माघ मास महात्म्य नौ [9 से 13] तेरह | माघ स्नान महात्म्य

 

माघ स्नान महात्म्य नवां अध्याय

यमदूत कहने लगे मध्यान्ह के समय आया अतिथ वेदपाठी हो या कोई साधारण मनुष्य या पापी कोई भी हो ब्रह्म के समान है। जो रात्रि के थके हुए भूखे ब्राह्मण द्वार पर आये यात्रियों  को अन्न जल देता है, मध्यान्ह के समय जिसके घर आया हुआ अतिथि निराशहोकर नहीं जाता वह स्वर्ग का वासी होता है। अतिथि बराबर कोई धन सम्पत्ति तथा हित नहीं है। बहुत से राजा और मुनि अतिथि सत्कार से ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए हैं। जो एक समय आलस्य से भी अतिथि को भोजन करा दे वह यमद्वार नहीं देखता। केसरी ध्वज से वैवस्वत देव ने कहा था कि जो कोई इस कर्म भूमि मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाने की इच्छा

रखता है वह अन्न का दान करें। दूत कहता है कि यमराज कहते हैं कि अन्न के बराबर दूसरा और कोई दान नहीं है। जो गर्मियों में जल, सर्दी में ईंधन और सदैव अन्न का दान करते हैं वह कभी यम के दुःख नहीं उठाते। जो अपने किये हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह नर्क को नहीं जाता है। जो काया, वाचा और मन से किये हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह देव और गंधर्वों से सेवित शुभलोक को प्राप्त होता है। जो नित्य ही व्रत, तप, तीर्थ करते हैं और जितेन्द्रिय है वह भयंकर यम को नहीं देखते हैं। नित्य धर्म करने वाला दूसरे का अन्न, भोजन और दान त्याग दे। नित्य स्नान करने से बड़े-बड़े पाप नाश होकर यम को नहीं देखता। बिना स्नान पवित्रता कैसे हो सकती है? जो मनुष्य  माघ मास महात्म्य के समय में चलते जल में स्नान करते हैं वह बुरी योनि नहीं पाते, न ही नर्क में जाते हैं। माघ मास में प्रातः स्नान करने वाले मनुष्यों को नियमपूर्वक तिल, पात्र और तिल कमल का दान करना चाहिए। यमदूत कहते हैं कि हे विकुण्डल! पृथ्वी, सोना, गौ आदि परम दान करने वाला स्वर्ग से नहीं लौटता। बुद्धिमान, पुण्य तिथियों व्यतिपात, संक्रांति आदि को थोड़ा-सा दान करके भी बुरी गति को नहीं प्राप्त होता। सत्यवादी मौन रहने वाला, मीठा बोलने वाला, क्षमाशील, नीतिवान किसी की निन्दा न करने वाला सब प्राणियों पर दया करने वाला, पराये गुणों का वर्णन करने पराये धन को तृण के समान समझने वाला ऐसे लोग नर्क को कभी नहीं भोगते।

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत नवमोध्याय समाप्तः ॥

माघ मास महात्मय दसवां अध्याय

यमदूत कहने लगे कि हे वैश्य एक बार जो गंगा भी गंगा जी में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। जी को दूसरे तीर्थों के समान समझता है वह अवश्य नर्क में जाता है। भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी के पवित्र जल को श्री शिवजी अपने मस्तक में धारण करते हैं। वह ब्रह्मा जो सन्देह रहित, प्रकृति से अलग और निर्गुण हैं, ब्रह्मांड में उसकी समानता किससे हो सकती है? गंगाजी का नाम हजारों योजन दूर से ही लेने वाला नर्क में नहीं जाता। इसलिए मनुष्य को अवश्यमेव गंगाजी में स्नान करना चाहिए। हे वैश्य! जो ब्राह्मण

