पुरषोत्तम  मास प्रथम अध्याय

पुरुषोत्तम मास पुरुषोत्तम मास सूतजी का मुनियों से वार्त्तालाप ——–

पुरुषोत्तम मास भक्तों को कल्पवृक्ष के समान फल देने वाले, वृन्दावन में खेल करने वाले, वृन्दावन बिहारी अद्भुत पुरुषोतम  भगवान् को नमस्कार करता हूँ। माता सरस्वती तथा जगद्गुरु व्यासजी को सफलता प्राप्त करने के निमित्त प्रणाम करता हूँ ।

पुरुषोत्तम मास नैमिषारण्य क्षेत्र में एक समय यज्ञ करने के लिए अनेक ब्रह्मनिष्ठ और वेदपाठी ऋषिगण अपने शिष्यों सहित संसार का उपकार करने के विचार से एकत्रित हुए। ये सभी इस क्षेत्र में यज्ञ (शुभ कर्म) करने के विचार से आये थे कि उसी स्थान पर सूतजी ने संसार सागर से पार उतारने वाले सहस्रों ऋषिगणों को शिष्यों सहित बैठा पाया । उन्हें नमस्कार करके सूतजी आनन्दमग्न हो गये। ऋषियों ने प्रसन्न मुख, शान्त, सद्गुणों से युक्त, परमार्थी, मुनि सूतजी जो ऊर्ध्वपुन्ड् धारे, नाम मुद्रा युक्त, गोपीचन्दन लगाये, तुलसी की माला तथा जटाओं का मुकुट सिर पर धारे नाम मंत्र का जाप करते हुए आते देखा, तो समस्त मुनिजन एक साथ उठकर खड़े हो गये। सभी ने प्रणाम करके कहा कि हमें अनेक अद्भुत कथाओं के सुनने की इच्छा है। सूतजी ने कर जोड़ विनम्र हो बारम्बार ऋषियों को शीश झुकाया। तब ऋषि बोले- हे परम भागवत् सूत जी! आप चिरंजीव हों। हमारे बनाये हुए इस उत्तम आसन पर विराजिये। सूतजी मुनियों से तप वृद्धि पूछकर अपने आसन पर बैठ गये। अब मुनियों ने पुण्य कथा सुनने के विचार से सूतजी से कहा- आप महा भाग्यवान हो, गुरु-कृपा से आपने भगवत् रहस्यों का वर्णन करने की शक्ति प्राप्त की है। व्यासजी के शिष्यों में शिरोमणि आप हम सबके पूज्य हो। हम लोगों ने संसार में सार रूप से सहस्रों कथायें सुनी हैं। आपके विचार में ऐसी अन्य कथायें भी होंगी जो संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए लोगों को पार कर सकती हैं। अज्ञान रूपी अंधकार में आपका ज्ञान नेत्रदान के समान है। इसलिए, हे सूतजी ! आप इस संसार के रोगों के लिए रसायन के समान कथा-सार को हमारे सन्मुख वर्णन कीजिये जिनमें हरिलीला रस मिला हुआ हो और जो परमानन्द का कारण बने। ऋषियों के ऐसे वचन सुनकर सूतजी हाथ जोड़कर आदर करते हुए बोले-है मुनिजनो ! आप सब मेरा वचन सुनिये- मैं पहले पुष्कर नामक तीर्थ को गया। वहाँ स्नान कर ऋषियों और पितरों को पिंड दान किया। तब यमुनातट गया, क्रमानुसार अन्य तीर्थों में होता हुआ गंगा तट पर आया फिर काशी होकर गया पहुँचा। वहाँ भी पितरों को पिंड दान कर वेणी और कृष्णा होकर गंडकी में स्नान – करता हुआ सेतुबन्ध और अन्त में बद्रिकाश्रम में नारायण का दर्शन कर तपस्वियों को नमस्कार करके स्तुति की। अब इस सिद्ध क्षेत्र में आया हूँ। उसी समय वहाँ भगवान के तेजभूत महामुनि व्यास-पुत्र प्रतापी श्रीशुकदेव जी भी आ पहुँचे जिनका मन भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों में लगा हुआ था। उनकी आठ वर्ष की आयु, शंख के समान कंठ, ऊँचे और चिकने केश से घिरा हुआ मुख, शक्तिवान कन्धे, । चमकती हुई काँति, अवधूत वेश, ब्रह्म स्वरूप, बालकों से घिरे हुए आए। स्त्री और सभी बालक हाथों न में धूल लिए हुए थे जैसे मक्खियों से घिरा हुआ हाथी हो। महामुनि शुकदेवजी को धूल से सने हुए देखकर न समस्त मुनिगण एक साथ उठ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब मुनियों के बनाये कमल चक्र जैसे ऊँचे आसन पर शुकदेव जी विराजे। ज्ञान रूपी समुद्र आनन्द देने वाले चन्द्र समान ऋषि शुकदेवजी ऋषिय द्वारा पूजे गये और वहाँ शोभा पाने लगे।पुरुषोत्तम मास

 

 

 

 

दूसरा अध्याय

पुरुषोत्तम मास नारद मुनि का भगवान नारायण से प्रश्न करना

सूतजी बोले- हे ऋषियों! पुरुषोत्तम मास मैं शुकदेव जी द्वारा कह परीक्षित के सन्मुख भागवत की परम सुन्दर मोक्ष दे वाली कथा को सुनकर यहाँ आया हूँ। मैं आप लोग का दर्शन करके भी कृतार्थ हो गया हूँ। ऋषि बोले- सूतजी ! अन्यान्य बातों को छोड़ हमें वेदव्यास जी मुख से सुनी कथा सुनाइये। आत्मा को प्रसन्न कर वाले वचन अमृत से भी उत्तम अमृत रूप उस कथा व पिलाइये। सूत जी बोले-ऋषियों! मेरा अहोभाग है। मुझे जो ज्ञान है, उसके अनुसार वह सब आपक सुनाता हूँ।

एक समय नारद जी भगवान् नारायण के निवा स्थान पर पहुँचे। भगवान् की सेवा में वहाँ अनेव सिद्ध देवता और तपस्वियों का समूह था। विष भगवान् के चरणों से द्रवीभूत अलकनन्दा बह र थी। महामुनि नारद जी लोक-चिन्तन करते हुए वा पहुँचे। तब परब्रह्म में मन लगाने वाले भक्त वत्सल नारदजी को नारायण ने नमस्कार किया। नारद जी ने भी भगवान् को साष्टांग प्रणाम कर स्तुति करते हुए कहा- हे देवाधिदेव, संसार के स्वामी, दयासिंधु ! सत्य के सार रूप, सत्य से उत्पन्न हो। मैं आपकी शरण में आया हूँ। आपका तप संसार को शिक्षा देना तथा मर्यादा को रखना है। नहीं तो, कलियुग में विशेष पापों के बढ़ने से पृथ्वी रसातल को चली जाती है। किन्तु पुण्यात्माओं के पुण्य कर्मों से पुनः तरने लग जाती है। सतयुग की भाँति एक पापी के पापों से कलियुग में सबको पाप नहीं लगता। केवल पाप करने पाले को पाप लगता है। आपके तप में स्थित रहने वाला पाप-पुण्य से लिप्त नहीं होता है। हे भगवान्! सब प्राणियों के हृदय- विषयों में आसक्त हैं। स्त्री, पुत्रादि के मोह में फँसे हुए गृहस्थी लोगों का हित करने वाले, लाभदायक कुछ • विचार मुझे भी बतलाइए। क्योंकि मैं आपके मुखारविन्द से कुछ सुनने की इच्छा से ब्रह्मलोक से आया हूँ। फिर वेद भी बताते हैं कि भगवान् विष्णु उपकार के प्रेमी हैं। संसार के उपकार के लिए उस सार रूपकथा को कहिए, जिसके सुनने से ही जीव निर्भय- पद पाता है।

नारद जी के वचन सुनकर ऋषिपति भगवान् मुस्कराते हुए संसार को पवित्र करने वाली कथा को आरम्भ करते हुए बोले- हे नारद! आज तुम ब्रजे गोपियों के मुख कमल के भ्रमर तुल्य रसिक शिरोमणि, श्रीकृष्णचन्द्र वृन्दावन बिहारी की पुण्यमयी कथा को सुनो! हे वत्स ! विधाता संसार को पल भर में नष्ट कर सकता है। उसके कामों का वर्णन कोई नहीं कर सकता। इस संसार में सार रूप भगवान के अगम्य चरित्र को तुम भी जानते हो। फिर भी मैं तुम्हारे सामने पुरुषोत्तम भगवान् के दारिद्र, वैद्य-व्याधि दुःख हरने वाले, उत्तम कीर्ति, पुत्र तथा मोक्ष देने वाले सरल अद्भुत माहात्म्य का वर्णन करता हूँ ।

नारदजी बोले- भगवान्! ये पुरुषोत्तम कौन से देवता हैं, इस माहात्म्य के कौन से ऋषि हैं, मुझे विस्तार से बताइए ।

सूतजी बोले- नारायण नारदजी के इन वचनों को सुन दो घड़ी के लिए एकाग्र हो गए। फिर पुरुषोत्तम देवता का परिचय देते हुए बोले- पुरुषोत्तम नाम एक मास का है, जिसके स्वामी कृपासिन्धु पुरुषोत्तम भगवान् है, इसीलिए इसको हम ऋषि पुरुषोत्तम मास कहते हैं। इसका व्रत करने से पुरुषोत्तम भगवान् प्रसन्न होते हैं। नारदजी बोले – मैंने स्वामियों सहित चैत्रादिमास तो सुने हैं किन्तु हे नाथ! पुरुषोत्तम मास कभी नहीं सुना।
पुरुषोत्तम कौन-सा मास है जिसके स्वामी दयासिन्धु हैं। यह पुरुषोत्तम कहाँ से आया? यह मुझे कृपा करके बताइए। उस मास का क्या स्वरूप है, क्या विधान है, व्रत में क्या करना चाहिए, कैसे स्नान करना चाहिए, क्या दान करना चाहिये? हे स्वामी! यह सब मुझे बताइये । उसमें जप, पूजा, उपवास आदि का क्या साधन है? उसके करने से कौन से देवता प्रसन्न होकर क्या फल देते हैं? कितने ही मनुष्य पृथ्वी पर दूसरों के भाग्य के भरोसे रहकर दरिद्री, दुःखी, रोगी और पुत्र की इच्छा करने वाले हैं। जड़, गूँगे, घमण्डी, मूर्ख, कुचाली, नास्तिक, नीच, अति वृद्ध, निराश, प्रतिज्ञा हीन, क्षीण पराक्रमी, कुरूप, रोगी, कुष्ठी आदि अंगहीन, अन्धे आदि तथा कोई इष्ट, मित्र, स्त्री, पुत्र से दुःखी माता- पिता से हीन, दुःखों से सूखे हुए निर्बल और मनवांछित वस्तु से हीन हैं। हे भगवन्! वे कुछ करके, सुनके, पढ़कर और आचरण करके इन कष्टों से छूट जाँय, ऐसा उपाय बताइये। विधवापन, बाँझपन से लेकर रक्तपित्त, अपस्मार, राजयक्ष्मा आदि रोग से ग्रसित दोष समूह देखकर मैं बड़ा दुःखी हूँ। मेरी प्रसन्नता के लिये, हे सर्वज्ञ, सब तत्वों के ज्ञाता कोई आनन्द देने वाला व्रत भली-भाँति समझाकर कहिए। सूतजी बोले- नारदजी के संसार के हित करने वाले प्रश्न को सुनकर नारायण ने चन्द्रमा के समान शांति देने वाले मधुर शब्दों में जो कहा, उनको मैं सुनाता हूँ।

 

 

 

 

