौधोंको लगाना और सींचना, पृथ्वीपर शयन, ब्रह्मचर्यका पालन, भगवान् विष्णुके नामोंका संकीर्तन तथा पुराणोंका श्रवण- इन सब नियमोंका जो कार्तिकमासमें (निष्कामभावसे) पालन करते हैं, वे ही जीवन्मुक्त हैं। यह व्रत भगवान् श्रीकृष्णको बहुत प्रिय है। सूर्यभक्त, गणेशभक्त, शक्ति- उपासक, शिवोपासक और वैष्णव- सभीको सब पापोंका निवारण करनेके लिये कार्तिकस्नान करना चाहिये। सूर्यकी प्रीतिके लिये जबतक सूर्यनारायण तुला राशिपर स्थित हों तबतक व्रत करना चाहिये। आश्विनकी पूर्णिमासे लेकर कार्तिककी पूर्णिमातक भगवान् शंकरकी प्रसन्नताके लिये स्नान करना चाहिये।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

देवीपक्ष अर्थात् आश्विन शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी महारात्रिके आनेतक भगवती दुर्गाकी प्रसन्नताके लिये स्नान करना चाहिये। गणेशजीकी प्रसन्नताक्के लिये आश्विन कृष्ण चतुर्थी से लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थीज्ञतक नियमपूर्वक स्नान करना चाहिये। जो आश्विन शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक कार्तिकक्षव्रतकी समाप्ति करता है, उसके ऊपर भगवान् जनार्दन प्रसन्न होते हैं। जो दूसरोंके संग वश या बलात् जानकर अथवा बिना जाने ही कार्तिक मास में  प्रातः स्नानका नियम पूरा कर लेता है, वह कभी यम-यातना को नहीं देखता। अथवा जो ब्राह्मण कार्तिकमें प्रातः स्नान करते हैं, उन्हें ओढ़नेके लिये कम्बल या रजाई देकर स्नानजनित पुण्यफलको प्राप्त करे। कार्तिकमासमें विशेषतः श्रीराधा और श्रीकृष्णकी पूजा करनी चाहिये। जो कार्तिक में तुलसी वृक्षके नीचे श्रीराधा और श्री कृष्णकी मूर्तिका पूजन करते हैं, उन्हें जीव न्मुक्त समझना चाहिये। हजारों पापोंसे युक्त मनुष्य क्यों न हो, वह कार्तिक स्नान से अवश्य पापयुक्त है। जाता है। तुलसी के अभाव में आँवले के नीचे पूजा करनी चाहिये। मुख्य पूजा की विधि सूर्यमण्डल में करनी चाहिये अर्थात् सूर्यमण्डल की ओर देखकर सूर्यरूपी नारायणके लिये पूजनो पचार समर्पित करना चाहिये। सब देवता अप्रत्यक्ष हैं, केवल ये भगवान् सूर्य ही प्रत्यक्ष हैं। अन्य सब देवता कालके अधीन हैं, परंतु भगवान् सूर्य कालके भी काल हैं। जो दरिद्र है वही दानका पात्र है। उसकी अपेक्षा भी विद्वान् पुरुष दानका विशेष पात्र है। भगवान् विष्णुकी चल मूर्तिसे अचल मूर्ति श्रेष्ठ मानी गयी है। मूर्तिके अभाव में भगवद्बुद्धि से पीपल अथवा वटकी पूजा करनी चाहिये। पीपल भगवान् विष्णुका और वट भगवान् शंकरका स्वरूप है। शालग्रामशिला के चक्र में सदा भगवान् विष्णुका निवास है, इसलिये प्रयत्न पूर्वक शालग्राम की पूजा करनी चाहिये। पलाश ब्रह्माजी के अंशसे उत्पन्न हुआ है। जो कार्तिक मास में उसके पत्तल में भोजन करता है, वह भगवान् विष्णुके लोक में जाता है।

 

 

 

 

 

पीपल के रूप में साक्षात् भगवान् विष्णु विराजमान हैं, इसलिये कार्तिक में प्रयत्न पूर्वक उसका पूजन करना चाहिये। जो लोग कार्तिक मास में स्नान, जागरण, दीपदान और तुलसीवन की रक्षा करते हैं, वे भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। जो भगवान् विष्णुके मन्दिर में झाड़ देकर स्वस्तिक आदि का मंगल चिह्न बनाते और भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे जीवन् मुक्त हैं।

