श्री जग मंगल राधा कवच तथा राधा कवच की महिमा

श्रीजगन्मंगल-राधाकवच तथा उसकी महिमा – श्री पार्वती बोली – श्री राधा जी की पूजा का विधान और स्तोत्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे मैंने सुन लिया। अब राधाकवच का वर्णन कीजिये। आपकी कृपा से उसे भी सुनूँगी। श्री महेश्र्वर कहा– दुर्गे! सुनो। मैं परम अद्भुत राधा कवच का वर्णन आरम्भ करता हूँ।

पूर्वकाल में साक्षात परमात्मा श्री कृष्ण ने गोलोक में इस अति गोपनीय परम तत्त्वरूप तथा सर्वमन्त्रसमूहमय कवच का मुझसे वर्णन किया था। यह वही कवच है, जिसे धारण करके पाठ करने से ब्रह्मा ने वेदमाता गायत्री को पत्नीरूप में प्राप्त किया।
सुरेश्वरि! तुम सर्वलोक जननी हो।

मुझे तुम्हारा स्वामी होने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं वह इस कवच को धारण करने का ही प्रभाव है। इसी कवच को धारण करके भगवान नारायण ने मां लक्ष्मी को प्राप्त किया |

इसी कवच को धारण करके भगवान नारायण ने मां लक्ष्मी को प्राप्त किया |
इसी कवच को धारण करने से प्रकृति परवर्ती निर्गुण परमात्मा परमात्मा श्री कृष्ण ने पूर्व काल में सृष्टि की रचना करने की शक्ति से संपन्न हुए |इसी कवच का पाठ करने से जगत पालक विष्णु भगवान ने सिन्धु कन्या को प्राप्त किया |
इसी कवच के प्रभाव से शेषनाग समस्त ब्रह्मांड को अपने मस्तक पर सरसों के दाने की भांति धारण करने में समर्थ हुए |
इसी का आश्रय ले महा विराट प्रत्येक रोम कूप में असंख्य ब्रह्मांडो को धारण करते हैं और सब के आधार बने हैं |
इसी कवच को धारण और पाठ करने से धर्म साक्षी और कुबेर धनाध्यक्ष हुए |

इसके पाठ और धारण का ही यह प्रभाव है कि इंद्र देवताओं के स्वामी तथा मनु नरेशो के भी सम्राट हुए |
इसी पाठ को धारण करने से चंद्र देव राज सूर्य यज्ञ करने में सफल हुए और सूर्य देव तीनों लोकों के ईश्वर पद पर प्रतिष्ठित हो सके |

इसका मन के द्वारा धारण और वाणी द्वारा पाठ करने से अग्नि देव जगत को पवित्र करते है|
पवन देव मन्दगति से प्रवाहित हो तीनों भुवनो को पावन बनाते हैं |

इस कवच को ही धारण करने का यह प्रभाव है कि मृत्यु देव समस्त प्राणियों में स्वच्छंद गति से विचरते हैं |
इसी कवच का पाठ करने और धारण करने से ही जमदग्नि पुत्र परशुराम ने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय विहीन कर दिया  |

और कुंभज ऋषि ने समुंदर को पी लिया इससे को धारण और पठन से ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ सिद्ध हो गए हैं |
कपिल सिद्धो के स्वामी हुए हैं |

इसी के प्रभाव से प्रजापति दक्ष और भृगु मुझसे निर्भय होकर द्वेष करते हैं कुर्म शेष को भी धारण करते हैं वायु देव सब के आधार हैं और वरुण देव सब को पवित्र करने वाले हो सके हैंइसी का आश्रय लेने से काल और कालाग्री रूद्र तीनों लोगों का संहार करने में समर्थ हो सकते हैं |

इसी को धारण करने से गौतम सिद्ध हुए , कश्यप प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित हो सके |

पूर्वकाल में भगवान श्रीराम ने रावण द्वारा हरी हुई सीता इसी कवच के प्रताप से प्राप्त किया।
राजा नल ने इसी के पाठ से सती दमयन्ती को पाया।

महावीर शंखचूड़ इसी के प्रभाव से दैत्यों का स्वामी हुआ।

दुर्गे! इसी का आश्रय लेने से वृषभ नन्दिकेश्वर मुझको वहन करते हैं और गरुड़श्रीहरि के वाहन हो सके हैं।

