माघ मास महात्मय उन्नीसवां अध्याय

 [ माघ मास ] वह पांचों कन्यायें इस प्रकार विलाप करती हुई बहुत देर प्रतीक्षा करके अपने घर में लौटीं। जब घर पर आईं तो माताओं ने पूछा कि इतना बिलम्ब तुमने क्यों कर दिया? तब कन्याओं ने कहा कि हम किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थीं और कहने लगीं की आज हम थक गईं हैं और जाकर लेट गईं। वशिष्ठ जी कहते हैं कि इस प्रकार आशय को छुपाकर वह विरह की मारी पड़ गईं। उन्होंने घर में आकर किसी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की। वह रात्रि उनको एक युग के समान बीती। सूर्यनारायण के उदय होते ही, अपने आपको जीवित मानती हुई माताओं की
आज्ञा लेकर गौरी पूजन करके वे कन्याएं वहां पर जाने लगीं। उसी समय ब्राह्मण भी स्नान करने के लिए अच्छोद सरोवर पर आ रहा था। उसके आने पर कन्याओं ने वाह-वाह किया जैसे कमलिनी प्रातःकाल सूर्योदय को देखकर कहती है। उसको देखकर उनके नेत्र खुल गये और उस ब्रह्मचारी के पास गईं। आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर चारों तरफ से उसको घेर लिया और कहने लगीं कि मूर्ख उस दिन तू भाग गयाथा आज नहीं . भाग सकता। हम लोगों ने तुमको घेर लिया है। ऐसे वचन सुनकर बाहुपाश में बंधे हुए ब्राह्मण ने मुस्कराकर कहा तुमने जो कुछ कहा सो ठीक ही है मैं तो अभी विद्याभ्यासी और ब्रह्मचारी हूं। गुरुकुल में मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ । पण्डित को चाहिए कि जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करे। इस
आश्रम में में विवाह करना धर्म नहीं समझता। अपने व्रत का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही मैं विवाह कर सकता हूं, पहले नहीं कर सकता। यह बात सुनकर वह कन्याएं इस प्रकार बोलीं जैसे वैशाख मास में कोयल बोलती है। वह कहने लगीं कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है।

 

 

हम काम सहित धर्म की अधिकता से आप के पास आई हैं। सो आप पृथ्वी के सब भोगों को भोगिये। उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य है किन्तु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूं पहले नहीं कर सकता तब वे कन्याएं कहने लगी कि तुम मूर्ख हो! अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन, सिद्धि, अच्छे कुल की सुन्दर नारियों तथा मंत्र जिस समय प्राप्त हों तब ही ग्रहण कर लेना चाहिए। इसी से कार्य को टालना अच्छा नहीं होता। केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं। कहां हम अनोखी सुन्दर नारियां कहां आप तपस्वी बालक यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है। इस कारण आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें। इनके ऐसे वचन सुनकर उस धर्मात्मा ब्राह्मण ने कहा कि व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करूंगा। मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं करता। इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन्होंने एक दूसरी का हाथ छोड़कर उसको पकड़ लिया। सुशील और सुस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया। सुतारा ने आलिंगन किया और चन्द्रिका ने उसका मुख चूम लिया। परन्तु फिर भी वह ब्रह्मचारी विकार रहित तथा काम की बाधा से पीड़ित नहीं हुआ और फिर उसने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया कि तुम डायन की तरह मुझसे चिपटी हो इस कारण पिशाचनी हो जाओ। ऐसे श्राप देने पर वह उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गईं। उन्होंने कहा कि हम निरपराधियों को वृथा क्यों श्राप दिया। तुम्हारी इस धर्मज्ञता पर धिक्कार है। प्रिय करने वाले से बुराई करने वाले का सुख दोनों लोकों में नष्ट हो जाता है। इसलिए तुम भी हम लोगों के साथ पिशाच हो जाओ। तब वे आपस के क्रोध से उस सरोवर पर पिशाच पिशाचनी हो गए और बस पिशाच पिशाचनी कठिन शब्दों से चिल्लाते हुए अपने कर्मों को भोगने लगे। वशिष्ठ जी लगे कि हे राजन! इस प्रकार वह पिशाच उस सरोवर के इधर-उधर फिरते रहे। बहुत समय पश्चात् मुनियों में श्रेष्ठ लोमश ऋषि पौष शुक्ला चुतुर्दशी को उस अच्छोद सरोवर पर स्नान करने के लिए आए। जक क्षुधा से दुखी इस पिशाचों ने उसको देखा तो उसकी हत्या करने के लिए गोल कर उसको चारों तरफ से लिया बाह्मण भी वहीं पर आ गये और वे लोमश ऋषि के तेज के सामने ठहर न सके और दूर जाकर खड़े हो गये। वेदनिधि हाथ जोड़कर लोमश ऋाई से कहने लगे कि भाग्य से ही ऋषियों के दर्शन होते हैं। फिर उन्होंने गंधर्व कन्या और अपने पुत्र का परिचय सक वृत्तांत सुनायाऔर कहा कि हे मुनिश्वर! यह सब ही आप मोहित होकर आपके सम्मुख खड़े हैं। आज इन बालकों का निस्तार होगा जैसे सूर्योदय से अंधेरे का नाशा हो जाता है। वशिष्ठ जी कहने लगे कि पुत्र के दुःख से दुखी हुए वेदनिधि ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर लोमश ऋषि के नेत्रों में जल भर आया और वेदनिधि से कहने लगे मेरे प्रसाद से बालकों को शीघ्र स्मृति पैदा हो मैं उनको धर्म कहता हूं जिससे इनका आपस का श्राप विलीन हो जाय।

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत एकोनविन्शोध्याय समाप्तः ॥

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