श्री गणेशाय नमः
अथ श्री पद्मपुराणान्तर्गत
माघ मास माहात्म्य
1 से आठ अध्याय सम्पूर्ण
पहला अध्याय
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवी सरस्वती चैव ततो जयमुदीरयेत॥
अर्थात सारे संसार के कर्त्ता श्री भगवान् विष्णु माता लक्ष्मी और देवी सरस्वती तथा श्री देवगुरु बृहस्पती जी के चरण कमलों में नमस्कार करके मैं इस माघ मास माहात्म्य का वर्णन करता हूं। एक समय श्री सूतजी ने अपने गुरु श्री व्यासजी से कहा हे आदरणीय गुरुदेव कृपा करके आप मुझसे माघ मास का माहात्म्य कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं। व्यास जी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात् सुन्दर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपने नगर से बाहर निकले। उनके सिपाही जंगल में शिकार के लिए मृग, व्याघ्र, सिंह आदि जन्तुओं की तलाश में इधर-उधर फिरने लगे। उस वन में वनस्थली अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रही थी, वन में कहीं वृक्षों पर मोर नाच रहे थे। कहीं-कहीं मृगों के झुंड फिरते थे। कहीं गीदड़ अपना भयंकर शब्द कर रहे थे। कहीं गैंडों का समूह हाथियों के समान फिर रहा था। कहीं वृक्षों के कोटरों में बैठे हुए उल्लू अपना भयानक शब्द कर रहे थे। कहीं सिंहों के पद चिन्हों के साथ घायल मृगों के रक्त से भूमि लाल हो रही थी। कहीं दूध से भरी थनों वाली सुन्दर भैंसे फिर रहीं थीं, कहीं पर गंधित पुष्प हरी-हरी लताएं वन की शोभा को बढ़ा रही थीं। कहीं बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे तो कहीं पर उन पेड़ों पर बड़े-बड़े अजगर और उनकी केचुलियां भी पड़ी हुईं थी। उसी समय राजा के सिपाहियों के बाजे की आवाज सुनकर एक मृग वन में से निकलकर भागने लगा और बड़ी-बड़ी चौकड़ियाँ भरता हुए आगे बढ़ा राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया परन्तु मृग पूर्ण शक्ति से भागने लगा। मृग कांटेदार वृक्षों के एक जंगल में घुसा और राजा ने भी उसके पीछे वन में प्रवेश किया परन्तु दूर जाकर मृग, राजा की दृष्टि से ओझल होकर कहीं निकल गया। राजा निर्जन वन में अपने सैनिकों सहित प्यास के मारे अति दुखी हो गया। दोपहर के समय अधिक मार्ग पर चलने से सैनिक थक गये और घोड़े रुक गये। कुछ थोड़ी देर बाद राजा ने एक बड़ा भारी सुन्दर सरोवर देखा जिसके किनारों पर घने वृक्ष थे। इसका जल सज्जनों के हृदय के समान पवित्र था। सरोवर का जल लहरों से बड़ा सुन्दर लगता था। जल में अनेक प्रकार के जल जन्तु मछलियां आदि स्वच्छन्दता से इधर-उधर फिर रही थीं। दुष्टों के समान निर्दयी चित्त वाले मगरमच्छ भी थे। किसी किसी जगह लोभी के घर के समान सिमाल भी पड़ी हुई थीं। जैसे विपत्ति में पड़े हुए लोगों के दुखों को हरने वाले दानी पुरुष के समान यह सरोवर अपने जल से सबको सुखी करता था। जैसे मेघ चालक के दुःख को हरता है। इस सरोवर को देखकर राजा की थकावट दूर हो गई। रात्री को राजा ने वहीं विश्राम किया और सैनिक पहरा देने लगे और चारों तरफ फैल गये। रात के अन्तिम समय में शूकरों के एक झुण्ड ने आकर अंतिम समय में पानी पिया और कमल के झुण्ड के पास आया तब शिकारियों ने सावधान होकर शूकरों पर आक्रमण किया और उनको मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। उस समय सब शिकारी कोलाहल करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के पास गये और राजा प्रभात हुआ देखकर उनके साथ ही अपनी नगरी की तरफ चल पड़ा। रास्ते में एक तपस्वी को देखा। जिसका शरीर तपस्या और नियम के कारण बिल्कुल सूख गया था। जो मृगछाला और वल्कल पहने हुए था। राजा ने ऐसे घोर तपस्वी को देखकर बड़े आश्चर्य से उसको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। तब तपस्वी ने राजा को कहा कि हे राजन्! इस पुण्य शुभ माघ में इस सरोवर को छोड़कर तुम यहां से क्यों जाने की इच्छा करते हो। तब राजा कहने लगा कि महात्मन् मैं तो माघ मास में स्नान के फल को कुछ भी नहीं जानता कृपा करके आप विस्तारपूर्वक मुझको बतलाइए।
।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत प्रथम अध्याय समाप्त ॥
माघ महात्म्य दूसरा अध्याय
