माघ मास महात्म्य सोलहवां अध्याय

कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान्! वह राक्षस कौन था और कांचन मालिनी कौन थी? उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ ? हे ऋषि! अत्रि की संतानों के सूर्य ! यह कथा सुना कर मेरा कौतुहल दूर कीजिए। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि हे राजन्! इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो-कांचन मालिनी नाम की एक सुन्दर अप्सरा थी जो माघ मास में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर जा रही थी। तब उसको मार्ग में जाते हुए हिमालय के कुञ्ज से एक. घोर राक्षस ने देखा। उस सोने जैसी तेज वाली, सुन्दर कटिव और पीनपयोधर वाली सुन्दर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने कहा कि हे सुन्दरी! तुम कौन हो और कहां से आ रही हो, तुम्हारे वस्त्र और वेणी भीगी हुई क्यों हैं, तुम आकाश मार्ग से कहां जाती हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऐसा तेजस्वी और रूप ऐसा मनोहर है,

 

 

तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूंद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम शांति प्राप्त हो गई इसका क्या कारण है, इस जल की क्या महिमा है? तुम बड़ी शीलवती प्रतीत होती हो, इसका कारण मुझसे कहिए। अप्सरा ने कहा कि हे राक्षस! सुनो मैं काम रूपिणी अप्सरा हूं। मैं प्रयाग में संगम से स्नान करके आ रही हूं। इसी से मेरे वस्त्र भीगे हैं। अब कैलाश पर जा रही हूं जहां पर श्री शिव निवास करते हैं।

 

 

त्रिवेणी के जल से मेरी सब क्रूरता दूर हो गई। जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुन्दर और पार्वती जी की प्रिय सखी हुई सो आश्चर्य देने वाला उदाहरण मुझसे ब्रह्मा जी ने कहा था सो सुनो! मैं कलिंग देश के राजा की वैश्या थी। रूप लावण्य और सुन्दरता में अपूर्व थी। मेरी सुन्दरता पर सारा नगर मोहित था और मैंने अनेकों प्रकार के भोग भोगे अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों की घर में कोई कमी नहीं थी। कई कामी पुरुष आपस में स्पर्द्धा ही से मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस तरह उस नगर में बड़ी सुन्दरता से यौवन व्यतीत हुआ और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई। तब मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने अपनी सारी आयु पापों में ही व्यतीत कर दी। धर्म का कोई
कार्य दान, तप, यज्ञ आदि नहीं किया।

 

 

शिव या दुर्गाजी की आराधना नहीं की, न कभी भगवान विष्णु का पूजन किया। इस प्रकार अशांत चित्त से मैंने एक ब्राह्मण की शरण ली जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ था मैंने उनसे पूछा कि मेरा निस्तार किस प्रकार हो सकता है। महाराज! साधु सज्जन अच्छे और बुरे सभी पर दया करते हैं। इसलिए मुझ दीन पर भी कृपा करके मुझे कीचड़ में डूबी हुई को पकड़ कर उबारिये। क्षीर सागर क्या हंस को ही दूध देता है, बत्तख को नहीं देता है। तब वह ब्राह्मण राजा का पुरोहित इन सब बातों को सुनकर मुझ पर दया करके कहने लगा कि तू ब्रह्मा के क्षेत्र (प्रयाग) में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर, परन्तु मन में अशुभ क्रिया का विचार
नहीं करना।

 

 

पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक और कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया। प्रयाग में स्नान करन से अवश्य पवित्र होकर स्वर्ग को जायेगी। भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री वि को देखकर इन्द्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश से उससे भोग किया इसलिए ऋषि द्वारा श्राप दिया गया और उसका शरीर अत्यन्त लज्जा युक्त हजारों भगों वाला हो गया। तब इन्द्र नीचा मुंह करके अपने पाप कर्म की बुराई करने लगा। मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटरे में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा कि यह सब पापों का मूल है। इसके ही वशीभूत होकर मनुष्य
 नर्क में जाते हैं और अपनी धर्म, कीर्ति, यश और धैर्य का नाश करते हैं। इन्द्र ऐसा सोच यो तू रहा था सो इन्द्र के बिना सारा देवलोक हे शोभाहीन हो गया। तब देवता, गंधर्व, , किन्नर, लोकपाल इन्द्राणी के सहित , र वृहस्पति जी से जाकर पूछने लगे कि महाराजा इन्द्र के न रहने से स्वर्ग ऐसा शोभाहीन हो गया है

 

 

 

जैसे सत्पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल। इसलिए स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए। इस विषय में देर नहीं करनी चाहिए। तब बृहस्पति जी कहने लगे कि इन्द्र ने बिना सोचे विचारे कर्म किया है फल भोग रहा है सो वह कहां है मैं सब जानता हूं। फिर गुरुजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इन्द्र को देखा जिसका मुख मलिन
और आंखें बन्द थीं तब इन्द्र ने बृहस्पति जो के चरणों को पकड़ कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए। तब बृहस्पति जी ने इन्द्र से कहा कि प्रयाग में स्नान करने से ही तुम पाप मुक्त हो जाओगे।। तब इन्द्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी स्नान से इन्द्र पाप मुक्त हो गए। तब बृहस्पति जी ने इन्द्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भग हैं सब नेत्र हो जायें। तब इन्द्र ब्राह्मण के वर से हजारों नेत्र से ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है।

 

 

 

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत षष्ठदशोध्याय समाप्तः ।।

 

 

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