तीसरा अध्याय

सूतजी कहने लगे- हे ऋषियो! नारायण जी ने नारदजी से जो सुन्दर वचन कहे, वे जैसे सुने हैं, वैसे कहता हूँ। एक समय धर्मराज युधिष्ठिर दुर्योधनादि से जुए में हारे तो प्रत्यक्ष अग्नि से उत्पन्न हुई धर्म में तत्पर द्रोपदी के बालों को दुष्ट दुशासन ने पकड़ के खींचा, वस्त्र भी खींचे, तब श्रीकृष्ण भगवान् ने द्रोपदी की सब प्रकार से रक्षा की। तत्पश्चात् युधिष्ठिरादि राज्य छोड़कर काम्यक वन को गये। वहाँ युधिष्ठिरादि पांडव बाल बिखेरे बनवासियों की भाँति वन के फल खाते हुए अत्यन्त दुःख पाने लगे। श्रीकृष्ण भगवान् उनको दुःखी देख मुनियों सहित काम्यक वन गये। तब युधिष्ठिरादि के श्रीकृष्ण भगवान् को देख के मानों देह में प्राण आ गये । झटपट उठे, प्रेम-विह्वल हो प्रीति से मिले और द्रोपदी सहित श्रीहरि के चरणकमलों में नमस्कार किया। युधिष्ठिर को रूखे और चारों ओर बाल बिखेरे बल्कल वस्त्रों को पहने दुःखी देखा। द्रौपदी को भी दुःखी देख श्रीकृष्ण भगवान् अत्यन्त दुःखी हुए। जब भक्तवत्सल भगवान् ने दुर्योधनादिको भस्म करने के लिये कोष किया तो उनकी भृकुटियों के भंग से, करोड़ों कराल काल के मुख की मानो प्रलय काल की अग्नि उठी और वे दाँत पीसते हुए मानो त्रिलोकी को जला रहे हों। तब अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान् को देख भय से काँप उठा। युधिष्ठिर, द्रोपदी और सभी उनको प्रसन्न करने के लिए स्तुति करने लगे। अर्जुन बोले- हे कृष्ण! हे जगन्नाथ! मैं जगत् से बाहर नहीं हूँ फिर जगत् रक्षक होकर आप मेरी रक्षा क्यों नहीं करते ? अतः हे तात! हे जगत्पते ! संहार करने वाले क्रोध को त्यागिए आप के क्रोध से संसार में प्रलय हो जायेगी। आप ही ईश्वर हो, चराचर जगत के उत्पन्नकर्ता सब मंगलों के मंगल रूप, आप अपने रचे हुए विश्व को एक के अपराध के कारण क्यों नाश करते हो? भला, कोई मच्छरों को जलाने के लिए घर को जलाता है! कृष्ण से ऐसा कह हाथ जोड़ नमस्कार किया। सूतजी बोले- तब सबने श्रीकृष्ण भगवान् को क्रोध-त्याग चन्द्र के समान शीतल देख सुख पाया। श्री नारायण बोले कि दीनबन्धु भक्तवत्सल श्रीकृष्ण भगवान् को प्रसन्न जान भारी प्रेम में मग्न हो सिर झुका हाथ जोड़ अर्जुन ने उनसे ठीक वही प्रश्न किया जो हे नारद तुमने मुझसे किया है। इस प्रकार सुन हरि भगवान् दो घड़ी ध्यान कर मित्र-मंडला और द्रोपदी को सावधान कर हितकारक वचन बोले- अर्जुन! मेरे वीभत्सरसयुक्त वचन सुन आपने अपूर्व प्रश्न किया है। ऐसा गुप्त प्रश्न संसार में ऋषियों को भी दुर्लभ है। हे अर्जुन! मैं तुम्हारी मित्रता और भक्ति के कारण बताता हूँ। हे पाण्डवो ! चैत्रादिकमास नाड़िकाएँ, याम, त्रियाम, ऋतु, मुहूर्त, दोनों अयन वर्ष, युग, परार्ध, अन्त से परे, नदी, समुद्र, तालाब, कुए, बाबड़ी, पल्लव, झरने, लता, औषधि, वृक्ष और बॉस, वनस्पति, पुर, गाँव, पर्वत, नगर सब अपने-अपने गुणों से पूजे जाते हैं। हे अर्जुन! स्वामी संयोग और माहात्म्य से सब फल देने वाले हैं। किसी समय अधिक मास आया। उसको सब लोग असहाय निंदित, अपूज्य, मलमास, रवि संक्रान्ति से वर्जित ऐसा कहते थे । मल रूप होने से अछूत और शुभ कर्मों के लिए निंदित; ऐसे वचन सुन, कान्तिहीन, निरुद्योगी, दुःखी अत्यन्त थकित शरीर, चिन्ता से घिरा, मन में दुःखित धैर्य धार मलमास मेरी शरण में बैकुण्ठ में जहाँ मैं रहता हूँ, वहीं आ पहुँचा। अन्तर्गृह में वह मुझको विनीत भाव में दिखाई दिया। हाथ जोड़े, नेत्रों में आँसुओं को भरे धैर्य धारण  गद्गद् वाणी से प्रार्थना की। वह नारायण नारायण’ पुकारता हुआ इस प्रकार बोला-

 

 

 

 

चौथा अध्याय

हे नाथ, हे कृपानिधे ! हे हरे में मलमास बलवानों से तिरस्कृत hokar यहाँ आया हूँ। आप मेरी रक्षा क्यों नहीं करते? मुझे उन लोगों ने शुभ कर्म में वर्जित, अनाथ और हमेशा घृणा से देखा है। अब आपकी वह दयालुता कहाँ गई, यह कठोरता कैसे हुई ? प्रभु मेरी रक्षा क्यों नहीं करते? कृपाकर बताइये। इस प्रकार वह मलमास श्रीकृष्ण भगवान के सामने उदास हो बैठ गया। तब द्रवीभूत हरि अपने सामने बैठे मलमास से दीनवचन बोले- हे पुत्र ! तू अत्यन्त दुःखमग्न है। तू सोच मत कर, मैं तेरा दुःख दूर करूँगा। यहाँ आकर महा दुःखी चाण्डाल भी सोच नहीं करता, फिर, तू क्यों सोच में डूब रहा है ? तुझको दुःखी देख यहाँ के बैकुण्ठवासी विस्मित हो गये हैं। तू मरने की इच्छा क्यों करता है? मलमास मधुसूदन भगवान् से बोला- हे भगवान्! आप घट-घट के वासी हैं, सब जानते हैं। आप आकाश की भाँति संसार पर व्याप्त हो । विष्णु हो, सर्व साक्षी, विश्व-दृष्टा तुम्हारे निरंजन-निराकार
रूप में सब प्राणी व्यवस्था से रहते हैं। अतः हे जगन्नाथ! आपके बिना कुछ भी नहीं। हे भगवान्! मुझ अभागे की पीड़ा को क्या आप नहीं जानते ? क्षण, लव, मुहूर्त पक्ष, मास और दिन-रात्रि अपने स्वामी की आज्ञा से सदा अभय हो आनन्द करते हैं। किन्तु, मेरा न नाम है, न मेरा कोई स्वामी है और न कोई आश्रय । इसलिए देवता भी मेरा निरादर करते हैं कि यह शुभ कर्म में निषिद्ध है। अन्ध परम्परा वाले सदा ऐसा कहते हैं अतः मैं मरना चाहता हूँ। ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा है। हे महाराज ! आप दूसरों के दुःख को देख नहीं सकते और सबका उपकार करने वाले हैं। ऐसा ही वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है। ‘मैं मरूंगा, मैं मरूंगा, मैं मरूँगा’ इस प्रकार बारम्बार कहकर वह शान्त हो गया। उसको पड़े हुए देख सभा विस्मित हो गई।

अधिकमास के ऐसे शान्त होने पर महाकृपायुक्त श्रीविष्णु भगवान् शरद चन्द्र की किरणों के समान नीति के युक्त और मेघ के समान गम्भीर शब्दों में कहने लगे।

 

 

 

 

 

पाँचवाँ अध्याय

श्रीनारायण ने कहा- हे वत्स, हे निरीश्वर ! तेरा दुःख मुझे निवारण होने योग्य दीखता है। तू सोच मत कर, उठ, उठ तेरा कल्यान होगा। तू मेरे साथ योगियों को भी दुर्लभ गोलोकधाम को चल । वहाँ गोपीगणों के मध्य बैठे हुए दो भुजा वाले मुरलीधर, श्यामवर्ण और कमल सरीखे जिनके नेत्र हैं, ऐसे ईश्वर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्द कन्द हैं। वे प्रभु, प्रकृति से परे, ईशान, निर्गुण, नित्यविग्रह, श्रीकृष्ण गोलोक में तेरा दुःख दूर कर देंगे । चलो, वहीं चलें।

इतना कह हरि भगवान् मलमास का हाथ पकड़ गोलोक को ले गये। हे नारद मुनि! अज्ञानरूप अँधेरे को नाश करने वाला, ज्ञानरूपी मार्ग दिखाने वाला, पहले प्रलय काल में यहजो ज्योतिस्वरूप था और सूर्य के समान कान्ति, नित्य, असंख्य, विश्व के कारण विभु परमात्मा की इच्छा रूप वह ज्योति है। हे मुने! ज्योति के भीतर सुन्दर तीन लोक हैं। उनके ऊपर निरन्तर ब्रह्मलोक की भाँति गोलोक हैं। तेज स्वरूप श्रेष्ठ रत्नों वाली भूमि से युक्त, योगियों को स्वप्न में भी अदृश्य, वैष्णवों को दृश्य और प्राप्त होने योग्य परमात्मा ने योगों से धारण किया, ऐसा श्रेष्ठ गोलोक आकाश में स्थित है। गोलोक के दाहिनी ओर सृष्टि के प्रलयकाल में भी नाश रहित पार्षदों से घिरा हुआ एक करोड़ योजन विस्तार वाला शिवलोक है। शिवलोक में महादेव के गण सारे शरीर में भस्म रमाये सर्पों के जनेऊ पहरे, ललाट में अर्द्धचन्द्र धारे, शूल, पट्टिश हाथ में लिये, जटा में गंगा धारे, तीन नेत्र वाले शूरवीर महादेव की जय कहने वाले रहते हैं। गोलोक में निरन्तर परमानन्द कारक परम हर्ष को करने वाली अत्यन्त मनोहर ज्योति है। उस ज्योति में अत्यन्त सुन्दर, श्याम कमल के समान श्यामवर्ण, कमल समान लाल नेत्र, आनन्द जनक, निराकार से परे जिनका योगीजन ज्ञान चक्षु से ध्यान धरते हैं। पूर्ण चन्द्रमा के समान अत्यन्त दीप्तिमान मुख, मधुर, मुस्कान युक्त, पीले वस्त्र पहिने, कौस्तुभमणि से सुशोभित करोड़ों श्रेष्ठ रत्नों से जटित मुकुट और कंकण से शोभित रत्नों के सिंहासन पर बैठे हुए वनमाला से शोभायमान, वे ही परम पूर्णब्रह्म, श्रीकृष्ण स्वेच्छामय सर्वबीज, सर्वाधार, भक्तजनों पर अनुग्रह करने वाले, निर्विकार, अत्यन्त परिपूर्ण प्रभु, रास- मण्डल के मध्य में बैठे, मंगलों में मंगल, परमानन्द घन, सत्य, अक्षर, अव्यय, सब सिद्धि के ईश्वर, सब सिद्धि रूप और सिद्धि देने वाले प्रकृति से परे हैं, ये ही श्रीकृष्ण हैं। यों कहकर वे अधिकमास को साथ ले गोलोक में जा पहुँचे।

 

 

 

 

छठवां अध्याय

हे नारद! अधिकमास सहित विष्णु गोलोक में गए। वहाँ जो हुआ, वह सुना रहा हूँ। गोलोक में मणियों के खम्भों से सुशोभित भगवद्धाम की मनोहर ज्योति को विष्णु भगवान् ने दूर से ही देखा तो उस तेज से उनके नेत्र बन्द हो गये। विष्णु ने वहाँ जाकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को नमस्कार कर कहा- गुणों से अलग, गोविन्द, एक अक्षर अव्यक्त, अव्यय, व्यक्त, गोपवेष धारी मन को हरने वाले, सौम्य, तिरछी मनोहर आकृति वाले, रास के स्वामी, हाथ में मुरली, पीले वस्त्र धारे, अच्युत भगवान मुझ पर प्रसन्न होओ। तदनन्तर, श्रीकृष्ण के चरणारविंद में बैठे हुए काँपते हुए मलमास को विष्णुजी ने उनके चरणों में झुकाया तब श्रीकृष्ण भगवान् ने पूछा कि यह कौन है ? गोलोक में किस के लिए रोता है। श्री विष्णु बोले-हे वृन्दावनचन्द्र! हे कृष्ण ! मलमास के कष्ट सुनो, तुम्हारे आगे कहता हूँ । इससे इस निरीश्वर को यहाँ ले आया हूँ। आप इसके