राजा के ऐसे वचन सुनकर तपस्वी कहने लगा कि राजन् भगवान सूर्य बहुत शीघ्र उदय होने वाले हैं इसलिए यह समय हमारे लिए स्नान का है कथा का नहीं, सो आप स्नान करके अपने घर को जाओ और अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से इस माहात्म्य को सुनो। इतना कहकर तपस्वी सरोवर में स्नान के लिए चले गए और राजा भी विधिपूर्वक सरोवर में स्नान करके अपने घर लौटा और रनिवास में जाकर तपस्वी की सब कथा रानी को सुनाई। तब सूतजी कहने लगे कि महाराज राजा ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से क्या प्रश्न किया और उन्होंने क्या उत्तर दिया सो कहिए। व्यासजी कहने लगे, हे सूतजी। राजा दिलीप ने रात्रि को सुख से सोकर प्रात: समय ही अपने गुरु वशिष्ठ के पास जाकर उनके चरणों को छूकर प्रणाम करके नम्रता से पूछा कि गुरुजी आपने आचार, नीति, राज्य धर्म तथा चारों वर्णों को चारों आश्रमों की क्रियाओं, दान और उनके व्रत, विधान, यज्ञ और उनकी विधियां, वन उनकी प्रतिष्ठा तथा भगवान् विष्णु की आराधना बतलाई है परन्तु अब मैं आप से माघ मास के स्नान के माहात्म्य को सुनना चाहता हूं। सो हे तपोधन! नियम पूर्वक इसकी विधि समझाइए। गुरु वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे राजन! तुमने दोनों लोकों ‘के कल्याणकारी, बनवासी तथा गृहणियों के अंतःकरण को पवित्र करने वाले माघ मास के स्नान का बहुत सुन्दर प्रश्न पूछा है। मकर राशि में सूर्य के आने पर माघ मास में स्नान का फल, गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, स्वर्ण, अन्न, घोड़ा आदि दानों तथा चांद्रायण और ब्रह्मा कूर्व व्रत आदि से भी अधिक होता है। वैशाख तथा कार्तिक के जप, दान, तप, और यज्ञ बहुत फल देने वाले हैं, परन्तु माघ मास में इनका फल बहुत ही अधिक होता है। माघ मास में स्नान करने वाला पुरुष राजा और मुक्ति के मार्ग को जानने वाला होता है। दिव्य दृष्टि वाले महात्माओं ने कहा है कि जो मनुष्य माघ मास में सकाम या भगवान के निमित्त नियमपूर्वक माघ मास में स्नान करता है वह अत्यन्त फल वाला होता है। उसको शरीर की शुद्धि, प्रीति, ऐश्वर्य तथा चारों प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है अदिति ने बारह वर्ष तक मकर संक्रांति अन्न त्याग कर स्नान किया इससे तीन लोकों को उज्जवल करने वाले बारह पुत्र उत्पन्न हुए। माघ मास में करने से ही रोहिणी सुभगा अरुन्धती दानशील हुईं और इन्द्राणी के समान रूपवती होकर प्रसिद्ध हुईं। जो माघ मास में स्नान करते हैं तथा देवताओं के पूजन में तत्पर रहते हैं उनको सुन्दर स्थान, हाथी और घोड़ों की सवारी तथा दान को द्रव्य प्राप्त होता है और अतिथियों से उनका घर भरा रहता है। उनके घर में सदा वेद ध्वनि होती रहती है। वह मनुष्य धन्य है जो माघ मास में स्नान करते हैं, दान देते हैं तथा व्रत और नियमों का पालन करते हैं और दूसरे पुण्यों के क्षीण होने से मनुष्य स्वर्ग से वापिस आ जाता है परन्तु जो मनुष्य माघ मास में स्नान करता है वह कभी स्वर्ग से वापिस नहीं आता। इससे बढ़कर कोई नियम, तप, दान, पवित्र और पाप नाशक नहीं है। भृगु जी ने
मणि पर्वत पर विद्याधरों को यह सुनाया था। तब राजा ने कहा कि ब्रह्मन् भृगु ऋषि ने कब मणि पर्वत पर विद्याधरों को उपदेश दिया था सो बतालाइए। तब ऋषि जी कहने लगे कि हे राजन! एक समय बारह वर्ष तक वर्षा न होने कारण सब प्रजा क्षीण होने के कारण संसार में बड़ी उद्विग्नता फैल गई। हिमालय और विंध्याचल पर्वत के मध्यका देश निर्जन होने के कारण, श्राद्ध तप, तथा स्वाध्याय सब कुछ छूट गये। सारा लोक विपत्तियों में फंस कर प्रजाहीन हो गया। सारा भूमण्डल फल और अन्न से रहित हो गया। तब विंध्याचल से नीचे बहती हुए नदी के सुन्दर वृक्षों से आच्छादित अपने आश्रम से। निकल कर श्री भृगु ऋषि अपने शिष्यों सहित हिमालय पर्वत पर गये। इस पर्वत की चोटी नीली और नीचे का हिस्सा सुनहरी होने से माघ मास महात्म्य सारा पर्वत पीताम्बरधारी श्री भगवान के सदृश लगता था। पर्वत के बीच का भाग नीला और बीच-बीच में कहीं-कहीं सफेद स्फटिक होने से तारों से युक्त आकाश जैसी शोभा को प्राप्त होता था। रात्रि के समय वह पर्वत दीपकों की तरह चमकती हुई दिव्य औषधियों से पूरित किसी महल की शोभा को प्राप्त होता था। यह पर्वत शिखाओं पर बांसुरी बजाती और सुन्दर गीत गाती हुई किन्नरियों तथा केले के पत्तों की पताकाओं से अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रहा था। यह पर्वत नीलम, पन्ना, पुखराज तथा इसकी चोटी से