रोग निवारण- सूक्त

रोग निवारण – सूक्त अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड का 13 वाँ सूक्त तथा ऋ़ग्वेद के दशम मण्डल का 137 वाँ सूक्त ‘रोग निवारण-सूक्त’ – के नाम से प्रसिद्ध है। अथर्ववेद में अनुष्टप् छंद के इस सूक्त के ऋषि शंताति तथा देवता चन्द्रमा एवं विश्वेदेवा है। जब कि ऋग्वेद में प्रथम मन्त्र ऋषि भारद्वाज, द्वितीय के कश्यप, तृतीय के गौतम, चतुर्थ के अत्रि, पंचम के विश्वामित्र, षष्ठ के जमदग्रि तथा सप्तम  मन्त्र के ऋषि वसिष्ठजी है और देवता विश्वेदेवा है। इस सूक्त के जप-पाठ से रोगों से मुक्ति अर्थात् आरोग्यता प्राप्त होती है। ऋषियों ने रोग मुक्ति के लिये देवी से  प्रार्थना की हैं इसलिए किसी भी असाध्य रोग के निदान के लिए इस सुक्त का पाठ रोग का नाश करने मे सहायक होता है
                             उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः।
                             उतागश्चकु्रषं देवा देवा जीवयथा पुनः।।1।।
हे देवो! हे देवो! आप नीचे गिरे हुए को फिर निश्चयपूर्वक ऊपर उठाएँ। हे देवो! हे देवो! और पाप करने वालों को भी फिर जीवित करें, जीवित करें।
                            द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः।
                            दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः।।2।।
 ये दो वायु हैं। समुद्र से आने वाला पहला वायु है और दूर भूमि पर से आनेवाला दूसरा वायु है। इनमें से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसे दूर करे।
                           आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।
                           त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे।।3।।
हे वायु! ओषधि यहाँ ले आ! हे वायु! जो दोष है, वह दूर कर। हे सम्पूर्ण ओषधियों को साथ रखने वाले वायु! निःसंदेह तु देवों का दूत-जैसा होकर चलता है, जाता है, प्रवाहित है।
                         त्रायन्तामिमं देवास्त्रायन्तां मरूतां गणाः।
                         त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।4।।
हे देवो! इस रोगी की रक्षा करें। हे मरूतों के समूहो! रक्षा करें। सब प्राणी रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग-दोष रहित हो जाये।
                         आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।
                         दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।5।।
आप के पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूँ। तेरे लिये प्रचण्ड बल भर देता हूँ। तेरे रोग को दूर भगा देता हूँ।
                        अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः।
                        अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः।।6।।
मेरा यह हाथ भाग्यवान् है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब ओषधियों से युक्त है और मेरा यह हाथ शुभ-स्पर्श देनेवाला है।
                        हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिहृा वाचः पुरोगवी।
                        अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि।।7।।
दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली मेरी जीभ है। उन नीरोग करने वाले दोनो हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं।
ऋग्वेद मे ’अयं मे हस्तो ’छठे मंत्र के स्थान पर यह दूसरा मंत्र लिखा है आप इस मंत्र का भी लाभ उठा सकते है।
           आप  इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
           आपःसर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।
जल ही निसंदेह औषधि है।जल रोग दूर करने वाला है।जल सब रोगो की औषधि है।वह जल तेरे लिए औषधि बनाए।

 

 

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