दुःख दावानल को दूर करो, यह अधिकमास उत्तरायण, दक्षिणायन में त्याज्य है, अपूज्य और शुभ कर्म में सदा वर्जित है, स्वामी रहित है अतः इस मास में स्नान-दान नहीं होता। धारह महीनों में कला काष्ठ लतादि से, उत्तरायण, दक्षिणायन, वर्षों और वर्ष स्वामी के गर्द से इस प्रकार दुःख दावानल से जला हुआ यह मरने को तैयार हुआ। तब दूसरे दयालु पुरुषों की प्रेरणा से मेरे पास आया। इसके महादुःख को आपके बिना कोई निवारण नहीं कर सकता, इससे इस अनाथ को हाथ पकड़ कर तुम्हारे पास लाया हूँ। हे जगत्पते! आपके चरण-कमल प्राप्त करके सोच नहीं रहता, वेदवेत्ताओं का ऐसा वचन मिथ्या कैसे हो सकता है? इस प्रकार श्रीकृष्ण से कह विष्णु भगवान् उनके मुखकमल को खड़े हुए निहारने लगे।

 

 

 

 

सातवां अध्याय

श्री पुरुषोत्तम बोले- हे विष्णु ! आपने बहुत अच्छा किया जो मलमास को यहाँ लाए। इससे लोक में महान कीर्ति पाओगे। जिसको तुमने स्वीकार किया, उसे मैंने स्वीकार किया। मैं इसे अपने समान करूँगा। मेरे समान गुणवान् यानी जैसे मैं लोक में प्रसिद्ध हूँ। वैसे ही यह भी पुरुषोत्तम नाम से विख्यात होगा। है जनार्दन! सभी गुण तुम्हारी प्रसन्नता के लिए दिए हैं। अतः मैं ही इसका स्वामी होता हूँ। इस नाम से यह सब जगत् में पवित्र होगा और सब मासों का स्वामी होगा। पूज्य होकर पूजने वालों का दुःख दारिद्र नाश करेगा। इच्छा रहित या इच्छा वाला जो कोई अधिक मास को पूजेगा, वह पाप कर्मों को भस्म करके निःसंशय मुझे पावेगा। पुरुषोत्तम के भक्त केवल मास भर में जरा- मृत्यु से रहित हो, बिना श्रम ही हरि के पद को पा जाएँगे । सब साधनों में श्रेष्ठ, सब काम अर्थ की सिद्धि देने वाला यह पुरुषोत्तम मास सेवन योग्य है। जो पुरुषोत्तम की आदर से विधिपूर्वक पूजा करता है, वह अपने कुल का उद्धार कर मुझको ही प्राप्त होगा। वह संसार में जन्म, मृत्यु, भय से आकुल आधि- व्याधि से घिरा हुआ फिर मनुष्य-जीवन नहीं पाता। इसके भक्तों की चिन्ता रात-दिन मुझको होगी। इसके भक्तों की कामना मुझको ही पूरण करनी है। हे विष्णो! मेरे आराधन में मुझ पुरुषोत्तम मास का आराधन प्रिय है। मैं अपने भक्तों की बाँछा पूरी करने में कभी बिलंब नहीं करता।

इस मास में जो महा अज्ञानी मनुष्य जप-दान नहीं करते, अच्छे कर्म नहीं करते, वे दुष्ट भाग्य वाले और दूसरे के भाग्य पर जीने वालों को स्वप्न में भी सुख नहीं होगा। इस लोक में जो मनुष्य पुत्र, पौत्र, स्त्री, इनसे दुःखी हैं और दुःख रूपी दावानल को प्राप्त हैं, जिनने अज्ञान से अत्यन्त पुण्यवान् पुरुषोत्तम मास को छोड़ा है, उनको कैसे सुख मिलेगा ? जो स्त्री श्रेष्ठ भाग्य वाली पुत्र, सुख, , सौभाग्य के वास्ते पुरुषोत्तम मास में स्नान-दान-पूजन करेगी। उनको मैं सौभाग्य, सम्पत्ति, सुख, पुत्र दे दूँगा। सभी को स्नान पूजा जपादि करना विशेष करके शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए। हेरमापते ! तुम चिंता छोड़के पुरुषोत्तम मास को बैकुण्ठ ले जाओ। सूतजी बोले- इस प्रकार विष्णु भगवान् रसीले वचन सुनकर बड़े आनन्द से मलमास का हाथ पकड़ के नवीन मेघ के समान श्यामकान्ति वाले देव को नमस्कार कर गरुड़ पर बैठ शीघ्र अपने धाम को चले गये ।

 

 

 

आठवाँ अध्याय

द्रोपदी की कथा

सूतजी बोले- हेतपोधने ! विष्णु और श्रीकृष्ण का समस्त सम्वाद सुन नारदजी प्रसन्न हुए और पूछने लगे कि फिर आगे क्या हुआ ?

भक्त वत्सल श्रीकृष्ण युधिष्ठिर एवं द्रोपदी को कृपा से देखते हुए अर्जुन से बोले-दुःख में डूबे होने
से तुमने तपोवन में आये पुरुषोत्तम का आदर किया है, यह मैं जानता हूँ। किन्तु, इस मास का माहात्म्य भय से दुखित भीष्म-द्रोण भी नहीं जान पाये और भय के द्वेष से तुमने भी नहीं जाना तथा वेदव्यास जी से प्राप्त * विद्या-आराधना में लगे रहे। मनुष्यों को प्रारब्ध अनुसार सदा भासता है अतः प्रारब्ध भोग अवश्य भोगना चाहिए। मनुष्य प्रारब्ध से ही दुःख, सुख भय, आनन्द को प्राप्त है, अतः भाग्य पर सदा भरोसा करके रहो ।
हे महाराज! अब आपके दुःख का दूसरा कारण कहता हूँ। इतिहास सहित इस कथा को सुनो। यह द्रोपदी पूर्व जन्म में महाभाग्यशाली श्रेष्ठ मेधावी ब्राह्मण की अकेली पुत्री थी। यह बड़ी चतुर थी। नीति में भी निपुण थी। माता पहले मर जाने से पिता ने पाला-पोसा था। पड़ोसिन सखियों का सुख देख, पुत्र-पौत्र की इच्छा करने लगी कि ऐसे मेरे भी सगुण भाग्यवाले भर्ता और सुख देने वाले श्रेष्ठ पुत्र किस 7 तरह उत्पन्न होंय । ऐसा विचारा, परन्तु प्रारब्ध ने तो पहले ही नाश कर दिया था। क्या कर्म करके एक सुरेश्वर को भजूँ? किस मुनि के पास जाऊँ? किस तीर्थ में जाकर वहाँ रहूँ? मेरा भाग्य कैसे ो गया है आश्चर्य की समस्या है कि मेरे भाग्य से मेरे पण्डित पिता ने भी मेरे को विवाह योग्य होने पर भी मेरे सरीखे जोड़ी के वर को मुझे नहीं सौंपा। इधर शोक-मोह की तरंगों से पीड़ित हो, वह मेधावी ऋषिराज भी पृथ्वी पर भ्रमण करता था। कन्यादान के निमित्त जोड़ी का वर ढूँढने पर वैसा वर नहीं मिलने से जब अपने मनोरथ में निराश हो गया। तब ऋषिराज शरीर में व्याप्त दुःख की तीव्र ज्वाला से व्याकुल और श्वास के ऊपर श्वास से युक्त दारुण मूर्च्छा से ग्रस्त गिरता पड़ता हुआ पृथ्वी पर लेट गया और पुत्री का स्मरण किया। जब तक पुत्री भय से व्याकुल हो पिता

के पास आवे तब तक वह मरने के सरीखा हो गया। देवयोग से अकस्मात् काँपता हुआ वह हरि में मन लगाता हुआ श्रीहरि पुरुषोत्तम भगवान् को इस प्रकार स्मरण करने लगा-हे राजेश! हे राधारमण! हे अति उग्र दावानल के समान पाप हरने वाले! हे मुरारे! हे दामोदर! हे दीनानाथ! तुम्हारे लिए मेरा बारम्बार नमस्कार है। मेरी संसार रूपी समुद्र से रक्षा करो। मुनि के ऐसे वचन सुन बहुत जल्दी भगवान् के लोक से परिकर आ गया और मरे हुए मुनि को हाथ में लिए भगवान् के चरण कमलों में ला रखा। इधर उसकी
पुत्री पिता के प्राणों को निकलता देख हाथ हाथ कर रोने और पिता की देह को गोदी में ले दुखित हो विलाप करने लगी। हाथ पिता। हाथ पिता! हे कृपासिंधो। पुत्री को आनन्द देने वाले! मेरे को किसकी गोदी में बैठाके विष्णुपुर को गए। बिन पिता मुझे कौन रखेगा, न मेरे भाई है, न कोई कुटुम्ब का और मेरी तपस्विनी माता भी नहीं है। कौन मेरे भोजन- कपड़ों की चिन्ता करेगा ? वेदध्वनि से शून्य तुम्हारे आश्रम में अब मैं कैसे रहूँगी। बिन विवाह करे ही आप कहाँ चले गए? हे तात् ! हे तपोनिधे। चुप क्यों रहगये हो ? उठो उठो, अब तो बहुत ही सोये।

ऐसा बारम्बार विलाप करती हुई महादुःखित हो रोने लगी। वहाँ उस वन में रहने वाले ब्राह्मण उसका रोना सुन हाहाकार मचाते वहाँ आ पहुँचे और पुत्री की गो में मरे हुए मुनि को देख वन के रहने वाले अन्य सब मुि भी रोने लगे। फिर पुत्री की गोद से मुर्दे को उठाक श्मशान में अन्त्येष्टि की। कन्या को समझाकर वे स अपने-अपने स्थान को चले गये। अब कन्या धै धारण कर यथा-शक्ति भजन करती हुई उस तपो में रहने लगी।

 

 

 

 

नवाँ अध्याय

दुर्वासा Rishi के हितकारी वचन

श्रीनारायण बोले-वहाँ उस पुत्री को अपने पिता का स्मरण और बारम्बार सोच करते हुए कितने ही साल बीत गये। यूथ से पिछड़ी हुई मृगी के समान शून्य घर में बैठी, नेत्रों से आँसुओं को ढलकाती, श्वांस- पर श्वांस रोके हुए, जैसे अत्यन्त दीन हो, वह किसी तरह जीवन-यापन करती थी कि अनेक तीर्थों के जल से भीगी जटाओं से भूषित मुनि को आते देख कुमारी ने मुनि के चरणों में नमस्कार किया। फिर मुनि को आश्रम में ला अर्घ्य पाद्य, वनफलों और नाना प्रकार के पुष्पों से मुनि को आदर से पूजा और विनयपूर्वक बोली- हे महाभाग! हे अत्रिगोत्र के सूर्य! हे मुने! आपको नमस्कार है! मुझ दुर्भागिनी के आश्रम में आप सरीखे महात्माओं के तीर्थ रूपी चरण पधारे ! मैं धन्य हूँ जो चरणों की रज स्पर्श कर मेरा जन्म सफल हो गया। ऐसे कह वह उनके सम्मुख चुप बैठ गई। तब दुर्वासा मुनि कुछ हँसकर बोले-हेपुत्री ! तूने पितृकुल का उद्धार किया। यह मेधावी ऋषि के श्रेष्ठ तप का ही फल है। मैं कैलाश से तेरा धर्मशील जानने के लिए ही तेरे आश्रम में आया हूँ। यहाँ से मैं नारायण सनातन मुनि को देखने शीघ्र ही बदरिकाश्रम जा रहा हूँ। बाला बोली- हे ऋषे! तुम्हारे दर्शन से ही मेरा शोक-समुद्र सूख गया। आप जैसे महापुरुष यहाँ आये, इससे अच्छा ही होगा। हे कृपासिन्धो! क्या मेरे विषय में आप नहीं जानते ? माता, पिता, भाई कोई भी मुझे दुःख- समुद्र से बचाने वाला नहीं है। मैं कैसे जीऊँ ? जिधर देखती हूँ, उधर ही मुझे सूना दिखता है। शीघ्र ही मेरे दुःख का उपाय करो । अब मैं मृत्यु चाहती हूँ, यही मेरा निश्चय है। ऐसा कह बाला रोती हुई आगे बैठी रही। दुर्वासा उसका उपाय विचार कर अत्यन्त कृपा से उस को देख हितकर वचन बोले-