निकलती हुई रंग-बिरंगी किरणों से इन्द्र धनुष के समान प्रतीत होता था। स्वर्ण आदि सब धातुओं से तथा चमकते हुए रत्नों से चारों ओर फैली हुई अग्नि ज्वाला के समान शोभायमान था। इसकी कंदराओं में काम पीड़ित विद्याधरी अपने पतियों के साथ आकर रमण करती हैं और गुफाओं में ऐसे ऋषि मुनि जिन्होंने संसार के सब क्लेशों को जीत लिया है। रात-दिन ब्रह्म का ध्यान करते हैं और कई एक हाथ में रुद्राक्ष कीमाला लिए हुए शिव की आराधना में लगे हुए हैं। पर्वत केनीचे भागों में जंगली हाथी अपने बच्चों के साथ खेल रहे हैं तथा कस्तूरी वाले रंग बिरंगे मृगों के झुण्ड इधर उधर भाग रहे हैं। यह पर्वत सदा राजहंस तथा मोरों से भरा रहता है इसी कराण इसको हेमकुण्ड कहते हैं। यहां पर सदैव ही देवता गुहाक और अप्सरा निवास करते हैं।
।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत द्वितीयो अध्याय समाप्त ॥
माघ मास तीसरा अध्याय
तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊंचा और कितना लम्बा चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊंचा ऊपर चोटी से दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदारु और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है। दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस सुन्दर पर्वत को और फल फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और वहां पर कन्दराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे इस प्रकार जव भृगु ऋषि वहां पर अपने आश्रम पर रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा। वह अत्यन्त दुखी थे उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है। तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर स्वर्ग पाकर तथा देव तुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसे है यही कारण मेरे दुःख और अशान्ति का है। न जाने किस पाप का फल है। मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिये। यह मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा को बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर
नारद जी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के बाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के नाच ताल में शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है। कहां ऐसी चन्द्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिन्ता सदैव मेरे हृदय को जलाती है। विद्याधर के ऐसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फल प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यन्त दुःखदाई हो जाता है। तुमने माघ मास की
एकादशी का व्रत करके द्वादशी के आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन उपवास करके द्वादसी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था। तब वह अपने कुरूप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमाचल पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया। प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र वाले पीताम्बर पहिने, वन माला धारण किये हुए विष्णु का चिन्तन करते हुए पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रह भगवान का चिन्तन किया इस प्रकार सात के जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान राजा के ता तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गये। न्त और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को की प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुन्दर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वसी भी उसको चाहने लगी और राजा सुकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया। भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो, जहां पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूं। तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पांचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ला एकादशी से इस व्रत को आरम्भ करो। भूमि में सोना, जितेन्द्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर तक के निराहार रहो। सब भोगों का त्याग कर तीनों समय को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख