माघ मास महात्मय पच्चीसवां अध्याय | Magh Mass Mahatmy 25 Va Adhyaay

माघ स्नान कथा 25 वा दिन

 

 

 

माघ मास महात्म्य पच्चीसवां अध्याय

[ माघ मास माघ मास ] पिशाच कहने लगा कि हे मुनि! केरल देश का ब्राह्मण किस प्रकार मुक्त हुआ। यह क्या विस्तारपूर्वक कहिए। देवद्यति कहने लगा केरल देश में वासु नाम वाला एक तेंद पारंगत ब्राह्मण था। उसके बंधुओं ने उसकी भूमि छीन ली, जिससे वह निर्धन और दुखी होकर अपनी जन्मभूमि त्यागकर देश-देश में घूमता किसी व्याधि ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसका कोई बांधव न होने के कारण उसकी और्ध्व वैदिक क्रिया नहीं हुई और न ही उसकी दाह-क्रिया हुई। इस प्रकार क्रिया के लोप होने से निर्जन वन में प्रेत होकर चिरकाल तक फिरता रहा। शीत, ताप, भूख-
प्यास के दुख से हाहाकार करता हुआ, वह बंगे शरीर रोता फिरता था। परन्तु उसकी कहीं सहति नहीं दिखाई देती थी। सर्वथा दान न देने से वह अपने कर्म रहित है। लोमश जी बोले प्रेत यह वचन सुनकर कहने लगा कि मेरे ऐसा होने का कारण सुनो। मैने कभी ब्राह्मणों को दान नहीं दिया, अत्यन्त लोभी, क्रियाहीन, दूसरे के अन्न से पलने वाला और अकेला मिठाई खाने वाला था। मैंने कभी किसी को भिक्षा नहीं दी, न दूसरे के दुःख से दुखी हुआ। प्यासे प्राणियों को मैंने कभी जल नहीं पिलाया। मैंने कभी छाता, जूता दान नहीं किया न किसी को जल का पात्र, पान या औषधि किसी अतिथि को हरा कर उसका सत्कार किया। अन्धे वृद्ध, अनाथ और दीनों को मैंने कभी अन्न से सन्तुष्ट नहीं किया
 और न किसी रोगी को मुक्त न कभी ब्राह्मणों को दान दिया, न कभी अग्नि में हवन किया। वैशाखादि मास में किसी को ठण्डा जल नहीं पिलाया न ही मैंने वड या पीपल का कोई वृक्ष लगाया न किसी प्राणी को बंधन से छुड़ाया। कभी कोई व्रत करके शरीर को नहीं सुखाया। इस कारण मेरा पूर्व जन्म सव कुरे कार्यों में ही व्यतीत हुआ। मेरे पूर्व जन्म के कर्मों से ही मेरी यह गति हुई है। इस वन में व्याघ्र भेड़िये से बचा हुआ, मांस तथा जन्तुओं के खाने से गिरे हुए फल, वृक्षों पर लगे हुए सुन्दर फल तथा झरने का सुन्दर जल सव ही मिलते हैं। परन्तु देव इच्छा से मैं कुछ नहीं खा सकता। सर्प की तरह केवल ऊपावन भक्षण करके जीवन व्यतीत करता हूँ। बल, बुद्धि, मंत्र, पुरुषार्थ से मनुष्य

अलभ्य वस्तु को प्राप्त नहीं करता। लाभ हानि, सुख-दुख, विवाह, मृत्यु, जीवन, भोग, रोग तथा वियोग में केवल भाग्य हो कारण होता है। कुरूप, पूर्ख, कुकर्मी, निन्दित तथा पराक्रम से हीन मनुष्य भी भाग्य से ही राज्य भोगते हैं। काने, लूले, लंगडे नीतिहीन, निर्गुणा, नपुंसक भाग्य से राज्य प्राप्त करते हैं। पर्वत पर भी बलवान राक्षस पिशाच रहते हैं, जिनमें से कभी-कभी कोई- कोई कहीं-कहीं वन में फिरते हुए अपने कर्म के अनुसार अन्न जल प्राप्त करते हैं, परन्तु आपको उनका भय नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों की उनकी पवित्रता ही रक्षा करती है। ग्रह, नक्षत्र देवता सर्वथा धर्मात्माओं की रक्षा करते हैं। यह पिशाच आप जैसे भक्त की तरफ आंख उठाकर भी
 नहीं देख सकते जो नारायण की, भगवान की भक्ति से पवित्र रहता है उसको प्रेत, पिशाच, गन्धर्व काकिन, शाकिनी, ग्रह रेवती, यज्ञ मातृ यह भयंकर ग्रह. कृत्या, सर्वकुष्मांड तथा दूसरे दुष्ट जन्तु पवित्र वैष्णव की तरफ देख भी नहीं सकते। जिसकी जिह्वा पर गोविन्द का नाम, हृदय में वेद तथा श्रुति विद्यमान है, जो पवित्र और दानी हैं ऐसे जीव को कभी भय नहीं हो सकता। हे ब्राह्मण! इस प्रकार कर्मों का फल भोगता हुआ यहां रहता हूं। ऐसा सोचकर में शोक नहीं करता। एक बार में जवालिनी नदी के किनारे पर गया था, वहां पर घूमते हुए वचनों को सुना था। मैंने सारस के
वचनों को सुना था
॥ इति श्रीपुराण महात्म्य पच्चीसवां अध्याय ||

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