दसवाँ अध्याय

ऋषि-कन्या द्वारा शिव-आराधना

हे सुन्दरी, सुन! गुप्त से भी गुप्त बात मैं कहता हूँ जो तेरे लिए सोची है। अब से तीसरा मास पुरुषोत्तम है। इसकी बराबर का कार्तिकादि मास भी नहीं है। सब मास, पक्ष और जो वर्ष है, वे पुरुषोत्तम मास की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं। हे बाले! श्रीकृष्ण के प्रिय पुरुषोत्तम मास में स्नान-दान जपादि करने से सब मनवांछित फल प्राप्त होते हैं। इसलिए, तू शीष ही पुरुषोत्तम भगवान की सेवा कर। एक समय में क्रोधित होकर अम्बरीष को भस्म करने के लिए कृत्या छोड़ी थी तब हरि भगवान् ने जलती हुई वहा कृत्या मु ही भस्म करने को लौटा दी। तब पुरुषोत्तम के व्रत ही यह चक्र वापिस चला गया। वह चक्र त्रिलोकी को भस्म कर सकता है परन्तु मेरा कुछ भी नहीं हुआ तो मुझे आश्चर्य हुआ। इससे तू भी श्रीकृष्ण प्रि पुरुषोत्तम को भज। मुनिराज मुनिकन्या से ऐसा का चुप हो गये।

दुर्वासा के वचन सुन होनहार के वश वह मूर्ख सती बाला मन में क्रोधकर मुनि श्रेष्ठ दुर्वासा से बोली- ब्रह्मन, आपका कथन मुझको अच्छा नहीं लगा। माघादिमास कैसे थोड़ा फल देने वाले और कार्तिक मास कैसे कम है, यह बताइये ! क्या वैशाख मास इच्छित फल नहीं देता? क्या सदाशिव मन-ज्ञान सेवन से फल नहीं देते ? पृथ्वी में सूर्य देवता और अम्बिकादेवी के प्रत्यक्ष दर्शन सेवन से क्या फल नहीं मिलता? गणेशजी की सेवा से क्या इच्छित फल नहीं मिलता ? व्यतीपातादि योग शिवादि देवताओं का कथन उल्लंघन करके बोलते हो, क्या आपको लज्जा नहीं आती?

मल मास तो सब कर्मों में निंदित है। हे मुने! सूर्य- संक्रान्ति रहित मालमास को श्रेष्ठ कैसे कहते हो? ऐसा ब्राह्मण-पुत्री ने क्रोधी दुर्वासा से कहा तो मुनि का शरीर क्रोध से जलने लगा, नेत्र लाल हो गये। तो भी उन्होंने मित्र की पुत्री को शाप नहीं दिया। सोचा, यह मूढ़ हीनबुद्धि हिताहित को नहीं जानती है। यह बिना पिता की दुःखरूप अग्नि से तपित मेरा अत्यन्त उग्रशाप कैसे सहेगी ?

यह सोच मन में आये हुए क्रोध को दूर करते हुए मुनि स्वस्थ हो उससे बोले – हे बाला, मित्र की कन्या होने के कारण मैं तुमसे कुपित नहीं, तुझे जो अच्छा लगे वही कर। किन्तु कुछ भविष्य की ओर इंगित कर कहता हूँ सुन- तूने जो अभी पुरुषोत्तम मास का निरादर किया है, उसका फल अगले जन्म में मिलेगा। मैं तो नर-नारायण के स्थान को जाता हूँ। तेरा कल्याण हो। जो शुभ-अशुभ होने वाला है, वह तो होगा ही, किसी से भी दूर नहीं हो सकता। ऐसा कह महाक्रोधी तपस्वी मुनि झट चले गये। उसी क्षण पुरुषोत्तम के अनादर से वह कन्या कांतिहीन हो गई। उसने विचार किया कि मैं तत्काल फलदाता पार्वती के पति देवेश शिवशंकर की आराधना करूँगी। मेधावी ऋषि की पुत्री मन में निश्चय कर अपने आश्रम में जा महा कठिन तप करने को तैयार हुई। सूतजी बोले- बाला प्रबल मुनि के वचन त्याग बहुत फल देने वाले विष्णु और सावित्री पति ब्रह्मा को छोड़, केवल शंकर जी की सेवा करने लगी।

ग्यारहवाँ अध्याय
ऋषि पुत्री को शिव का वरदान

उस कल्याणी ने पाँच मुख वाले सनातन शिव का चिंतन कर अति दारुण तप आरम्भ किया। वह बाला ग्रीष्म ऋतु के सूर्य में पंचाग्नि के मध्य बैठ दुष्कर तप करने लगी। हेमन्त शिशिर ऋतु में ठण्डे जल में बैठ करके तप करने लगी। वर्षा में बिना वस्त्र ओढ़े घास के बिछौने पर सोती हुई दुर्बल शरीर वाली वह कन्या दोनों संध्या और यज्ञ करने लगी। उसका ऐसा तप सुन इन्द्र बड़ा चिंतित हुआ । तप में लगी हुई ऋषि कन्या को हजार वर्ष बीत गए। पार्वतीपति शंकर इसके तप से प्रसन्न हुए, तब उसे अपने अगोचर रूप का दर्शन दिया। इस रूप को देख वह झट खड़ी हो गई। मानो देह में प्राण आ गये हों। वह तप से दुबली बाला अब हृष्ट-पुष्ट हुई। उसने विनम्र हो भगवान शंकर को नमस्कार करके मानसोपचार से पूज, भक्तियुक्त मन से वह जगन्नाथ शिव की स्तुति करने लगी- हे पार्वतीवल्लभ ! हे प्रभो, हे भूतेश, हे गौरीश, हे शम्भो, त्रिनेत्र वाले आपको नमस्कार है। हे पापहारी, आपको नमस्कार • है। इस प्रकार मेधावी ऋषि की तपस्विनी पुत्री मन और वाणी से शिव-स्तुति कर शांत हो गई।

महाउग्र तप से युक्त उसकी स्तुति सुन प्रसन्न मुख सदाशिव बोले- ते तपस्विनी ! हे महाभागे ! तेरा कल्याण हो। तू मन इच्छित वर माँग, ऐसे वचन सुनकर वह ऋषि – कन्या बोली- हे दयासिन्धु मुझे कुछ और नहीं चाहिए। मुझे पति दीजिए, मुझे पति दीजिए। इस प्रकार वह पाँच बार कहकर चुप हो गई। तब महादेव जी बोले- हे मुनिकन्ये! तूने जो माँगा, वही मिलेगा। तूने पाँच बार पति माँगा है, सो तेरे पाँच पति होंगे जो शूरवीर, धर्मवीर, जितेन्द्रिय और पराक्रमी होंगे। अनीति के ये शब्द सुनकर वह कन्या बोली- हे सदाशिव ! संसार में एक स्त्री का एक ही पति होता है। आपने यह क्या कह दिया ? कहीं भी पाँच पतिवाली स्त्री न देखी, न सुनी। हे प्रभो, ऐसा वरदान देने में क्या आपको लज्जा नहीं होगी ? तब शिवजी बोले- इस

जन्म में नहीं, अगले जन्म में होंगे। पति का सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होंगी। दुर्वासा मेरी ही प्रतिमूर्ति हैं, जिनका तूने अपमान किया और फिर पुरुषोत्तम मास के महत्व को न मानकर उसका भी तिरस्कार किया, इसी से तू दुःख पाती है। पुरुषोत्तम मास की महिमा जानकर जो उसका सेवन करते हैं, उसको पूज्य समझते हैं, वे समस्त सुख, पुत्र, पौत्रादिक एवं समस्त सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। ऐसे लोक एवं देवताओं से पूजित पुरुषोत्तम मास के विषय में तूने अनादर के शब्दों का प्रयोग किया सो तूने उसका फल पाया। इतना कहकर महादेवजी अन्तर्ध्यान हो गये और वह ऋषि कन्या किसी झुण्ड से बिछुड़ी एक मृगी की भाँति चकित खड़ी रहगई। वहचिन्तातुर हो कुछ सोचती रही और फिर रोने लगी।

 

 

 

 

 

 

बारहवाँ अध्याय
पुरुषोत्तम व्रत का उपदेश

श्रीकृष्ण भगवान् बोले- शंकर भगवान् के चले जाने के बाद वह मुनि कन्या म्लान मुख, उदास हो श्वास- निःश्वास छोड़ती रही और सजल आँखों से
देखती रही। इसी तरह से कुछ समय तक दुःखी रहकर अन्त में काल का ग्रास बन गई। उसी समय धर्मप्रिय राजा द्रुपद ने एक उत्तम यज्ञ किया था। तब उस यज्ञ कुण्ड से स्वर्णिम कांतिवाली एक कन्या की उत्पत्ति हुई जो बाद में द्रोपदी के नाम से विख्यात हुई। इसी द्रोपदी को स्वयंवर में अर्जुन ने मछली की आँख में तीर का बेधन करके भीष्म, कर्णादि अन्य राजाओं का मान- मर्दन करते हुए प्राप्त किया। हे नारद, इसी द्रोपदी को पिछले जन्म में पुरुषोत्तम का अनादर करने के पाप से दुःशासन द्वारा बालों से पकड़ा गया और उसके वस्त्रों को खींचा गया। तब उसने मुझे पुकारा। मैंने तत्काल ही उसकी सहायता की और उसकी साड़ी को इतना बढ़ाया कि दुःशासन उसे खींचता खींचता थक गया और अन्त में अचेत होकर गिर पड़ा।

श्रीकृष्ण बोले- हे राजन् ! यह पुरुषोत्तम मास सुर- मुनि सभी को मान्य है और मनोवांछित फल देने वाला है। इससे तुम आने वाले पुरुषोत्तम मास में उसके माहात्म्य को जानकर उसकी आराधना करना। चौदह वर्ष पूर्ण होने पर तुम सभी का कल्याण होगा। मैं द्रौपदी के केशों को खिंचते देखकर खुश होने वालों की स्त्रियों के बालों को उखाड़कर अपने क्रोध को शांत करूंगा करूँगा और इन दुर्योधनादिक कौरववंशी है, इसकी सहायता करने वालों को यम के लोक पहुँचाकर तुम्हें शत्रुओं को नाश करने वाला विख्याने करूँगा। अब मुझे तो तुम सब लोग द्वारिका जाने यहाँ मुझे सब लोग याद करते हैं।

 

इस तरह श्रीकृष्ण जी के कहने पर पांडु-पुत्रों में गदगद होकर कहा-आप हमारे जीवन हो। हे जनार्दन आप शीघ्र ही फिर दर्शन दीजिएगा। आप पर हमारी रक्षा का भार है। आप हमें भूल मत जाना।

