श्री सत्यनारायण भगवान् की कथा प्रारम्भ

प्रथम अध्याय श्री सत्यनारायण व्रत कथा 

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

श्री सत्यनारायण भगवान जी की कथा ] एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्रीसूत जी से पूछा- हे प्रभु! इस कलियुग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा ? हे मुनि श्रेष्ठ! कोई ऐसा तप कहिए जिसमें अल्प प्रयास से ही कम समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनवांछित फल भी प्राप्त हो |  वह कथा सुनने की हमारी  इच्छा है। सर्वशास्त्र ज्ञाता श्रीसूत जी बोले हे वैष्णवों में पूज्य ! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूंगा जिस व्रत को नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान् से पूछा था और श्री लक्ष्मीपति ने मुनि श्रेष्ठ नारद जी से कहा था यह कथा ध्यान से सुनो –

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो |एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। यहां अनेक योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुखों से पीड़ित देखकर विचार करने लगे कि किस यत्न के करने से निश्चय ही मानवों के दुखों का नाश हो सकेगा ऐसा मन में सोचकर भगवान् नारद विष्णु लोक को गये। वहां श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण का जिनके हाथों में शंख, चक्र, गद और पदम थे तथा वरमाला पहने हुए थे, देखकर स्तुति करने लगे। हे भगवान आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती आपका आदि मध्य अन्त नहीं है। निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। नारदजी से इस प्रका की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले- हे मुनि श्रेष्ठ आपके मन में क्या है आपका किस काम के लिये आगमन हुआ है? निःसंकोच कहो। तब नारद मुनि बोले – “मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने

अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ मुझ पर दया रखते हो तो बताइये कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं।” श्री भगवान् जी बोले – हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिये तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मैं कहता हूँ। सुनो-बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ यह उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूं। श्री सत्यनारायण भगवान् का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक सम्पन्न करके मनुष्य तुरन्त ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। श्री भगवान् के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि उस व्रत का फल क्या है? क्या विधान है ? किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए? हे भगवान् मुझसे विस्तार से कहो। भगवान् बोले – दुःख शोक आदि को दूर करने वाला, यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनारायण की शाम के समय

ब्राह्मणों और बन्धुओं के साथ धर्म परायण होकर पूजा करें। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया लेवे। गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर अथवा गुड़ लें तथा भक्ति-भाव से भगवान् को अपर्ण करें। बन्धु-बान्धवों सहित ब्राह्मणों को भोजन करावें, पश्चात् स्वयं भोजन करें। रात्रि में नृत्य, गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान् का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे। इस तरह विधि पूर्वक भक्ति पूर्वक व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय पूरी होती है।इस कलयुग में विशेष कर मृत्युलोक पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।

॥ इति श्री सत्यनारायण व्रतकथा का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण ||

 

 

द्वितीय अध्याय

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

 श्री सत्यनारायण व्रत सूतजी बोले- हे ऋषियो! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूं ध्यान से सुनो। सुन्दर काशी पुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ पृथ्वी पर घूमता था। ब्राह्मणों से प्रेम और रक्षा करने वाले श्री भगवान् हरि ने ब्राह्मण को दुखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास जा आदर के साथ पूछा – हे विप्र ! तुम नित्य ही दुखी होकर पृथ्वी परइधर उधर  क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूं। ब्राह्मण बोला- मैं निर्धन ब्राह्मण हूं, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर इधर उधर  फिरता हूँ। हे भगवान! यदि आप इससे छुटकारे का उपाय जानते हो तो कृपा कर कहो। वृद्ध ब्राह्मण बोला कि श्री सत्यनारायण भगवान् मनवांछित फल देने वाले है। इसलिए हे ब्राह्मण तू उनका पूजन कर जिसके करने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त होता है। ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान | बतला कर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान अन्तर्धान हो गये। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मैं उसको करूंगा, यह निश्चय करने पर उस वृद्ध ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आई। वह सवेरे उठ कर श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिये  चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बन्धु – बांधवों के साथ उसने श्रीसत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से वह विप्र सब दुखों से छूटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान् के व्रत को जो करेगा। वह सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। आगे जो पृथ्वी पर सत्यनारायण भगवान् का व्रत करेगा। वह मनुष्य सब दुखों से छूट जाएगा। इस तरह नारद जी से नारायण का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रो  ! मैं अब और क्या कहूँ ? ऋषि बोले – हे मुनीश्वर ! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया हम सब सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है। सूतजी बोले- हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है वह सब सुनो। एक समय यह वृद्ध ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धुबान्धवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियों को रखकर विप्र के मकान में गया। प्यास से दुखी लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर विप्र को नमस्कार कर कहने लगा कि आप यह किसका पूजन कर रहे हैं और इस व्रत के करने से क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझसे कहो।