कामदेव के समान हो जायेगा और देवता भी तुम्हारा मुख देखकर चकित हो जायेंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे। माघ मास के प्रभाव को जान कर सदा माघ में स्नान करो। पाप और दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास का स्नान करना चाहिए। यह स्नान सदा सब दानों और बज्ञों के फल को देता है और पापों का क्षय होता है। वशिष्ठ कहते हैं कि हे राजा! दिलीप की यह, कथा भृगु जी ने विद्याधर को सुनाई। माघ स्नान योगों से भी बढ़ कर यज्ञ तथा यज्ञों से, बढ़कर गर्जना करता है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, काशी,
प्रयाग तथा गंगासागर जैसे संगमों से मनुष्य को जो फल दस वर्ष में मिलता है उतना ही फल माघ मास में स्नान करने से तीन दिन में मनुष्य को मिलता है। इसमें संशय नहीं है कि चिरकाल तक स्वर्ग में रहने की इच्छा करने वाले मनुष्यों को सदा यत्न से माघ मास में स्नान करना चाहिए। आयु, आरोग्य, धन, रूप, कल्याण और गुण प्राप्त करने वालों को माघ का स्नान कभी नहीं छोड़ना चाहिए। स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप ! भृगु जी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ मास का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह
पाणिग्रीव पर्वत पर आनन्द से रहने लगे और भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गये।
।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत तृतीयो अध्याय समाप्तः ||
माघ मास चौथा अध्याय
श्री वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे राजन! अब मैं माघ के उस माहात्मय को कहता हूं। जो कार्तिवीर्य से पूछने पर दत्तात्रेय जी ने कहा था। जिस समय साक्षात् विष्णु के रूप श्री दत्तात्रेय जी सत्य पर्वत पर रहते थे तब महिष्मति के राजा सहस्त्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेय जी ! मैंने सब धर्म सुने अव आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य कहिए। तब दत्तात्रेय जी बोले, जो नारदजी से ब्रह्माजी कहा था वही माघ मास माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूं। इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।
माघ मास महात्म्य भगवान की प्रसन्नता पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए। यदि यह पुष्ट, शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाय तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जन्तु के समान, यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है। विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र, आचार रहित कुल ये सब नाश केबराबर हैं। गर्व से धम का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि के हवन और बिना साक्षी के मुक्ति कानाश हो जाता है। जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाये हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया
हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं। विना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, सन्देह युक्त मन्त्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना, वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना, श्रद्धा विना धार्मिक क्रिया. यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्री का जीना व्यर्थ है उसी तरह माघ स्नान के विना मनुष्य का जीना व्यर्थ है। ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु पत्नी गामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है। जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट
करता हूँ। महापातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं। माघ मास के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से कांप जाते हैं। जैसे मेघों से युक्त होकर ‘चन्द्रमा प्रकाश करता है वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं। काया, वाचा, मनसा से किये हुए छोटे या बड़े नये या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं। आलस्य में बिना जाने, जो पाप किये हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं। जिस तरह जन्म जन्मान्तर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है। यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है। हे राजन् जो मनवांछित फल देने वाला मास स्नान नहीं करते वह सूर्य चन्द्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं।
॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत चतुर्थो अध्याय समाप्तः ॥
माघ मास पांचवां अध्याय
श्री दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन्। एक प्राचीन वृतांत सुनाता हूं। भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक विधवा ब्राह्मणी थी जो जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्य पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। वह जितेन्द्रिय, सत्य वक्ता, सुशील, दानशीला तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी। वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। वह वल्कल धारण करती और सन्तोष से अपनी जीवन व्यतीत करती थी। उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहाँ पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। माघ स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुन्द और उपसुन्द दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्रा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा ब्रहालोक में उत्पन्न हुई। वह अत्यन्त रूपवती, गान विद्या में अति प्रवीण और मुकट कुण्डल से शोभायमान थी। उसका रूप, यौवन और सौन्दर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गए। वह कुमारी तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके, वन में बैठी थी। तब सुन्द और उपसुन्द के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान -रूपवती को देखकर अपने राजा सुन्द और • उपसुन्द से उसके रूप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऐसी परम सुन्दरी स्त्री को हमने कभी नहीं देखी आप भी चलकर देखें। तब वे दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहां पर आये जहां पर वह सुन्दरी बैठी हुई थी और मदिरा के पाने से विव्हल होकर काम पीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री रत्न को प्राप्त करने के लिए विवाद ग्रस्त हुए और पिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गये। तब उन दोनों को मरा हुआ वह देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा काल रात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश र में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा नके सामने आई तो ब्रह्मा जी ने प्रसन्नता से को कहा कि हे चन्द्रवदनी मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो। सो हे राजनू वह ब्रह्माणी अंब भी सूर्य के रथ पर माघ मास स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इसलिए श्रद्धावान् पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास में विधि पूर्वक स्नान करना चाहिए।
॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत पंचमोध्याय समाप्तः ॥
माघ मास छठवां अध्याय
पूर्वसमय में सतयुग के उत्तम निषेध नामक नगर में हेमकुण्डल नाम वाला कुबेर के सदृश धनी वैश्य रहताथा। जो कुलीन, अच्छे काम करने वाला, देवता, अग्नि और ब्रह्माण की पूजाकरने वाला, खेती का काम करता था। वह गौ, घोड़े, भैंस आदिका पालन करता और दूध, दही, छाछ, गोवर, घास, गुड़, चीनी आदि अनेक वस्तु बेचा करता और उसने इस प्रकार बहुत सा धन इकट्ठा कर लिया था। जब वह बूढ़ा हो गया तो मृत्यु को निकट समझकर उसने धर्म के कार्य करने प्रारम्भ कर दिये। भगवान विष्णु का मन्दिर बनवाया कुआं, तालाब, बावड़ी,आम, पीपल आदि के वृक्ष तथा सुन्दर बाग बगीचे लगवाये । सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह दान करता गांव के चारों तरफ जल की प्याऊ लगवाई। उसने सारे जन्म भर जितने पाप किये थे, उनका प्रायश्चित करता था। इस प्रकार उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम उसने कुण्डल और विकुण्डल रखा। जब दोनों लड़के युवावस्थाको प्राप्त हुए तो हेम कुण्डल वैश्य गृहस्थी का सब कार्य सौंप कर भगवान् की तपस्या के निमित्त वन में चला गया और वहां विष्णु की आराधना में शरीर ह को सुखाकर अन्त में विष्णु लोक को प्राप्त हुआ। उसके दोनों पुत्र लक्ष्मी के मद को प्राप्त होकर बुरे कर्मों में लग गये। वैश्यगामी वीणा और बाजे लेकर वेश्याओं के साथ गाते फिरते थे। अच्छे सुन्दर वस्त्र पहनकर सुगंधित