पूर्वकाल के सिद्धों और मुनियों ने इसी के प्रभाव से सिद्धि प्राप्त की।

इसी को धारण करके महालक्ष्मी सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने में समर्थ हुईं।

सरस्वती को सत्पुरुषों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ तथा कामपत्नी रति क्रीड़ा में कुशल हो सकी।
वेदमाता सावित्रीने इस कवच के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की।

इसी को धारण करके तुलसी पवित्र और गंगा भुवनपावनी हुईं।
इसका आश्रय लेकर ही वसुन्धरा सबकी आधारभूमि तथा सम्पूर्ण शस्यों से सम्पन्न हुईं।

इसको धारण करने से मनसा देवी विश्वपूजित सिद्धा हुईं और देवमाता अदिति ने भगवान विष्णु को पुत्ररूप में प्राप्त किया।

लोपामुद्राऔर अरुन्धती ने इस कवच को धारण करके ही पतिव्रताओं में ऊँचा स्थान प्राप्त किया तथा सती देवहूति ने इसी के प्रभाव से कपिल-जैसा पुत्र पाया।

शतरूपा ने जो प्रियव्रत और उत्तानपाद-जैसे पुत्र प्राप्त किये तथा तुम्हारी माता मेना ने भी जो तुम-जैसी देवी गिरिजा को पुत्री के रूप में पाया |
वह इस कवच का ही माहात्म्य है। इस प्रकार समस्त सिद्धगणों ने राधा कवच के प्रभाव से सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त किये हैं।
राधा कवच

महेश्वर उवाच:-

श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापति:।।1।।

ऋषिश्चन्दोऽस्य गायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम्।
श्रीकृष्णभक्ति सम्प्राप्तौ विनियोग: प्रकीर्तित:।।2।।
शिष्याय कृष्णभक्तातय ब्रह्मणाय प्रकाश्येत्।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात्।।3।।

राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये।
कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना।।4।।

मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा।
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।5।।
कृष्णेनोपासितो मन्त्र: कल्पवृक्ष: शिरोऽवतु।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकाङेन्तं वह्निजायान्तमेव च।।6।।

कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।
ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेन्तं वह्नि जायान्तमेव च।।7।।

मस्तकं केशसङ्घांश्च मन्त्रराज: सदावतु।
ॐ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।8।।
सर्वसिद्धिप्रद: पातु कपोलं नासिकां मुखम्।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रियाङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्।।9।।

ॐ रां रासेश्वरीङेन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम्।
ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।।10।।

वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।11।।
कृष्णप्राणाधिकाङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सन्ततं पातु सर्वत:।।12।।

राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।13।।

पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।
उत्तरे सन्ततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी।।14।।
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा।।15।।

महाविष्णोश्च जननी सर्वत: पातु सन्ततं।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम्।।16।।

यस्मै कस्मै न दातव्य गुढाद् गुढतरं परम्।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तं न कस्यचित्।।17।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालङ्कारचन्दनै:।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णोसमो भवेत्।।18।।

शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्।।19।।

एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधन: पुरा।
विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम्।।20।।
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ।।21।।

बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय स:।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तोध भवेन्नर:।।22।।

नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च य:।
विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत्।।23।।
स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम्।
सर्वव्रतोपवासे च पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे।।24।।

सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं च सत्यरक्षणे।
नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे।।25।।

पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं च लभेन्नर:।
यत्फलं लभते नूनं पठनात् कवचस्य च।।26।।
राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने।
दावाग्नौ सङ्कटे चैव दस्युचौरान्विते भये।।27।।

कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने।
व्याधियुक्तोद भवेन्मुक्तो् धारणात् कवचस्य च।।28।।

इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि।
त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया।।29।।
श्रीनारायण उवाच।

इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारं च माधवम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्ग: साश्रुनेत्रो बभुव स:।।30।।

न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित्।
न पुष्करसमं तीर्थं नाश्रामो ब्राह्मणात् पर।।31।।

परमाणुपरं सूक्ष्मं महाविष्णो: परो महान्।
नभ परं च विस्तीर्णं यथा नास्त्येव नारद।।32।।
तथा न वैष्णवाद् ज्ञानी यिगीन्द्र: शङ्करात् पर:।
कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद।।33।।

स्वप्ने जागरणे शश्वत् कृष्णध्यानरत: शिव:।
यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयो:।।34।।

यथा शम्भुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधव:।
तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम्।।35।।
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीराधिकाकवचं सम्पूर्णम्।।

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