पांडुपुत्रों ने ऐसा कहकर उन्हें रथ में बैठाया और उसे द्वारिकापुरी की ओर जाते हुए देखते रहे। तब हे नारद, वि पांडवों ने पुरुषोत्तम मास में श्रीहरि में मन लगाकर के उसका सेवन करने का निश्चय किया। श्री भगवान् के वि वचनों का स्मरण कर पुरुषोत्तम मास आने पर द्रोपदी म पांडवों से बोली आपने पुरुषोत्तम मास का माहात्म्स ऐ भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से स्वयं सुना है; अतः र पुरुषोत्तम को बिना पूजे सुखी कैसे रहोगे ? तब व पांडुपुत्रों ने भी समस्त तीर्थों में घूमते हुए और पुरुषोत्तम मास आने पर विधि सहित व्रत आदि किये। उन्होंने पुरुषोत्तम की कृपा से युद्ध में विजय प्राप्त कर राज्य प्राप्त किया। पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य अनन्त है, इसको कहने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। इसे भगवान् श्री हरि ही जानते हैं।

 

 

 

तेरहवाँ अध्याय
राजा दृढधन्वा की कथा

सूतजी कहने लगे- हे ऋषियो ! अब मैं दृढधन्वा की प्राचीन कथा तुमसे कहता हूँ । हैह्य देश के चित्रधन्वा का पुत्र महा तेजस्वी, सब गुणों से युक्त सत्य बोलने वाला, धार्मिक दृढधन्वा नाम से विख्यात हुआ है। वह दृढधन्वा चारों वेदों और उनके अंगों को पढ़कर, विधिपूर्वक गुरुजी की पूजा कर, दक्षिणा देकर पिता के नगर को गया । अब राजा चित्रधन्वा अपने मन में विचार करने लगा कि स्त्री, घर, पुत्रादि छोड़कर मुझको भी वन में जाकर हरि का भजन करना चाहिए। ऐसा मन में विचार कर समर्थ राजा दृढधन्वा को सब राजपाट सौंपकर विरक्त होकर पुलह ऋषि के आश्रम को चला गया। वहाँ जाकर तप करने लगा। कितने ही काल तक तप करके चित्रधन्वा हरि के धाम को चला गया।

दृढधन्वा ने जब अपने पिता की मृत्यु को सुना तब अपने पिता की सभी दैहिक क्रिया कीं और फिर राज्य
करने लगा। राजा दृढधन्वा की गुणसुन्दरी नाम के स्त्री थी, उसके चार पुत्र हुए और चारुमति नाम का एक हुए। कन्या उत्पन्न हुई। उसके पुत्र चित्रवाक्, चित्रवाह मणिमान और चित्र- कुण्डल नामों से विख्यात

एक समय सोते समय उस राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा यह सब वैभव किस पुण्य के प्रभाव से हुआ? न मैंने कोई तप किया, न दान दिया न कुछ हवन किया। राजा के इसी विचार करने में सारी रात्रि व्यतीत हो गई। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर यथ विधि स्नानादि करके, उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्य तथ ब्राह्मणों को दानादि देकर वह राजा घोड़े पर चढ़क शिकार के लिए वन में गया। वहाँ उसने शिकार किया तो उसके बाण से घायल होकर एक मृग दूसरे वन में भाग गया।

घायल मृग के शरीर से गिरते हुए रुधिर के निशानों से राजा दृढधन्वा भी उसके पीछे-पीछे गया, पर थोड़ी देर में मृग राजा की निगाह से ओझल होकर कहीं छिप गया। राजा ने प्यास से व्याकुल होकर फिरते-फिरते, सागर के समान एक सरोवर को देखा। वहाँ पर जाकर पानी पिया। वहीं उसने अत्यन्त घनी छाया वाला बट का वृक्ष देखा। उसकी जटा में घोड़े को बाँधकर

राजा वहाँ पर बैठ गया। वहाँ पर मनुष्यों की वाणी बोलता हुआ एक तोता आया। राजा को अकेले बैठा हुआ देखकर वहशुक बार-बार एक ही श्लोक बोलता रहा – “तू पृथ्वी पर सुखों को देखकर सार वस्तु को नहीं विचारता, तो कैसे पार पहुँचेगा ?” ऐसे उसके इन रहस्यपूर्ण वचनों को सुनकर राजा को यही सोच हुआ कि बारम्बार यह शुक ऐसे वचन क्यों कहता है? क्या यह शुकदेव जी हैं जो मुझ मूढ़ को संसार सागर में डूबे हुए देखकर, मुझको श्रीकृष्ण का भक्त समझकर मुझ पर कृपा करके उद्धार करने को आये हैं। वह इसी विचार में था कि पीछे से उसकी सेना आ गई। वहतोता तो राजा को उपदेश देकर अन्तर्ध्यान हो गया और राजा अपने नगर में शुक के वाक्यों को स्मरण करता जा पहुँचा। महल में जाकर एकान्त में बैठ गया। उसने भोजन छोड़ दिया और अब वह निद्रा रहित ही पड़ रहता। किसी से tबोले नहीं। रानी ने आकर उसे प्रे सहित कहा- उठो, उदास क्यों बैठे हो ? किन्तु राजा बोला। स्त्री का प्रेम-निवेदन ठुकराकर राजा बहु समय ऐसे ही चिंतित और दुःखी रहने लगा।

वह अथाह जल में जा पहुँचा तथा दुर्भाग्यवश अपने मित्रों को छलने के लिए श्वास रोक कर अथाह जल में डूब गया। यह देख सभी बालक हाहाकार कर दौड़े और गौतमी को जाकर यह शोक भरा समाचार सुनाया।

• गौतमी मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ी। इतने में वन में सुदेव आ गये। पुत्र की मृत्यु सुन कटे वृक्ष की भाँति व पृथ्वी पर गिर पड़े। दोनों स्त्री-पुरुष उस बावड़ी पर गये। वहाँ मृत सुत को आलिंगन कर विलाप करते- करते सुदेव बोला- “हे बेटा! मेरा सोच दूर करने वाली शीतल मनोहर बात कर। तू वृद्ध माता-पिता को छोड़ असमय जाने योग्य नहीं। इस समय कैसे सो रहा है? मैं तेरे बिना घर नहीं जाऊँगा। मैंने कोई कुकर्म नहीं किया, फिर किस कर्म फल से मेरा पुत्र मर गया ?” ऐसा कह बेटे का आलिंगन कर दुःखित मन से फिर बोला – ” हे सुत! एक बार फिर बोल सुना, देख तेरी माता लज्जा छोड़ अत्यन्त विलाप कर रही है। हे नाथ! हे गोविंद! हे विष्णो! हे यदुनाथ! पुत्र वियोग की अग्नि के ताप से मेरी रक्षा करो। मुझसा मूर्ख दूसरा नहीं, क्योंकि मैंने श्रीकृष्ण भगवान के वचन उल्लंघन कर पुत्र की कामना की। भला, नष्ट होने वाले को प्राप्त करने की इच्छा कौन करेगा ?

 

चौदहवाँ अध्याय

बाल्मीकि मुनि का उपदेश

श्री नारायण बोले-राजा इसी प्रकार चिन्ता ग्रस्त रहता था कि एक समय बाल्मीकि ऋषि उसके यहाँ आये। राजा ने भक्ति सहित उनके चरणों में नमस्कार किया। तब बाल्मीकि ऋषि राजा को शान्त देखकर कहने लगे-“हे राजन्! तेरे मन में जो कुछ भी चिन्ता हो, वह तुम बिना संकोच कहो ?” दृढधन्वा ने कहा- महाराज! आपके चरणों की कृपा से सब सुख है, परन्तु हे ब्रह्मन्! एक बड़ा भारी संदेह मेरे मन में है, सो उस वन के तोते के मुख से लगे शूल को आप दूर करिए।’

बाल्मीकि ऋषि राजा के यह वचन सुन बोले-हे राजन्! पूर्व जन्म में तुम द्रविड़ देश में ब्राह्मण के घर में ताम्रपर्णी नदी के किनारे उत्पन्न हुए थे। सुदेव तुम्हारा नाम था। तुम धार्मिक, सत्यवादी, जितना मिले उतने ही में सन्तुष्ट रहने वाले थे। तुम्हारी स्त्री उत्तम गुणों वाली गौतम ऋषि की पुत्री गौतमी नाम से विख्यात थी। गृहस्थाश्रम के धर्म में चलने वाले सुदेव को कितना ही काल व्यतीत हो गया, परन्तु उसके

सन्तति नहीं हुई। एक दिन ब्राह्मण कहने लगा-“हे सुन्दरी! संसार में पुत्र से परे कोई सुख नहीं, क्योंकि तप और दान से उत्पन्न पुत्र परलोक में सुख देते हैं। शुद्ध वंश में उत्पन्न हुई संतति, इस लोक और परलोक में सुख देती है। मैं कोई सन्तान प्राप्त न कर सका। मेरा न जीना ही वृथा है। इसलिए मेरी मृत्यु शीघ्र ही हो जाय तो अच्छा है।’ “

अपने पति के वचनों को सुनकर उस सुन्दरी के मन में अत्यन्त दुःख हुआ और बोली- हे प्राणेश्वर ! ऐसे तुच्छ वाक्य मत कहो। तुम्हारे जैसे वैष्णव शूरवीर कभी निराश नहीं होते। पुत्र की इच्छा है तो हरि जगन्नाथ की आराधना करो।” यह ब्राह्मणश्रेष्ठ अपनी धर्मपत्नी के ऐसे वचन सुनकर, निश्चय के साथ ताम्रपर्णी नदी के किनारे चला गया। वहाँ जाकर पुण्य तीर्थ में स्नान कर महा भयंकर तप करने लगा। हे राजन्! सुदेव का महा उग्र तप देखकर वेगवान गरुड़ पर चढ़कर भक्त वत्सल श्री भगवान प्रकट हुए। उन मुरारी के आनन्दित मुख को देखकर, बड़े हर्ष के साथ, सुदेव ब्राह्मण ने भगवान् श्री मुकुन्द को साष्टांग नमस्कार किया।

पन्द्रहवाँ अध्याय

सुदेव ब्राह्मण को वरदान की प्राप्ति

बाल्मीकि ऋषि कहने लगे-इस प्रकार विष्णु की स्तुति कर ब्राह्मण हरि के आगे बैठ गया। तब भगवान् ऐसी स्तुति सुन, बोले- ‘हे वत्स! तुमने बड़ा घोर तप किया है, इसीलिए जो इच्छा हो, वह वर माँगो। सुदेव बोला- हे नाथ! जो आप प्रसन्न हुए हैं तो मुझको एक श्रेष्ठ पुत्र दीजिये।” इस प्रकार ब्राह्मण के वचन सुनकर श्री भगवान् बोले- “हे वत्स ! पुत्र का सुख विधाता ने तेरे भाग्य में नहीं लिखा। मैंने तेरे भालपट्ट के सब अक्षर देखे हैं, परन्तु उनमें सात जन्मों में भी तुझे बेटे का सुख नहीं है।” भगवान् के निष्ठुर वचनों को सुनकर, जड़ से कटे हुए वृक्ष की तरह वह ब्राह्मण पृथ्वी पर गिर पड़ा। गौतमी अपने पति को इस प्रकार पड़े हुए देखकर अत्यन्त दुःखी हुई और स्वामी को पुत्र के सुख से रहित देखकर रोने लगी। फिर वह स्त्री धैर्य धारण कर, अपने पड़े हुए पति से इस प्रकार बोली- हे नाथ! धीरज धारण कीजिए, उठो जो विधाता ने ललाट में लिख दिया है, वह अवश्य ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार उस स्त्री के तीव्र शोक से युक्त वचन सुनकर गरुड़ जी विष्णु भगवान् से कहने लगे-” हे हरे! आप इस शोक सागर में डूबी हुई ब्राह्मणी के गिरते हुए आँसुओं और व्याकुल ब्राह्मण को देखिए। हे दीनबन्धो! आपकी भक्तों के दुःखों को न सहने वाली दया कहाँ गई? आप में करने न करने की सब सामर्थ्य है। मेरी प्रार्थना है-इसको पुत्र दो।” तब भगवान् बोले- “हे गरुड़! इस ब्राह्मण को एक मनोगत पुत्र शीघ्र दूँगा।” इस प्रकार हरि के अनुकूल वचन सुनकर, गरुड़ जी प्रसन्न हुए।

