संतो की महिमा रामायण के अनुसार | Ramayan Ke Anusar Santo ki Mahima

रामायण के अनुसार संतो की महिमा

संतो की महिमा  रामायण का हमारे दैनिक जीवन में अत्यधिक महत्व हैं | राम शब्द परमेश्वर का प्रतीक हैं और अयण शब्द मार्ग का प्रतीक हैं जो ईश्वर तक जाता हैं | वह मार्ग जो ईश्वर तक जाता हैं रामायण हैं | रामायण में संतो का चरित्र कपास के समान शुभ हैं , जिसका फल नीरस हैं, विशद और गुनमय होता हैं |  कपास उज्जवल होता हैं |संत का हृद्धय भी अज्ञान और पापरूपी अंधकार से रहित होता हैं |इसलिए वह विशद हैं | कपास में गुण होता हैं उसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता हैं इसलिए वह गुनमय हैं संत जन स्वयं दुःख सहन कर दुसरो के दोषों को ढकता हैं जिसके कारण उसने जगत में वन्दनीय यश प्राप्त किया हैं |
संतो का समाज आनन्द और कल्याणमय हैं , जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज प्रयाग के समान पुण्यकारी पवित्र हैं | जहाँ उस संत समाज रूपी प्रयागराज में रामभक्ति रूपी गंगाजी की धारा हैं और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती जी हैं |
 विधि और निषेध [ यह करो और यह न करो ] रूपी कर्मो की कथा कलियुग के पापो का हरण करने वाली सूर्यतनया  यमुनाजी हैं | भगवान विष्णु और शंकर जी की कथाये जो त्रिवेणी रूप में शुशोभित हैं , जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणों की देनें वाली हैं |
[ उस संत समाज रूपी प्रयाग ] अपने धर्म पर अटल विश्वास होता हैं वह अक्षय वट हैं और शुभकर्म ही उस तीर्थराज का समाज हैं | वह संत समाज रूपी प्रयागराज सब देशों में , सब समय सभी को सहज ही प्राप्त हो सकता हैं और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला हैं |
वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय हैं एव तत्काल फल देने वाला हैं उसका प्रभाव प्रत्यक्ष हैं |
जो मनुष्य इस संत समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत प्रेम पूर्वक इसमें गोते लगाते हैं वे इस शरीर के रहते ही धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष – चारो फल पा जाते हैं |
इस तीर्थराज में स्नान का तत्काल फल ऐसा देखने में आता हैं की कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस बन जाते हैं | यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे , क्योकि सत्संग की महीमा किसी से छिपी नहीं है |
 वाल्मीकि जी , नारदजी और अगस्त्य जी अपने अपने मुखों स अपनी होनी कही हैं जल में रहने वाले , जमीन पर रहने वाले , जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड – चेतन जीतने भी जिव इस जगत में हैं ,
उनमें से जिसनेजिस समय जहाँ कही भी जिस किसी यत्न से बुद्धि , कीर्ति ,सदगति ,विभूति एश्वर्य और भलाई पाई हैं सो सब सत्संग का प्रभाव समझना चाहिये |  वेदों में और लौक में इनकी प्राप्ति का दुसरा उपाय नहीं हैं |
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में नही मिलता |सत्संगति आनन्द और कल्याण की जड़ हैं | सत्संग की सिद्धि ही फल हैं औ सब साधन तो फूल हैं | दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं | जैसे पारस  के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता हैं [ सुन्दर सोना बन जाता हैं ] | किन्तु दैवयोग से कभी साधू लोग दुष्ट संगती में पड़ जाते हैं तो वे अपने सहज गुणों का प्रभाव कभी नहीं छोड़ते वे अपने गुणों का अनुसरण ही करते हैं |

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