जब दो घड़ी रात बाकी रहे, तब तुलसी की मृत्तिका, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय के समीप जाय। पैर धोकर गंगा आदि नदियों तथा विष्णु और शिव आदि देवताओंका स्मरण करे। फिर नाभि के बराबर जल में खड़ा होकर इस मन्त्र को पढ़े-
कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातः स्नानं जनार्दन। प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ॥ ‘जनार्दन ! देवेश्वर दामोदर ! लक्ष्मीसहित आपकी प्रसन्नताके लिये मैं कार्तिकमें प्रातः स्नान करूँगा।’

तत्पश्चात् –

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे। नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।। नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते।

 

 

 

भगवन् ! आप श्रीराधाके साथ मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको स्वीकार करें। हरे ! आप कमलनाभको नमस्कार है। जलमें शयन करनेवाले आप नारायणको नमस्कार है। हृषीकेश! यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये, आपको बार-बार नमस्कार है।’

मनुष्य किसी भी तीर्थमें स्नान करे, उसे गंगाका स्मरण अवश्य करना चाहिये। पहले मृत्तिका आदिसे स्नान करके पावमानी ऋचाओंद्वारा अपने मस्तकपर अभिषेक करे। अघमर्षण और स्नानांगतर्पण करके पुरुषसूक्तसे सिरपर जल छिड़के। उसके बाद बाहर आकर पुनः मस्तकपर तीर्थका जल सींचे। फिर हाथमें तुलसी लेकर तीन बार आचमन करके पानीसे बाहर धोती निचोड़े। वस्त्र निचोड़नेके पश्चात् तिलक आदि करे। कार्तिकमें जहाँ कहीं भी प्रत्येक जलाशयके जलमें स्नान करना चाहिये। गरम जलकी अपेक्षा ठण्डे जलमें स्नान करनेसे दसगुना पुण्य होता है। उससे सौगुना पुण्य बाहरी कुएँके जलमें स्नान करनेसे होता है। उससे अधिक पुण्य बावड़ीमें और उससे भी अधिक पुण्य पोखरेमें स्नान करनेसे होता है। उससे दसगुना झरनोंमें और उससे भी अधिक पुण्य कार्तिकमें नदीस्नान करनेसे होता है। उससे भी दसगुना तीर्थस्थानमें बताया गया है। तीर्थसे दसगुना पुण्य वहाँ होता है, जहाँ दो नदियोंका संगम हो और यदि कहीं तीन नदियोंका संगम हो, तब तो पुण्यकी कोई सीमा ही नहीं है। सिन्धु, कृष्णा, वेणी, यमुना, सरस्वती, कोई वरी, वेत्रवती (बेतवा), अपराजिता, गण्डकी, गोमती, पूर्णा, ब्रह्मपुत्रा, क्षिप्रा, चर्मण्वती (चम्बल), बितस्ता (झेलम), वेदिका, शोणभद्र, मानसरोवर, वाग्मती, शतदु (शतलज) – ये तीर्थ कार्तिकमें दुर्लभ हैं। सब स्थलोंसे अधिक आर्यावर्त (विन्ध्याचल और हिमालयके भीतरका प्रदेश-उत्तर भारत) पुण्यदायक है, उससे भी कोल्हापुरी श्रेष्ठ है, कोल्हापुरीसे श्रेष्ठ विष्णुकांची और शिवकांची हैं। उससे श्रेष्ठ है अनन्तसेनका निवासस्थान वराहक्षेत्र, वराहक्षेत्रसे चक्रकक्षेत्र और चक्रकक्षेत्रसे अधिक पुण्यमय मुक्तिकक्षेत्र है। उससे श्रेष्ठ अवन्तीपुरी और अवन्तीपुरीसे श्रेष्ठ बदरिकाश्रम है। बदरिकाश्रमसे अयोध्या, अयोध्यासे गंगाद्वार, गंगाद्वारसे कनखल और कनखलसे भी श्रेष्ठ मथुरा है; क्योंकि कार्तिकमें वहाँ स्वयं भगवान् राधाकृष्ण स्नान करते हैं। मथुरासे भी श्रेष्ठ द्वारका है। जिन्होंने भगवान् गोविन्दमें अपने चित्तको लगा रखा है, उनके लिये द्वारका सूर्यके समान पुण्यका प्रकाश करनेवाली है। द्वारकासे भी श्रेष्ठ भागीरथी हैं। वह भी जहाँ विन्ध्यपर्वतसे मिलती हैं, वहाँ अधिक श्रेष्ठ हैं। उससे दसगुना पुण्य तीर्थराज प्रयागमें होता है। उससे श्रेष्ठ काशी है, जिसके आश्रयसे गंगाजी भी मनुष्योंके सब पापोंका नाश करती हैं। काशीमें पंचनद (पंचगंगा) तीर्थ है,