सोलहवाँ अध्याय
सुदेव को पुत्र की प्राप्ति

श्रीहरि द्वारा वर देने के पश्चात् गरुड़ जी सुदेव ब्राह्मण से बोले – हे द्विज श्रेष्ठ! तुम्हें श्रीहरि ने पुत्र देने का वर मेरी प्रार्थना पर दिया है। तेरे सात जन्म तक पुत्र का सुख नहीं है, यह भगवान् ने मुझे कहा फिर भी ऐसा वर तुझे मिला, तू धन्य है क्योंकि तेरी बुद्धि श्री हरि भगवान् में लगी। मानव-शरीर जल के बुदबुदे की भाँति क्षणभंगुर है। इसलिए जो पुरुष हरि-चरणों का हृदय में चिन्तन करते हैं, वे धन्य हैं। मन में श्री हरि का ध्यान कर अब तुम संसार के सुखों को भोगों।’
हरि भगवान् अत्युत्तम वर दे गरुड़ पर चढ़ तत्काल अपने स्थान को गये। कुछ काल बीतने पर गौतम गर्भवती हुई। प्रसूति काल होने पर गौतमी के गर्भ उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ। सुदेव ने श्रेष्ठ ब्राह्मण बुला के जात-कर्म किया तथा स्नान कर याचकों को बहुत दान दिया।

शरद पूनों के चन्द्रमा के समान कान्तिवाला तथा शुकदेव जी के समान तेजस्वी बालक का नाम शुकदेव रखा गया। पिता ने पुत्र को यज्ञोपवीत दे गायत्री मन्त्र दिया। वह वैदिक संस्कार को प्राप्त हो ब्रह्मचारी बनकर शुक्रकुमार वेद पढ़ने को गया। वह श्रेष्ठ बुद्धि से गुरु को प्रसन्न एवं आनन्दित कर एक बार कहने से ही सब विद्या पढ़गया। एक बार जब वहाँ देवल मुनि आये तो उनको देख सुदेव ने हर्ष से नमस्कार दण्डवत् किया और विधि से अर्घ्यं पाद्यादि से पूजन कर उन्हें आसन पर बिठाया। चरणों में पड़े हुए कुमार को देख देवल मुनि बोले-अरे सुदेव! तुझसे हरि भगवान प्रसन्न हुए, इससे तू धन्य है। तुझे यहदुर्लभ श्रेष्ठ सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। ऐसा पुत्र विनम्र, बुद्धिमान्, वाग्मी, वेदाध्ययन करने वाला कहीं भी किसी के यहाँ नहीं देखा। मुनि आश्चर्य युक्त हो उत्कंठित ब्राह्मण से बोले- हे सुदेव, तेरा यह पुत्र गुणों एवं सौभाग्य का
पुरुषोत्तम मास कथा 41 सागर है। किन्तु इसमें एक ही महादोष है जिससे सब वृथा है। हे सुदेव! यह पुत्र 11 वें वर्ष में जल में डूबकर मरेगा। तू इसका मन में सोचन करना क्योंकि होने वाला तो अवश्य होगा ही। देवल मुनि तो ऐसा कहके ब्रह्मलोक को गये और सुदेव शर्मा मुनि के वचन स्मरण करते हुए बहुत देर तक दुःखी रहे। फिर गौतमी धीरज धर पुत्र को गोदी में ले, प्रेम से मुख चूम पति से बोली- हेद्विजराज ! होने वाली वस्तु में भय नहीं करना चाहिए। होने वाला है सो तो होगा ही। अतः हे नाथ! उठो, तुम शरणागत होकर जीवों के रक्षक निर्वाण पद देने वाले सनातन हरि को भजो। तब अपनी स्त्री के ऐसे वचन सुन हृदय में हरि के चरणकमल का ध्यान कर सुत से उत्पन्न दुःख से वह तत्काल छूट गया।

सत्रहवाँ अध्याय

शुकदेव का जल में डूबना

दृढधन्वा ने आश्चर्ययुक्त हो आगे की कथा इस प्रकार सुनी-एक बार सुदेव तो समिधा व कुछ फल लेने को वन में गया और उधर शुकदेव मित्रों सहित बावड़ी पर गया और उसमें घुस उनके साथ जल में क्रीड़ा करने लगा। बालकों में बड़े प्रेम से खेलते-खेलते अथाह जल में जा पहुंचा तथा दुर्भाग्यवश अपने मित्रों को छलने के लिए श्वास रोक कर अथाह जल में डूब गया। यह देख सभी बालक हाहाकार कर दौड़े और गौतमी को जाकर यह शोक भरा समाचार सुनाया।

गौतमी मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ी। इतने में वन में सुदेव आ गये। पुत्र की मृत्यु सुन कटे वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। दोनों स्त्री-पुरुष उस बावड़ी पर गये। वहाँ मृत सुत को आलिंगन कर विलाप करते- करते सुदेव बोला- “हे बेटा! मेरा सोच दूर करने वाली शीतल मनोहर बात कर। तू वृद्ध माता-पिता को छोड़ असमय जाने योग्य नहीं। इस समय कैसे सो रहा है? मैं तेरे बिना घर नहीं जाऊँगा। मैंने कोई कुकर्म नहीं किया, फिर किस कर्म फल से मेरा पुत्र मर गया?’ ऐसा कह बेटे का आलिंगन कर दुःखित मन से फिर बोला- “हे सुत! एक बार फिर बोल सुना, देख तेरी माता लज्जा छोड़ अत्यन्त विलाप कर रही है। हे नाथ! हे गोविंद! हे विष्णो! हे यदुनाथ! पुत्र वियोग की अग्नि के ताप से मेरी रक्षा करो। मुझसा मूर्ख दूसरा नहीं, क्योंकि मैंने श्रीकृष्ण भगवान के वचन उल्लंघन कर पुत्र की कामना की। भला, नष्ट होने वाले को प्राप्त करने की इच्छा कौन करेगा ?

 

 

 

अठारहवाँ अध्याय

धनामक मुनि की कथा

नारदजी बोले -“हे तपोनिधे! फिर दृढधन्वा राजा से बाल्मीकिजी ने आगे क्या कहा, वह सुनाइये।’ बाल्मीकि बोले- “उस ब्राह्मण के ऐसे विलाप से दसों दिशाओं से गर्जता हुआ अकाल मेघ आया। उसके साथ पर्वतों को कंपकंपाने वाली तीक्ष्ण स्पर्श वाली वायु चली, अत्यन्त जोर से बिजली चमकी। वह मेघ सब दिशाओं में फैल गया और महीने तक वर्षता रहा। सब पृथ्वी पर पानी भर गया, किन्तु पुत्र शोक की अग्नि से तपित ब्राह्मण को कुछ भी पता नहीं चला। वह अन्न-जल छोड़ ‘पुत्र-पुत्र’ कहते विलाप करता रहा।”

उन दिनों श्रीकृष्ण भगवान् का प्रिय पुरुषोत्तम मास था। अनजाने पुरुषोत्तम की सेवा हुई, इससे अत्यन्त प्रसन्न हो नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण, वनमाला धारी, श्रीकृष्ण भगवान् प्रगट हुए तो मेघ बन्द हो गया। ब्राह्मण ने श्रीकृष्ण भगवान् पुरुषोत्तम का दर्शन किया। शीघ्र ही पुत्र को पृथ्वी पर डाल स्त्री सहित श्रीकृष्ण भगवान् को नमस्कार दण्डवत् कर हाथ जोड़

 

वह उनके सम्मुख बैठ गया। अमृत वर्षिणी मधुर वाणी में भगवान् बोले- हे सुदेव शर्मा! तुम धन्य और सौभाग्यशाली हुए । सुनो, तुम्हारा भविष्य मैं कहता हूँ। इस पुत्र की आयु 12 हजार वर्ष की होगी । यह तुम्हें निस्संदेह सुख देने वाला होगा। अब मैं तुमसे एक प्राचीन इतिहास जो मार्कण्डेय मुनि ने राजा रघु को सुनाया था – वह कहता हूँ।’

पहले धनु नाम के मुनीश्वर लोगों को पुत्र रूप मनोव्यथा से जलते हुए देख महा दुखित हुए। तब उनने अमर पुत्र की इच्छा कर महा घोर तप किया। देवता प्रसन्न हो उनसे बोले -“हम सब तेरे महाकठिन तप से प्रसन्न हैं, तेरा कल्याण हो, जो तेरे मन में इच्छा ही माँग । “मुनिवर ने बुद्धिशाली पुत्र माँगा। तब देवताओं ने मुनि से कहा- “मुनिश्वर ऐसा तो पृथ्वी पर आज तक नहीं हुआ। मुनि बोले- “अच्छा, किसी के निमित्त से आयु हो। “देवता बोले- “निमित्त क्या ?” यह सुन मुनि बोले- ” तो यह महापर्वत जब तक रहे 44 तब तक की आयु हो।” “तथास्तु’ कह इन्द्र सहित देवता चले गये।

धनु शर्मा मुनि के थोड़े समय में ही बुद्धिशाली पुत्र आ। जब 16वां वर्ष हुआ तो मुनीश्वर ने उससे कहा- “हे वत्स! तुम कभी मुनियों का आदर न करना । ” ऐसा उपदेश पाकर वह मुनियों का अनादर करने लगा। एक समय एक अत्यन्त क्रोधी महर्षि शालिग्राम का पूजन कर रहे थे। तब उसने शालिग्राम को उठाकर हँसते हुए कुए में डाल दिया। रुद्र की भाँति क्रोध कर महर्षि ने उस पुत्र को शाप दिया कि यह अभी मर जाये। किन्तु, उसे जीवित देख मन में विचारते हुए कि धनु शर्मा के इस पुत्र को देवताओं ने निमित्तायु किया है, तत्काल एक तीव्र श्वास छोड़ा । उस श्वास से सहस्रों भैंसे उत्पन्न हुए। उन्होंने उस पर्वत के टक्कर मार-मार के खण्ड कर दिये और मुनि का पुत्र मर गया। धनु शर्मा ब्राह्मण ने बार-बार अनेक प्रकार से विलाप कर मृत पुत्र को उठाया और पुत्र दुःख से अत्यन्त पीड़ित हो चिता बना अग्नि में प्रवेश किया इसी प्रकार के मनुष्य हठ से प्राप्त पुत्र से किसी प्रका सुख नहीं पाते । किन्तु, पुरुषोत्तम के माहात्म्य से प्रसन हो मैंने तेरा पुत्र चिरंजीवी किया । सदा पुत्र सहि गृहस्थाश्रम को भोग अगले जन्म में तू चक्रवर्ती राज होगा। हाथी, घोड़े, फौज सहित दृढधन्वा नाम विख्यात होगा। तुम्हारी अर्द्धांगिनी गौतमी रानी होगी तेरे चार पुत्र और एक कन्या होगी। जब तू अज्ञान . माया से मोहित हो विषयों में फंस कर मुझे भूल जायेग तो तुम्हारा पुत्र वन में तोता वन वट के वृक्ष के ऊपर बैठ कर तुमको बोध करावेगा।”

वह बारम्बार वैराग्य उत्पन्न करने वाला पद्य पढ़ेगा। तब तू तोते का वाक्य सुन दुखित मन हो घर आवेगा और चिंता के समुद्र में डूब अन्न-जल छोड़ देगा। तत्पश्चात् बाल्मीकि मुनि तुझे बोध करायेंगे तो संशद रहित होके पूर्व स्वरूप त्याग हरि के पद को स्त्री सहित प्राप्त होगा । “महाविष्णु के ऐसा चाहते ही ब्राह्मण का पुत्र उठ बैठा। दोनों स्त्री-पुरुष पुत्र को देख आनन्दित हुए। शुकदेव ने भी उन माता-पिता और श्रीहरि को नमस्कार किया। तब ब्राह्मण गद्गद् हो बोला- हेहरे ! मैंने जब निरन्तर महाकठिन तप किया, वहाँ तो आपने मुझसे कठोर वचन कहे कि तेरे भाग्य में पुत्र नहीं है। अब उस वाक्य के उल्लंघन करने और मरे हुए पुत्र को उठाने का कारण कहिये।