 

ब्राह्मण ने कहा- सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत है, इनकी ही कृपा से मेरे यहां धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है, विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। भगवान् का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद अपने घर को गया लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूंगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियां अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पके केले की फली, शक्कर, घी, दुग्ध, दही और गेहूं का चूरन इत्यादि श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान् जी का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोग कर बैकुण्ठ को चला गया।

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

 

 

तृतीय अध्याय

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियों अब आगे की कथा कहता हूं, सुनो पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था, प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया। उस समय वहां एक साधु वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत सा धन था। वह नाव का किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने स्वगा हे राजन! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। सो आप यह मुझे बताइये। राजा बोला- हे साधु अपने बान्धयों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन किया जा रहा है। राजा के वचन सुनकर साधु आदर से बोला- हे राजन! मुझसे इसका सब विधान कहो। मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई सन्तान नहीं है और इससे निश्चय ही होगी। राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह आनन्द के साथ घर गया। साधु ने अपनी पत्नी से संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा कि जब मेरे सन्तान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। साधु ने ऐसे वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन उसकी पत्नी लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर श्री सत्यनारायण भगवान् की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। दिनों दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है।

 

कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो आपने संकल्प किया था कि भगवान् का व्रत करूंगा अब आप उसे करिये। साधु बोला, हे प्रिये। कन्या के विवाह पर व्रत करूंगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया। कलावती पितृगृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरन्त ही दूत को बुलाकर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचननगर पहुंचा और वहां पर खोज कर और देखभाल करके लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बन्धुबान्धवों सहित प्रसन्नचित्त अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। तब श्री भगवान् क्रोधित हो गये और श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जामाता सहित नावों को लेकर वापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया और वहां दोनों ससुर जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान् सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देखकर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वहीं नाव में चुपचाप रख दिया जहां वो सुसर जमाई ठहरे हुए थे तथा चोर भाग गये।

 

जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो दोनों को बांधकर ले गये और प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले- यह दो चोर हम पकड़ कर लाये हैं, देखकर आज्ञा दें। तब राजा की आज्ञा से उनको कठिन कारावास में डाल दिया गया तथा उनका धन छीन लिया। सत्यनारायण भगवान् के श्राप के द्वारा उनकी पत्नी भी घर पर बहुत दुखी हुई और घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गये शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख प्यास से अति दुखित हो अन्न की चिन्ता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। वहां उसने सत्यनारायण भगवान् का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा- हे पुत्री ! अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या है? कलावती बोली हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत देखा। कन्या के वचन सुन कर लीलावती भगवान् के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बन्धुओं सहित श्रीसत्यनारायण भगवान् का पूजन किया और वर मांगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र आ जायें। साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो। सत्यनारायण भगवान् इस व्रत से सन्तुष्ट हो गये और राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन! दोनों वैश्यों को प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो मैं तेरा
 धन, राज्य पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान् श्री सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। प्रातःकाल राजा चन्द्रकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया फिर दोनों वणिक पुत्रों को क़ैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचनों से बोला- हे महानुभावों। भावीवश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं। ऐसा कहकर राजा ने उनको नये- २ वस्त्राभूषण पहनाये तथा उनका जितना धन लिया था उससे दूना धन देकर आदर से विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।

|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का तृतय अध्याय सम्पूर्ण ||

 

 

‘चतुर्थ अध्याय

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो | सूतजी बोले- वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला उनके थोड़ी दूर निकलने पर दण्डी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान् ने उससे पूछा- हे साधु! तेरी नाव में क्या है ? अभिमानी वणिक हंसता हुआ बोला- हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो ? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो खेल और पत्ते भरे हैं। वैश्य का कठोर वचन सुनकर भगवान् ने कहा- तुम्हारा वचन सत्य हो, दण्डी ऐसा कह कर वहां से दूर चले गये, कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गये।

