धर्म

धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जो की धृ धातु से बना हैं | “ धार्यते इति धर्म: “ अर्थात जो धारण किया  जाये वही धर्म हैं | धर्म की परिभाषा के सम्बन्ध में बात करे तो केवल मानव धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म हैं | किसी दुसरे को पीड़ा नहीं पहूँचाना धर्म हैं | धर्म का मूल सिद्धांत प्राणी को धर्म से जोड़ता हैं | धर्म से तात्पर्य जोड़ना हैं | अर्थात प्राणी को ईश्वर से जोड़ता हैं | धर्म से तात्पर्य अपने कर्म को निर्मल शुद्ध रखना पवित्र रखना | धर्म का विधान प्राणी स्वयं बनाता हैं | धर्म कर्म प्रधान हैं | गुणों को जो प्रदशित करे वही धर्म हैं | अर्थात सदाचार ही धर्म हैं |
एक श्लोक के अर्थ के अनुसार – जिस प्रकार अलग अलग नदिया अंत में समुन्द्र में जाकर मिल जाती हैं , उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग अलग मार्ग चुनता हैं , जो देखने में टेढ़े मेढ़े लगे परन्तु सभी भगवान तक जाते हैं |
विवेक की चेतना का जागरण हो जाना धर्म हैं | – महावीर स्वामी
किसी दुसरे को पीड़ा नहीं पहूँचाना धर्म हैं |
सत्य , अहिंसा , अस्तेय , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय , क्षमा आदि | धर्म के नियमो को धारण करना ही धर्म हैं | सत्य ही धर्म हैं और धर्म ही सत्य है |
मनु के अनुसार धर्म के दस लक्षण बतलाये हैं –
धृति – धैर्य
क्षमा – क्षमाशील होना
दम –  इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना
अस्तेय – चोरी न करना , किसी के धन की इच्छा न करना  
शौच – आंतरिक और बाहरी पवित्रता  [ आंतरिक पवित्रता का सम्बन्ध अन्त: करण की शुद्धता से हैं
इन्द्रिय निग्रह – इन्द्रियों को वश में रखना
धी – बुद्धि का उपयोग , सत्कर्मो में बुद्धि को बढ़ाना
विद्धा – ज्ञान की पिपासा , यथार्त ज्ञान लेना
सत्य – मन , कर्म , वचन से सत्य का पालन
अक्रोध – क्रोध का त्याग करना ये दस धर्म के लक्षण हैं |
धर्म के दस लक्षणों को धारण करने से मनुष्य उन्नत , महान , जीवन में स्थिरता ,नियन्त्रण , संयम तथा ईश्वर के साथ अलौकिक सम्बन्ध स्थापित होंगे |
                                || जय श्री राम ||

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