दान लेने का अधिकारी होकर भी दान नहीं लेता वह आकाश के नक्षत्र में चन्द्रमा के समान है। जो कीचड़ से गौ को निकालता है, जो रोगी की रक्षा करता है या जो गौशाला में मरते हैं वह आकाश में तारागण होते हैं। प्राणायाम करने वाले मनुष्य सदैव उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। प्रात: समय स्नान के पश्चात् जो सोलह प्राणायाम करते हैं वह घोर पापों से बच जाते हैं। जो पराई स्त्री को माता समान मानते हैं वह यम की यातना को नहीं भोगते। जो मन से भी कभी पर स्त्री का चिंतन नहीं करता वह दोनों लोकों को अपने आधीन करता है। जो पराये धन को मिट्टीके समान समझता है वह स्वर्ग में जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया मानो उसने स्वर्ग ही को जीत लिया। जो माता-पिता की सेवा देवता तुल्य  करता है वह यमद्वार नहीं देखता और जो गुरु की सेवा करते हैं वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते. हैं। शील की रक्षा करने वाली स्त्री धन्य है। शील भंग करने वाली यमलोक जाती हैं। जो वेदों और शास्त्रों को पढ़ते हैं या पुराण और संहिता पढ़ते और सुनते हैं तथा जो स्मृति का | व्याख्यान और धर्मशास्त्र समझते हैं या जो वेदान्त में लीन रहते हैं वह पाप रहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। जो अज्ञानियों को वेदशास्त्र का ज्ञान देते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं। यमदूत ने कहा कि हे वैश्य! श्रेष्ठ यमराज ने हमको वही आज्ञा दे रखी है। कि तुम किसी वैष्णव को मेरे पास मत लाओ। हे वैश्य! पापी लोगों को इस संसार रूपी नर्क को पार करने के लिए भगवान की भक्ति के सिवाय दूसरा और कोई उपाय नहीं। भगवान

माघ मास महात्म्य भगवान की की भक्ति न करने वाले मनुष्य को चांडाल के समान समझना चाहिए। भगवान के भक्त अपने माता-पिता दोनों के कुलों को तार देते हैं और उनको नर्क में नहीं रहने देते और जो मनुष्य वैष्णव का भोजन करते हैं वे भी कृपा से श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान को सदैव वैष्णव का अन्न खाना चाहिए, इससे बुद्धि पवित्र होकर मनुष्य पाप नहीं करता। “गोविन्दाय नमः इस मंत्र का जाप करता हुआ जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, वह परमधाम को प्राप्त होता है। इसमें सन्देह नहीं है। जो “ओऽम् नमः भगवते वसुदेवाय” इस द्वादशाक्षर मंत्र का जाप करता है उसके ब्रह्म इत्यादि बड़े-बड़े पाप नाश हो जाते हैं। “

॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत दसमोध्याय समाप्तः ॥

माघ मास महात्मय ग्यारहवा अध्याय

यमदूत कहने लगा कि हे वैश्य! मनुष्य को सदैव शालिग्राम की शिला में तथा व्रज या कीट (गामति) चक्र में भगवान वासुदेव का पूजन करना चाहिए क्योंकि सब पापों का नाश करने वाले सब पुण्य को देने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाला भगवान, विष्णु का इसमें निवास होता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला या हरिचक्र में पूजन करता है वह अनेक मंत्रों का फल प्राप्त कर लेता है। जो फल देवताओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना में मिलता है, वही फल मनुष्य को भगवान् शालिग्राम के पूजन से प्राप्त होता है। हे वैश्य! अत्यन्त पापी, दुराचारी,
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अनाधिकारी भी शालिग्राम का पूजन करने से यमलोक को नहीं देखता। भगवान् को लक्ष्मी जी के पास अथवा वैकुण्ठ में इतना आनन्द नहीं आता जितना शालिग्राम की शिला या चक्र में निवास करने में आता है। स्वर्ण कमल युक्त करोड़ों शिवलिंग के पूजन से इतना फल नहीं मिलता है। भक्तिपूर्वक शालिग्राम का पूजन करने से विष्णुलोक में वास करके मनुष्य चक्रवर्ती होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से युक्त होकर भी मनुष्य शालिग्राम का पूजन करने से बैकुण्ठ में प्रवेश करता है। जो सदैव शालिग्राम का पूजन करते हैं वह प्रलयकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो दीक्षा, नियम और मंत्रों से चक्र में बलि देता है वह निश्चय करके विष्णुलोक को प्राप्त होता है। जो
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माघ मास महात्म्य शालिग्राम के जल से अपने शरीर को अभिषेक करता है वह मानो सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करता है। गंगा, रेवा, गोदावरी सब का जल शालिग्राम में वास करता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला के सन्मुख अपने पितरों का श्राद्ध करता है उसके पितर कई कल्प तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो लोग नित्य शालिग्राम की शिला का जल पीते हैं, उनको हजारों-हजारों बार पंचगव्य पीने से क्या लाभ? जहां पर शालिग्राम हैं वह स्थान तीर्थ स्थान के समान ही है, वहां पर किये गये सम्पूर्ण दान-होम करोड़ों गुणा फल को प्राप्त होता है, जो एक बूंद भी शालिग्राम का जल पीता है वह माता के स्तनों का दुग्ध पान नहीं करता अर्थात् गर्भाशय में नहीं आता। शालिग्राम शिला में जो कीड़े-मकोड़े
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एक कोस के अन्तर में मरते हैं वह भी बैकुण्ट को प्राप्त होते हैं। जो फल वन में तप करने से प्राप्त होता है, वही फल भगवान को सदैव स्मरण करने से प्राप्त होता है। मोह वश अनेक प्रकार के घोर पाप वाला मनुष्य भी भगवान को प्रणाम करने से नर्क में नहीं जाता। संसार में जितने तीर्थ और पुण्य स्थान हैं, भगवान् केवल नाम मात्र के कारण प्राप्त हो जाते हैं। से

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत एकादशोध्याय समाप्तः ॥

माघ मास महात्मय बारहवा अध्याय

यमदूत कहने लगा कि जो कोई प्रसंग वश भी एकादशी के व्रत को करता है वह दुखों को प्राप्त नहीं होता। मास की दोनों एकादशी भगवान पद्म नाभ के दिन हैं। जब तक मनुष्य इन दिनों में व्रत नहीं करता उसके शरीर में पाप बने रहते हैं। हजारों अश्वमेघ, सैकड़ों वाजपेयी यज्ञ, एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। एकादशी के दिन व्रत करने से ग्यारह इन्द्रियों से किये सब पाप नाश हो जाते हैं। गंगा, गया, काशी पुष्कर, कुरुक्षेत्र, यमुना, चन्द्रभागा कोई भी एकादशी के तुल्य नहीं है। इस दिन व्रत करके मनुष्य अनायास ही
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बैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है। एकादशी को व्रत और रात्रि को जागरण करने से माता पिता और स्त्री के कुल की दस-दस पीढ़ियाँ उद्धार पाती हैं और वह पीताम्बरधारी होकर भगवान के निकट रहते हैं। बाल, युवा और वृद्ध सब तथा पापी भी व्रत करने से नर्क में नहीं जाते। यमदूत कहता है कि है वैश्य! मैं सूक्ष्म में तुमसे नर्क से बचने का धर्म कहता हूं। मन और वचन से प्राणीमात्र का द्रोह न करना, इन्द्रियों को वश में रखना,, दान देना, भगवान् की सेवा करना, नियमपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करना, इन कर्मों के करने से मनुष्य नरक से बचा रहता है। स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मनुष्य गरीब भी हो तो भी जूता, छतरी, अन्न, धन, जल कुछ न कुछ दान देता रहे। दान देने वाला मनुष्य कभी

यम की यातना को नहीं देखता तथा दीर्घायु और धनी होता है। बहुत कहने से ही क्या अधर्म से ही मनुष्य बुरी गति को प्राप्त होता है। मनुष्य सदैव धर्म के कार्यों से ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है, इसलिए बाल्यावस्था से ही धर्म के कार्यों का अभ्यास करना चाहिए।

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत, द्वादशोध्याय समाप्तः ॥

 