तेल आदि लगाकर, भांड और खुशामदियों से घिरे हुए हाथी की सवारी करते थे और सुन्दर घरों में रहते थे। इस प्रकार ऊपर बोये बीज के सदृश वह अपने धन को बुरे कामों में नष्ट करते थे। कभी किसी सत् पात्र को दान आदि नहीं करते थे, न ही कभी हवन देवता या ब्रह्माजी की सेवा तथा भगवान विष्णु का पूजन करते थे। इस प्रकार थोड़े ही दिनों में उनका सब द्रव्य नष्ट हो गया और वह दरिद्रता को प्राप्त होकर अत्यन्त दुःखी हो गए। भाई, जन, सेवक, उपजीवी सब इनको छोड़कर चले गए। और राजा के भय से नगर को छोड़कर चोर तथा डाकुओं के साथ वन में रहने लगे और वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणों से वन के पक्षी, हिरण आदि पुश तथा हिंसक जीवों को मारकर खाने लगे। एक समय इनमें से एक पर्वत पर गया जिसको सिंह मारकर खा गया और दूसरा वन को गया जो काले सर्प के इसने से मर गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को बाँधकर यम के पास लाये और कहने लगे कि महाराज इन दोनों पापियों के लिए क्या आज्ञा है।
॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत षष्ठोध्याय समाप्तः ॥
माघ मास महात्म्य सातवां अध्याय
चित्रगुप्त ने उन दोनों के कर्मों की आलोचना करके दूतों से कहा कि बड़े भाई कुण्डल को घोर नरक में डालो और दूसरे छोटे भाई विकुण्डल को स्वर्ग ले जाओ जहाँ उत्तम भोग हैं। तब एक दूत तो कुण्डल को नरक में फेंक ने के लिए ले गया और दूसरा दूत बड़ी नम्रता से कहने लगा कि हे विकुण्डल चलो तुम अपने अच्छे कर्मों से स्वर्ग को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगो। तब विकुण्डल बड़े विस्मय के साथ मन में संशय धारकर दूत से कहने लगा कि हे यमदूत । मेरे मन में बड़ी आशंका उत्पन्न हो गई है अतएव मैं तुमसे कुछ पूछता हूँ कृपा करके मेरे प्रश्नों
का उत्तर दो। हम दोनों भाई एक ही कुल में उत्पन्न हुए, एक जैसे ही कर्म करते रहे, दोनों भाइयों ने कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया फिर एक को नरक क्यों प्राप्त हुआ। मैं अपने स्वर्ग में आने का कोई कारण नहीं देखता। तब यमदूत कहने लगा कि हे विकुण्डल, माता पिता, पुत्र, पत्नी, भाई, बहन से सब सम्बन्ध जन्म के कारण होते हैं और जन्म कर्म के भोगने के लिए ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पक्षियों का आगमन होता है उसी तरह इस संसार में पुत्र, भाई, माता, पिता, का भी संगम होता है। इनमें से जो जैसे जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है। तुम्हारा भाई अपने पाप कर्मों से नरक में गया तुम अपने पुण्य कर्म के कारण स्वर्ग में जा रहे हो। तब विकुण्डल ने आश्चर्य से पूछा कि मैंने तो आजन्म कोई धर्म का कार्य नहीं किया मेरे पुण्य सदैव पापों ही में लगा रहा। मैं अपने पुण्य के कर्म को नहीं जानता, यदि तुम के कर्म को जानते हो तो कृपा करके बतलाइये। तब देवदूत कहने लगा कि मैं सब प्राणियों को भली-भाँति जानता हूँ तुम नहीं जानते। सुनो, हरिमित्र का पुत्र सुमित्र नाम का ब्राह्माण था जिसका आश्रम यमुना नदी की दक्षिणोत्तर दिशा में था। उससे जंगल में ही तुम्हारी मित्रता हो गई और उसके साथ तुमने दो बार माघ मास में श्री यमुना जी में स्नान किया था। पहली बार स्नान करने से तुम्हारे सब पाप नाश हो गए और दूसरी बार स्नान करने से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ। सो हे वैश्येश्वर। तुमने दो बार माघ मास में स्नान किया इसी के पुण्य के फल से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ और तुम्हारा भाई नरक को प्राप्त हुआ। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार वह भाई के दुःखों से अति दुखित होकर नम्रता पूर्वक मीठे वचनों से दूतों से कहने लगा कि हे दूतों। सज्जन पुरुषों के साथ सात पग चलने से मित्रता हो जाती है और यह कल्याणकारी होती है। मित्र प्रेम की चिन्ता न करते हुए तुम मुझको इतना बताने की कृपा करो कि कौन से कर्म से मनुष्य यमलोक को प्राप्त नहीं होता क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो ।
।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत सप्तमोध्याय समाप्तः ।।
माघ मास महात्म्य आठवां अध्याय