 

 

 

 

 

 

 

जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। कार्तिकमास आनेपर रौरव नरकमें पड़े हुए पितर भी चिल्लाते हैं कि क्या हमारे वंशमें कोई ऐसा भाग्यवान् पैदा होगा, जो पंचगंगामें जाकर हमारे लिये नरकसे उद्धार करनेवाला तर्पण करेगा। लाखों पाप करके भी मनुष्य यदि पंचगंगामें नहाकर विन्दुमाधवजीकी पूजा करे तो उसके सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
कुछ रात बाकी रहे तभी स्नान किया जाय तो वह उत्तम और भगवान् विष्णुको सन्तुष्ट करनेवाला है। सूर्योदय कालमें कियर हुआ स्नान मध्यम श्रेणीका है, जबतक कृत्तिका अस्त नया अभी तक स्नानका उत्तम समय है, अन्यथा बहुत विलम्ब करके किया हुआ स्नान कार्तिकक् स्नान की श्रेणीक्षमें नहीं आता। स्त्रियों को पतिकी आज्ञा लेकर कार्तिक स्नान करना चाहिये; क्योंकि पतिसे बिना पूछे जो धर्म कार्य किया जाता है, वह पतिकी आयुको क्षीण कर देता है। स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जो पतिकी आज्ञा का पालन करे, वही इस संसार में धर्मवती है; केवल व्रत आदि से धर्मवती नहीं होती। पति यदि दरिद्र, पतित, मूर्ख अथवा दीन भी हो तो वह वैसा होता हुआ भी स्त्रीका आश्रय है। उसके त्यागसे स्त्री नरक में गिरती है। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर, वाणी और मन-ये काबू में रहें तथा जिसमें विद्या, तप एवं कीर्ति हो, वही मनुष्य तीर्थ के फलका भागी होता है। जिसकी तीर्थों में  श्रद्धा न हो, जो तीर्थ में भी पापकी ही बात सोचता हो, नास्तिक हो, जिसका मन दुविधामें पड़ा हो तथा जो कोरा तर्कवादी हो- ये पाँच प्रकारके मनुष्य तीर्थफल के भागी नहीं होते। जो ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है।

 

 

 

 

 

 

 

स्नानका तत्त्व जाननेवाले मनीषी पुरुषोंने चार प्रकारके स्नान बतलाये हैं- वायव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य। गोधूलि से किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है। समुद्र आदि के जल में जो किया जाता है, उसे वरुण कहते हैं। वेद मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक जो स्नान होता है. उसका नाम ब्राह्म है तथा मेघों अथवा सूर्यकी किरणों द्वारा जो जल अपने शरीर पर गिरता है, उसे दिव्य स्नान कहा गया है। इन सभी स्नानों में वरुण स्नान सबसे उत्तम है। कहण, क्षत्रिय और वैश्य को मन्त्रो उच्चारण पूर्वक स्नान करना चाहिये। स्त्री और शूद्र के लिये बिना मन्त्र के ही स्नानका विधान है। प्राचीन समय में श्रेष्ठ तीर्थ पुष्कर में जहाँ नन्दा-संगम है, वहीं नन्दा के कहनेसे राजा प्रभंजन कार्तिक मास में पुष्कर स्नान करके व्याघ्र योनि स मुक्त हुए थे और नन्दा भी कार्तिक में पुष्कर का स्पर्श पाकर परम धामको प्राप्त हुई थी।

 

 

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