उन्नीसवाँ अध्याय
पुरुषोत्तम व्रत की महानता

श्री नारायण बोले-हे द्विजराज! आपने जो कुछ किया, उसे कोई नहीं कर सकता और मेरी प्रसन्नता का कारण क्या आप अभी नहीं समझे ? इस पुरुषोत्तम मास में जो मनुष्य उपवास करेगा, वह अनेक पापों का नाश कर बैकुण्ठ को प्राप्त होगा, किन्तु तू महीने भर निराहार रहा और बिना समय मेघ बरसने से नित्य तीनों काल तेरा स्नान हुआ। हे तपोधन! ये पुरुषोत्तम मास पृथ्वी पर पूजने से ही फलदायी होता है। अतः सब भाँति मेरा प्रिय पुरुषोत्तम मास सेवन करना शुभ होगा। जो सेवेगा, वह भाग्यवान होगा, मुझे प्रिय होगा।” ऐसा कह जगदीश्वर हरि तत्काल गरुड़ पर चढ़ पवित्र बैकुण्ठ स्थान को गये।

स्त्री सहित सुदेव पुरुषोत्तम से सेवन से जीवित हुए। शुकदेव को देख रात्रि-दिन अत्यन्त प्रसन्न रहने लगे। इस प्रकार आश्चर्ययुक्त शुकदेव भी इस मास को अच्छी तरह से पूजता रहा। पुत्र को देख वह ब्राह्मण सपत्नीक हर्षित होता था और वह पुत्र भी सत्कार से पिता को आनन्दित करता था। इस प्रकार बाल्मीकि जी यशस्वी दृढधन्वा को राजा का पूर्व जन्म का चरित्र कहकर जाने लगे तब बाल्मीकि मुनि को महाराज दृढधन्वा ने नमस्कार किया और पुनः आगे पूछा – ” मुने! इस पुरुषोत्तम में मुमुक्षु पुरुषों को कैसे और किसकी पूजा करनी चाहिये। यह लोक हितार्थ विधि-विधान मुझसे कहो। “

बीसवाँ अध्याय

पुरुषोत्तम व्रत का निधान

नारदजी बोले – दृढधन्वा ने बाल्मीकि जी से पूछा कि पुरुषोत्तम मास में किसकी और कैसे पूजा करनी चाहिए। आपने इस मास में दानादि का बड़ा माहात्म्य बताया है। पूर्व जन्म में सुदेव ब्राह्मण के रूप में मरा पुत्र जीवित हो गया तो मैंने पुरुषोत्तम मास का सविधि पूजन किया किन्तु इस जन्म में सब विधान मैं भूल गया हूँ तो आप मुझे बतायें।

तब बाल्मीकि मुनि बोले- ‘पुरुषोत्तम मास के प्रारंभ होते ही जिन नियमों का पालन करना चाहिए, उन्हें मैं बताता हूँ। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर परब्रह्म का चिंतन करे तथा शौचादि कर्म करे। यदि किसी तीर्थ- स्थान में रहता हो तो तीर्थ के जल में हाथ-पाँवों की शुद्धि करे। उससे अलग हटकर बाहर जल लेकर शुद्धि करे। दाँतुन आदि कर मुख की शुद्धि करे। आचमन कर भली भाँति स्नान करके और फिर देवताओं को स्नान कराये। पुरुष स्वच्छ दो वस्त्रों को धारण करे, शिखा बाँधे, गोपी चन्दन का तिलक करे । शंख-चक्रादि का गोपी चन्दन से धारण करना उत्तम प्राणायाम कर संध्या-वन्दन करे और सूर्य के दर्शन तक गायत्री जप करे और खड़े होकर सूर्य-मंत्रों से सूर्य को अंजलि दे। इस प्रकार नित्यकर्म कर श्रीहरि का पूजन आरम्भ करे। व्रती पुरुष शुद्ध हो वाणी को नियम से कर गोबर से लिपी हुई अथवा स्वच्छ धुली हुई भूमि पर चावलों से आठ दल वाला कमल बनाए और उस पर कलश की स्थापना करे। उस कलश में जल भरकर समस्त तीर्थों का आह्वान करे और मंत्रों से गंध, अक्षत, नैवेद्य और पुष्पों से पूजा कर कलश पर पीले वस्त्र से लपेटा हुआ ताम्रपत्र रखकर उस पर श्री राधा- -कृष्ण को भक्तियुक्त हो प्रतिष्ठित करे। पुरुषोत्तम मास के देवता पुरुषोत्तम ही हैं। इस मास में थोड़े द्रव्य से महान धर्म होता है। अतः स्नान दान, हरि- स्मरण, कथा-श्रवण करने से ही यह श्रेष्ठ धर्म पूर्ण हो जाता है। पुरुषोत्तम माहात्म्य की पुस्तक का भक्ति से पठन-पाठन एवं प्रचार-हित वितरण करना चाहिए। सामर्थ्यवान तथा समृद्धिशाली वैष्णवजन तो भक्तिपूर्वक पुरुषोत्तम मास को सेवन करने के हित धार्मिक ग्रन्थों का विशेष रूप से श्रीमद्भागवत् पुराण तथा श्री रामचरितमानस का पाठ कराते हैं और वैष्णव आचार्यों से जनहितार्थ अखंड पाठ का आयोजन कराते हैं। इस प्रकार आदिदेव पुरुषोत्तम की प्रसन्नता
हेतु अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराने चाहिए।

इक्कीसवाँ अध्याय

पूजन-विधि

बाल्मीकिजी ने आगे बताया कि पुरुषोत्तम की पूजा हेतु धातु की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाये तो उन्हें अग्नि द्वारा शुद्ध करके तथा उनकी प्राण-प्रतिष्ठा कराके ही पूजा जाना चाहिए। प्रतिमा चाहे धातु की हो। या प्रस्तर की, उनमें देवत्व लाने के लिए ‘तद्विष्णोः’ पुरुषोत्तम बीज मंत्र का उच्चारण तथा स्वाहा के साथ मंत्रों से समस्त अगों में प्राण-प्रतिष्ठा की जानी चाहिए। और भगवान् श्री पुरुषोत्तम का ध्यान कर मनोहर छवि वाले राधिका सहित श्रीकृष्ण का षोडस् उपचारों से पूजन करना चाहिए। उनको नमस्कार कर आवाहन- समर्पण करने हेतु उनको वेदी पर प्रतिष्ठित करना, उन्हें अर्घ्य देना, आचमन कराना तथा पंचामृत से स्नान करने के लिये भगवान् से निवेदन करना चाहिए। षोडसोपचार में नाना प्रकार के मिष्ठान्, फल आदि अर्पण करते हुए उनसे कामना करें कि मुझे जन्म-जन्म में श्रेष्ठ फलों की प्राप्ति हो। देवताओं के स्वामी राधा-कृष्ण का नीराजन, प्रदक्षिणा और नमस्कार कर मंत्र पुष्पांजलि देनी चाहिए। विश्वपति ‘गोविन्द को नमस्कार है, कहकर नमस्कार करें। फिर मंत्रहीन, क्रियाहीन मंत्र’ से पुरुषोत्तम प्रभु से क्षमा माँगकर मंत्र के अन्त में स्वाहा’ लगाकर तिलों से हवन करें। महीने भर अखंड दीपक जलायें। पुरुषोत्तम मास में यदि ये कार्य स्वयं न कर सकें तो वैष्णव आचार्य को बुलाकर समस्त कार्य विधि-विधान से सम्पन्न कराने चाहिए। जन-साधारण स्त्री-पुरुष इस जटिल पूजा आदि में त्रुटियाँ रह जाने के भय से यह सब न कर सकें तो उन्हें चाहिए कि पुरुषोत्तम मास में श्री राधाकृष्ण की प्रतिमा अथवा सुन्दर चित्र का पवित्र मन से नित्य पूजन अवश्य किया करें।

बाईसवाँ अध्याय

आहार-विहार के नियम
राजा ने पूछा- हे तपोधन पुरुषोत्तम मास के व्रती को क्या भोजन करना और क्या नहीं करना चाहिए। बाल्मीकिजी ने कहा- हे राजन् ! इस मास में पवित्रता से हविष्य अन्न का भोजन करना चाहिए। गेहूँ, चावल, मूँग, जौ, तिल, मटर, साँवा तथा बथुआ आदि ऋतु के शाक, कन्दमूल, सैंधा नमक, अदरख, दही, घी,
आम, ककड़ी, केला ले सकता है। व्रत करने वाले को समस्त आमिष पदार्थ, मांस-मछली, प्याज, लहसुन, बैंगन, मूली, छत्रक, गोभी, शहद, बेर, राजमा आदि दालें, मादक पदार्थ तेल, गुड़ तथा बुरे कर्मों से दूषित अन्न-पदार्थों के साथ ही पराया अन्न, बासी भोजन, गौ, बकरी, भैंस के अतिरिक्त सब दूध त्याग देने चाहिए। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, भूमि पर सोना, रजस्वला स्त्री, बुरे स्वभाव एवं बुरे कर्म करने वालों-यहाँ तक कि संस्कारहीन ब्राह्मण से भी न बोलें, दूर ही रहें। शक्ति हो तो निराहार व्रत करें, चतुर्थ प्रहर में पत्तल पर भोजन करें, केवल फलाहार करें तो स अच्छा है ।

प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर भगवान् दु श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए नित्य कर्मों को करें। स्नानादि से स्वच्छ पवित्र हो पुरुषोत्तम मास की भक्ति- प पूर्वककथा पढ़ें- सुनें। सामर्थ्यवान हो तो श्रीमद्भागवत् का पाठ करायें, परम पवित्र कथाओं का श्रवण करे, शालिग्राम का पूजन करें, संध्याकाल में दीपदान करे। इस प्रकार जो भक्तजन पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम प्रभु की सेवा में रहते हैं, उनकी हर विघ्न से इन्द्रादिक देवता रक्षा करते हैं। इस पुरुषोत्तम में भक्तिपूर्वक पूजा-पाठ का फल शेषनाग भी कहने में समर्थ नहीं।

तेईसवाँ अध्याय

दीपदान का माहाल्य एवं फल

पुरुषोत्तम मास में आहार-विहार के बारे में सुनकर प्रसन्न होते हुए राजा बोले-‘आपने इस मास में दीपदान करने को कहा है, सो इसका क्या माहात्म्य है ?”

बाल्मीकि जी बोले- ‘राजन्! इस विषय में तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ। एक ऐसे राजा से सम्बन्धित है जो पूर्वजन्म में मणिग्रीव नामक दुष्चरित्र शूद्र था। इसने किस प्रकार उग्रदेव नामक भटके हुए दुःखी ब्राह्मण की सेवा की जिसने उसके इस नारकीय जीवन से उद्धार के लिये पुरुषोत्तम मास में नित्य स्नान एवं दीपदान करने का बतलाया। तुम अब कथा सुनो जिसे मैं संक्षेप में कहता हूँ-

सौभाग्यनगर में चित्रबाहु नामक राजा महाबुद्धिमान, शूरवीर, क्षमाशील एवं धर्मों को जानने वाला और भगवान् का भक्त था। वह भक्तिपूर्वक भक्तिभाव से भगवान् की कथाओं को श्रवण करता था। उसकी पतिव्रता चन्द्रकला नामक रानी अति स्वरूपवान और भक्तिप्रिय थी। वह महाभाग्यवान भगवत् भक्ति में तत्पर रहती थी। राजा भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य देवता को नहीं जानता था। एक दिन उसने मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जी को अपने यहाँ आता देखा तो वह है दंडवत् नमस्कार कर उनकी आदरभाव एवं भक्तिपूर्वक पूजा कर उन्हें योग्य आसन पर विराजमान किया और उनके सामने बैठकर विनयपूर्वक बोला- आज मेरा जन्म, मेरा गृह, मेरा यह राज्य धन्य हुआ। आपके दर्शन अ से मैं पापों से छूट गया। अगस्त्य मुनि बोले- “राजा ज चित्रबाहु! वास्तव में तू सब प्रकार से धन्य है। तू हरि- पू भक्त और भगवान् श्रीकृष्ण का आश्रित है। विद्वान् दु कहते हैं कि वो ही राजा धन्य है जो वैष्णव जनों का क आदर-पूजन करता है। ऐसे ही राज्य में ही रहना प्रजा र को सब प्रकार से हितकर है। ऐसे राजा की प्रजा सुखी अ रहती है और ऐसे ही राजा का राज्य वृद्धि को प्राप्त व करता है। तुम्हारे जैसे राजा के दर्शन कर मेरी दृष्टि भी वि सफल हुई और आपके साथ वार्त्तालाप से मेरी वाणी भी पवित्र हुई है। इसी बीच राजा की पतिव्रता रानी ने त आकर परम भक्तिपूर्वक मुनि अगस्त्य को प्रणाम अ किया। मुनि ने कहा- हे शुभे ! तू सदा सौभाग्यवती घ हो, भक्तिपूर्वक पति की सेवा कर भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति में यत्नपूर्वक लगी रहकर अपने जीवन को सफल कर।