 

दण्डी के जाने पर वैश्य ने नित्य क्रिया करने के बाद नाव को ऊंची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। फिर मूर्छा खुलने पर अत्यन्त शोक प्रकट करने लगा। तब उसका दामाद बोला कि आप शोक न करें यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद के वचन सुन वह दण्डी के पास पहुंचा और अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करके बोला- मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे उनको क्षमा करो। ऐसा कह कर महान् शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान् बोले- हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार- बार तुम्हें दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला- हे भगवान् आपकी माया से ब्रह्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते, तब में अज्ञानी आपको  कैसे जान सकता हूँ आप प्रसन्न होइये, में सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूंगा, मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो। उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर प्रसन्न हो उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्धान हो गये। तब उन्होंने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है फिर वह भगवान् सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब अपने नगर के निकट पहुंचा तब दूत को घर भेजा।

 

दूत ने साधु के घर जा उसको स्त्री को नमस्कार कर कहा कि साधु अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गये हैं। लीलावती और कलावती उस समय भगवान् का पूजन कर रही थी। ऐसा वचन सुन साधु की स्त्री ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूं। तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना परन्तु कलावती वृत्त एवं प्रसाद छोड़कर पति के पास चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न देख कर रोती हुई जमीन पर गिर गई। इस तरह नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोता देख साधु दुखित हो बोला- हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो। उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव प्रसन्न हो गये और आकाशवाणी हुई हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिये इसका पति अदृश्य हुआ है, यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसे पति अवश्य मिलेगा। ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुंचकर प्रसाद खाया। फिर आकर पति के दर्शन किये तत्पश्चात् साधु ने बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। इस लोक का सुख भोग कर अन्त में स्वर्गलोक को गया।

।। इति श्री सत्यनारायण व्रतकथा का चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ॥

 पंचम अध्याय

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

श्री सत्यनारायण व्रत सूतजी बोले- हे ऋषियों में और भी कथा कहता हूं, सुनो प्रजा पालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान् का प्रसाद त्यागकर बहुत दुःख पाया। एक समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया वहां उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बांधवों सहित श्री सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। राजा देखकर भी अभिमान वश वहां नहीं गया और न नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान् का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद त्याग कर अपनी नगरी को चला गया। वहाँ उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तो वह जान गया कि यह सब भगवान् ने किया है। तब वह विश्वास कर ग्यालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यनारायण देव की कृपा से सब कुछ पहले जैसा ही हो  गया फिर दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोग को गया। जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान् की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति । होगी। निर्धन धनी और बन्दी बन्धन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। संतानहीनों को संतान प्राप्ति होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वैकुण्ठ । धाम को जाता है।

जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूं। बृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को प्राप्त किया । उल्कामुख नाम के  राजा दशरथ होकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुये । साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीर कर मोक्ष को प्राप्त किया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू मनु हुए भगवान् में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष को प्राप्त किया। 

॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का पंचम अध्याय सम्पूर्ण ॥

श्री सत्यनारायण भगवान जी की जय हो

 श्री सत्यनारायण जी की आरती

जय लक्ष्मी रमणा श्री जय लक्ष्मी रमणा ।

सत्यनारायण स्वामी जनपातक हरणा ॥

रत्न जड़ित सिंहासन अद्भुत छवि राजे।

नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजे ॥

प्रगट भये कलि कारण द्विज को दर्श दियो

बूढो ब्राह्मण बनकर कंचन महल कियो ॥

दुर्बल भील कराल इन पर कृपा करी ।

चन्द्र चूड़ एक राजा तिनकी विपत्ति हरी ॥

वैश्य मनोरथ पायो श्रद्धा तज दीनी।

सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर स्तुति कोनी ॥

भाव भक्ति के कारण छिन छिन रूप धरयो

श्रद्धा धारण कीनी तिनको काज सरयो ॥

ग्वाल बाल संग राजा वन में भक्ति करी।

मन वांछित फल दीन्हां दीनदयाल हरी ॥

चदत प्रसाद सवायो कदली फल मेवा

धूप दीप तुलसी से राजी सत्यदेवा ॥

श्री सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी मन वांछित फल पावे ॥

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