माघ मास तीसरा अध्याय
तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊंचा और कितना लम्बा चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊंचा ऊपर चोटी से दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदारु और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है। दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस सुन्दर पर्वत को और फल फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और वहां पर कन्दराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे इस प्रकार जव भृगु ऋषि वहां पर अपने आश्रम पर रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा। वह अत्यन्त दुखी थे उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है। तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर स्वर्ग पाकर तथा देव तुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसे है यही कारण मेरे दुःख और अशान्ति का है। न जाने किस पाप का फल है। मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिये।
यह मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा को बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारद जी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के बाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के नाच ताल में शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है। कहां ऐसी चन्द्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिन्ता सदैव मेरे हृदय को जलाती है। विद्याधर के ऐसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फल प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यन्त दुःखदाई हो जाता है। तुमने माघ मास की
एकादशी का व्रत करके द्वादशी के आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन उपवास करके द्वादसी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था। तब वह अपने कुरूप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमाचल पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया। प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र वाले पीताम्बर पहिने, वन माला धारण किये हुए विष्णु का चिन्तन करते हुए पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रह भगवान का चिन्तन किया इस प्रकार सात के जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान राजा के ता तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गये। न्त और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को की प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुन्दर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वसी भी उसको चाहने लगी और राजा सुकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया। भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो, जहां पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूं। तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पांचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ला एकादशी से इस व्रत को आरम्भ करो। भूमि में सोना, जितेन्द्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर तक के निराहार रहो। सब भोगों का त्याग कर तीनों समय को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख कामदेव के समान हो जायेगा और देवता भी तुम्हारा मुख देखकर चकित हो जायेंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे। माघ मास के प्रभाव को जान कर सदा माघ में स्नान करो। पाप और दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास का स्नान करना चाहिए। यह स्नान सदा सब दानों और बज्ञों के फल को देता है और पापों का क्षय होता है। वशिष्ठ कहते हैं कि हे राजा! दिलीप की यह, कथा भृगु जी ने विद्याधर को सुनाई। माघ स्नान योगों से भी बढ़ कर यज्ञ तथा यज्ञों से, बढ़कर गर्जना करता है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, काशी,
प्रयाग तथा गंगासागर जैसे संगमों से मनुष्य को जो फल दस वर्ष में मिलता है उतना ही फल माघ मास में स्नान करने से तीन दिन में मनुष्य को मिलता है। इसमें संशय नहीं है कि चिरकाल तक स्वर्ग में रहने की इच्छा करने वाले मनुष्यों को सदा यत्न से माघ मास में स्नान करना चाहिए। आयु, आरोग्य, धन, रूप, कल्याण और गुण प्राप्त करने वालों को माघ का स्नान कभी नहीं छोड़ना चाहिए। स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप ! भृगु जी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ मास का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह
पाणिग्रीव पर्वत पर आनन्द से रहने लगे और भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गये।