यमदूत कहने लगा कि तुमने बड़ी सुन्दर वार्ता पूछी है। यद्यपि मैं पराधीन हूँ फिर भी तुम्हारे स्नेह वश अपनी बुद्धि के अनुसार बतलाता हूँ। जो प्राणी काया, वाचा और मनसा से कभी दूसरों को दुःख नहीं देते वे यमलोक में नहीं जाते। हिंसा करने वाले वेद, यज्ञ तप और दान से भी उत्तम गति को नहीं पाते। अहिंसा सबसे बड़ा धर्म, तप और दान ऋषियों ने बतलाया है। जो मनुष्य जल या पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को अपने भोजन के लिए मारते हैं। वे काल सूत्र नामक नर्क में पड़ते हैं और वहाँ पर अपना मांस खाते और रक्त पीप पान करते हैं तथा पीप की माघ मास महात्म्य कीच में उनको कीड़े काटते हैं। हिंसक, जन्मांध, काने-कुबड़े, लूले, लंगड़े, दरिद्री और अंगहीन होते हैं। इस कारण इस लोक तथा परलोक में की सुख इच्छा करने वाले को काया वाचा तथा मन से दूसरे का द्रोह नहीं करना चाहिए। जो हिंसा नहीं करते उनको किसी प्राकर का भय नहीं होता। जिस तरह सीधी और टेढ़ी दोनों प्रकार की बहने वाली नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं वैसे ही सब धर्म अहिंसा में प्रवेश कर जाते हैं। ब्रह्मचारी गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा यती सभी अपने-अपने धर्म का पालन करने और जितेन्द्रिय रहने से ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। जो जलाशय आदि बनाते हैं और सदैव पांचो यज्ञ करते हैं वे यमपुरी में नहीं जाते। जो इन्द्रियों के वशीभूत नहीं हैं, वेदवादी है
और नित्य ही अग्नि (हवन यज्ञ) का पूजन री करते हैं। वे स्वर्ग को जाते हैं। युद्ध भूमि में क जो शूर वीर पर जाते हैं, वे सूर्यलोक को ले प्राप्त होते हैं। जो स्त्री, शरण में आए हुए दोह तथा ब्राह्मण की रक्षा के लिए प्राण देते हैं रते वे कभी स्वर्ग से नहीं लौटते। जो मनुष्य असहाय लोगो वृद्ध अनाथ तथा गरीवों का पालन करते हैं, वे भी स्वर्ग में जाते हैं। जो वैसे मनुष्य गौंओं के लिए पानी की व्यवस्था करते हैं। हैं तथा जो लोग कुआं तालाब और बावड़ी बनवाते भी हैं वे सदैव स्वर्ग में निवास करते हैं। जैसे जैसे जीव इनमें पानी पीते हैं वैसे ही उनका धर्म बढ़ता है। जल से ही मनुष्य के प्राण हैं इसलिए जो प्याऊ आदि लगाते हैं, अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। बड़े-बड़े यज्ञ भी वह फल नहीं देते जो अधिक छायावाले वृक्ष मार्ग में लगाने से देते हैं, जो अच्छे और अच्छी छाया वाले मार्ग के वृक्षों को काटता है वह नर्कगामी होता है। तुलसी का वृक्ष लगाने वाला सब पापों से छूट जाता . है। जिस घर में तुलसी वन है वह घर तीर्थ समान है और उस घर में कभी यमदूत नहीं जाते। तुलसी की सुगन्ध से पितरों का चित्त आनन्दित हो जाता है और वे विमान में बैठकर विष्णु लोक को जाते हैं। नर्मदा नदी का दर्शन, गंगा का स्नान और तुलसीदल का स्पर्श यह सब बराबर-बराबर फल देने वाले हैं। हर एक द्वादशी को ब्रह्मा भी तुलसी का पूजन करते हैं। रत्न, सोना, फूल तथा मोती की माला के दान का इतना पुण्य नहीं जितना तुलसी की माला केदान का। जो फल आम के हजार और पीपल के सौ वृक्षों के लगाने से होता है वह तुलसी के एक वृक्ष के लगाने से होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदी, वासुदेव आदि देवता सब ही तुलसी में वास करते हैं। जो मनुष्य एक बार, दो या तीन बार रेवा नदी से उत्पन्न शिव मूर्ति की पूजा करता है अथवा स्फटिक रत्न के पत्थर में आप से आप निकले हुए तीर्थ में पर्वत या वन में रखी हुई शिव की मूर्ति की पूजा करता है और सदैव ओऽम् नमः शिवाय मंत्र का जाप करताहै वह यमलोक की कथा भी नहीं सुनते। प्रसंग, शठता, अभिमान यालोभ से शिव पूजा करने वाले भी यमद्वार नहीं देखते। शिव पूजा के समान पापों के नष्ट करने वाला तथा कीर्ति देने वाला लोक में और कोई काम नहीं है। जो शिवालय स्थापित करते हैं वह शिवलोक में जाते हैं ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का मन्दिर बनाकर मनुष्य बैकुण्ठ वासी होता है। जो भगवान की पूजा के लिए फूलों का बाग लगाते हैं। वे धन्य हैं। जो माता, पिता, देवता और अतिथियों का सदैव पूजन करते हैं। वे ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं।
।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत अष्ठमोध्याय समाप्तः ॥
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