माघ मास महातम्य तेरहवां अध्याय

माघ मास ही विकुण्डल कहने लगे कि तुम्हारे वचनों -1 से मेरा चित्त अति प्रसन्न हुआ क्योंकि सज्जनों के वचन सदैव गंगाजल के सदृश पापों का नाश करने वाले होते हैं। उपकार करना तथा प्रिय बोलना सज्जनों का स्वभाव ही होता है। जैसे अमृत मंडल चंद्रमा को भी ठण्डा कर देता है। अब कृपा करके यह भी बतलाइए कि किस प्रकार मेरे भाई का भी नरक से उद्धार हो सकता है? तब दूत कुछ देर ज्ञान दृष्टि से विचार कर मित्रता रूपी रस्से से बंधा हुआ बोला कि हे वैश्य ! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो जल्दी ही अपने आठ जन्म के
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पुण्य फल को उसके निमित्त अर्पण कर दो। तब विकुण्डल ने कहा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है और मैंने कौन से जन्म में और कैसे किया है? सो सब बतलाओ फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा। दूत कहने लगा कि हे वैश्य! सुनो, मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूं। पूर्व समय में मधुवन में शालकी नाम का एक ऋषि था। वह बड़ा तपेश्वरी, ब्रह्मा के समान तेज वाला, नवग्रह की तरह उसकी स्त्री रेवती के नौ जिनके नाम ध्रुव, शशि, बुध, पुत्र थे, ग तार, ज्योतिमान थे। इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण वि किया तथा निर्मोह जितमाय, ध्याननिष्ठ और त गुणातग यह चारों संन्यास ग्रहण कर वनमें है रहने लगे। यह शिखा सूत्र से रहित पत्थर और सोने को समान समझते थे। जो
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कोईअच्छा या बुरा उनको अन्न देता वही खा लेते और कोई कैसा ही कपड़ा दे देता था उसको ही पहन लेते थे। सदैव ब्रह्म के ही ध्यान में लगे रहते इन चारों ने व्रत शीत निद्रा और आहार सबको जीत लिया। बस चर अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण मे करके संसार में विचरते थे। ये चारों महात्मा तुम्हारे घर आये जब तुमने मध्यान्ह के समय हे भूखे प्यासे इनको आंगन में देखा तो तुमने गद्गद कण्ठ से आंखों में आंसू भरकर इनको नमस्कार करके बड़ा आदर सत्कार किया। इनके चरणों को धोकर बड़े प्रेम से तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरे अहोभाग्य है। आज मेरा जन्म सफल हुआ। मुझ पर भगवान प्रसन्न हुए। मैं सनाथ हुआ। मेरे पिता-पिता, पत्नी-पुत्र, गौ आदि सभी धन्य
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हैं जो आज मैंने हरि के सदृश आपके दर्शन किए। सो हे वैश्य! इस प्रकार तुमने श्रद्धा से उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को मस्त्क से लगाया। फिर विधिपूर्वक पूजन करके तुमने इन संन्यासियों को भोजन कराया। इन संन्यासियों ने भोजन करके रात को तुम्हारे घर में विश्राम किया और ब्रह्म के ध्यान में लीन हो गए। इन संन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुमको मिला सो मैं भी कहने में असमर्थ हूं क्योंकि सब भूतों में प्राणी श्रेष्ठ हैं। प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्माओं में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसी ही संगति से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते है। यह पुण्य तुमने अपने आठवें जन्म में किया था सो यदि तुम अपने भाई
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को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो। सो दूत के ऐसे वचन सुनकर उसने प्रसन्न चित्त से अपना पुण्य अपने भाई कुण्डल को दे दिया और वह नरक से मुक्त हो गया और दोनों भाई देवताओं से पूजित किए गए तब दूत अपने स्थान को चला गया। इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुण्डल ने अपना पुण्य देकर अपने भाई को नरक की यातना से छुड़वाया। सो हे राजन! जो कोई इस इतिहास को पढ़ता या सुनता है। वह हजार गौ दान का फल प्राप्त करता है।

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत त्रयोदशोध्याय समाप्तः ॥

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