 

राजा के मन में मुनि से कुछ पूछने का विचार आयाj

पुरुषोत्तम मास कथा / 55- हो बोला- “मुनेन्द्र, यह अकंटक राज्य और पतिव्रता स्त्री की प्राप्ति मुझे किन सुकर्मों से हुई, आप मुझे • धताऐं।” अगस्त्य जी ने उसके पूर्वजन्म के चरित्र को विचार कर कहा- “राजन्! तुम चमत्कारपुर में मणि-

ग्रीव नामक शूद्र थे। नास्तिक, दुश्चरित्र, परस्त्रीगमन् और उनको हरण करके लाने वाले बुरे विचारों से युक्त जीवन बिताते थे। यह जो आज तुम्हारी स्त्री है सो यही पूर्वजन्म में मन, वाणी और कर्मों से तेरी सेवा में दुष्प्रभाव न रखते हुए सदा साथ रहती थी। ऐसे निन्दित कर्मों के कारण तुझे बन्धु-बान्धवों ने त्याग दिया। राज्य ने भी तेरा धन छीनकर तुझे तिरस्कृत किया। तू अपनी स्त्री के साथ निर्जन वन में रहकर पशुओं का वध करके पेट भरता था। ऐसे ही समय बीत रहा था कि एक दिन उग्रदेव नामक ब्राह्मण उस निर्जन वन में भटक कर भूख-प्यास के कारण अचेत हो गिर पड़े। तू उन्हें धरती पर पड़ा देख अपने स्थान पर ले आया और तब तुम स्त्री- पुरुष उनकी बयार करने लगे। दो घड़ी पश्चात् उस ब्राह्मण को चेत हुआ तो आश्चर्य चकित हो बोला- मैं यहाँ कैसे आया? मुझे कौन लाया? तब मणिग्रीव ने उनसे कहा- ‘हे ब्रह्मण! पहले आप तालाब में स्नानादि कर फलाहार व जलपान करें। आप भगवद् भक्त सेवा करने के योग्य हैं।
उग्रदेव को प्यास लग ही रही थी। जल का नाम सुनते ही उठ बैठे। तब तुमने उन्हें सहारा देकर तालाब के किनारे ले जाकर उन्हें स्नानादि कराया। बड़ की छाया में ले जाकर बिठाया; जहाँ उन्होंने भगवान् की पूजा की। तुम्हारी पत्नी आम के फल तथा कन्दादि ले आई और सामने रख दिये। तब तुमसे ब्राह्मण ने कहा- मैं नहीं जानता तुम कौन हो ? ब्राह्मण अनजान का कुछ नहीं खाया करते। ” तब तुमने अपना परिचय दिया। ब्राह्मण ने फलाहार कर जल पीया। तब तुमने उनके चरणों को दबाते हुए पूछा- हेदेव ! आपको इस निर्जन वन में कहाँ जाना है? ब्राह्मण बोले- “मैं प्रयाग जाना चाहता हूँ। अनजाने में इस भयंकर वन में आ गया, जहाँ मैं प्यास और थकान से मरणासन्न हो गया। तुमने मुझको सेवा करके जीवनदान दिया। अब तुम्हीं बताओ, तुम्हें मैं क्या दूँ?” स्त्री के सामने उग्रदेव ब्राह्मण के ऐसे मधुर  वचनों को सुनकर तुमने अपने इस जीवन से तरने के लिये कोई उपाय जानना चाहा।

 

 

 

चौबीसवाँ अध्याय

मणिग्रीव के पापों का नाश

तुमने अपने जीवन के समस्त दुष्कर्मों को याद करते। हुए, उन ब्रह्मदेव के सन्मुख अपने कर्मों पर पश्चाताप ।
किया। चोरी, हिंसा, मद्य सेवन, परस्त्री गमन आदि। द्वारा अपने जीवन में पापों का जो संग्रह किया था, उसको उनके सामने स्वीकार करते हुए तुमने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा- “हे ब्राह्मण! आपने हमारे जीवन को अनायास ही आकर धन्य किया है। अब आप हमारे ऊपर यह कृपा करें जिससे हम इन दुष्कर्मों को त्याग कर सुखी रहसकें। “ऐसा कहकर जब तुमने उनसे अपने आगे के जीवन के लिये उपदेश देने की प्रार्थना की। तब उग्रदेव बोले- “हे महाभाग ! अब तेरा कल्याण ही होगा। तूने अपने दुष्कमार्ग पर जो पश्चात्ताप किया है, उससे बिना किसी व्रत-दान किये ही तेरे दारिद्रय का नाश होगा। देख! आगे पुरुषोत्तम मास आ रहा है, तुमसे और कोई व्रत-पूजा भले ही न हो, तुम दोनों इस वन में रहकर ही इस तालाब में नित्य स्नान कर नित्य दीपक जलाना। यहाँ घृत और तिल के तेल का अभाव है अतः इंगुदी के तेल से ही दीपक जलाया करना । पुरुषोत्तम मास में दीप दान धन-धान्य की वृद्धि करता है, बाँझ को सन्तान, स्त्रियों को सौभाग्य, विद्यार्थियों को विद्या और मोक्ष की • इच्छा वाला मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार कहकर ब्राह्मण जब श्रीकृष्ण हरि का स्मरण करते हुए आगे चले तो तुम दोनों स्त्री-पुरुष उनको उस निर्जन वन में बहुत दूर तक पहुँचा कर प्रसन्न मन वापिस लौटे। तुमने समस्त दुष्कर्मों को त्याग दिया और पुरुषोत्तम मास आने पर उग्रदेव द्वारा बताये अनुसार पूरे मास स्नान कर इंगुदी के तेल से दीपदान और उपवास किया। बाल्मीकि जी बोले -“पुरुषोत्तम मास में घी या तिल के तेल का अखण्ड दीपक जलाने और व्रत उपवास करने के फल की बावत क्या कहा जाये!” राजन्, तुम दोनों ने इसी पुरुषोत्तम मास के व्रत के प्रभाव से इस ऐश्वर्यपूर्ण जीवन को पाया है।

 

 

 

पच्चीसवाँ अध्याय

उद्यापन विधि

दृढधन्वा बोला- आपसे यह समस्त ज्ञान प्राप्त कर

मैं धन्य हुआ। जब हम व्रत करने योग्य न रहें तो इस

व्रत के उद्यापन की विधि भी बताइए। बाल्मीकि जी

बोले-उद्यापन करने हेतु इस मास में कृष्णपक्ष की

अष्टमी, नवमी तथा चतुर्दशी की तिथियों को उद्यापन

करना निश्चित करना चाहिए। उद्यापन का यह कार्य

किसी सदाचारी वैष्णव आचार्य के द्वारा सम्पन्न

कराने से इस व्रत के सफल होने

नहीं रहेगा। का तात्पर्य इसके उपरान्त सम्बन्धित व्रत के नियमादि का त्याग करना है। सामर्थ्यानुसार जितनी सामग्री सुलभ हो सके, उससे विष्णु-भक्ति में लगे। तीस ब्राह्मणों को स्त्री सहित निमंत्रण देते हैं। इतनी । शक्ति-सामर्थ्य न होने पर पाँच या सात ब्राह्मण भी। किये जा सकते हैं। आचार्य सर्वतोभद्र चक्र बनाकर इस मंडल पर चार कलशों की स्थापना करे, कलशों को वस्त्रों से लपेट कर नारियल और उस पर श्री राधा-कृष्ण, हलधर, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध की मूर्तियों की स्थापना करायें। चारों ओर चार अखंड दीप जलाकर रखें और क्रम से नारियल आदि से अर्घ्य दान करें। ब्राह्मण-ब्राह्मणियों को शंकर-पार्वती का रूप मानकर उन स्त्री-पुरुषों को वस्त्र, जूते की जोड़ी, काँसे के बर्तन में तीस-तीस मालपुए रखकर तीस संपुट दें । ढाई प्रस्थ का काँसा को सम्पुट कहा गया है। निर्धन व्यक्ति यह सब यथाशक्ति करें। पुरुषोत्तम देव को नमस्कार करें। नाम मंत्रों से ‘स्वाहा’ लगाकर तिलों से हवन और तर्पण-मार्जन करें। आरती कर नीराजन मंत्र कहें। अपने अन्तःकरण में ज्योतिस्वरूप सिंहासन पर विराजमान श्रीराधाकृष्ण को नमस्कार करें, पुष्पांजलि और साष्टांग दण्डवत् करें! आचार्य की प्रसन्नता हेतु दक्षिणा और दानादि दें। अपनी शक्तिअनुसार सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करायें, दक्षिण दें। ‘मंत्रहीनं, क्रियाहीनं’ मंत्र से प्रभु से क्षमा माँगका भगवान् को नमस्कार करें। ब्राह्मणों को द्वार तक पहुँचाकर कार्य का विसर्जन करें। ‘यस्य स्मृत्या’ मंत्र से भगवान् जनार्दन को नमस्कार कर सुखपूर्वक अपने कामों में लग जायें। सबको समान भाव से प्रसाद आदि वितरण करें। अपने कुटुम्बीजनों के साथ भोजन करें। अन्त में सपत्नीक पुरुषोत्तम देव को नमस्कार करें। पूर्णिमा के दिन रात्रि जागरण, कथा- कीर्तन अत्यन्त भक्ति-भाव से करना चाहिए।

छब्बीसवाँ अध्याय
व्रत के त्याग की विधि

ऋषि बाल्मीकि ने इसके उपरान्त राजा दृढधन्वा को विधिपूर्वक ग्रहण किये गये इस नियम को विसर्जन करने की विधि बताई। उन्होंने कहा कि जिसने केवल रात्रि में भोजन का नियम लिया हो, उसे अमावस्या को दक्षिणा सहित गौदान, फलाहार करने वाला फलों का दान, भोजन छोड़ने वाला गेहूँ, चावल और पृथ्वी पर शयन करने वाला व्रती बिस्तर सहित शैय्या का दान करे। दीपदान करने पर अन्न सहित दीपक और छाता, आदि का दान करें। ऋषि बोले- “हरिभक्त इस मास में उड़द न खाये ।

कम से कम शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष की द्वादशी को भक्ति पूर्वक व्रत करके एक बार भोजन करे तो वह स्वर्ग की प्राप्ति करता है। कल्याण चाहने वाला इस व्रत को करके आनन्द पूर्वक जीवन बिताता है क्योंकि यह पापनाशक व्रत है । इस ‘पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य’ को प्रतिदिन पूरा अथवा अंश- अंश करके पड़े तो उसका मन हरिभक्ति से प्रकाशित होगा और तब वह उत्तम लोक की प्राप्ति कर सकेगा।

सत्ताईसवाँ अध्याय

राजा दृढधन्वा की तपस्या करना

पुरुषोत्तम व्रत की महिमा को जानकर राजा ने बाल्मीकि मुनि को नमस्कार कर भक्ति और आनन्द- युक्त होकर स्त्री सहित उनका पूजन किया। मुनि ने पूजा को अंगीकार कर आशीर्वाद देते हुए कहा है राजन् ! तेरा कल्याण हो। यहाँ से अब मैं पापनाशिनी सरयू को प्रस्थान कर रहा हूँ।’ राजा उन्हें अपने राज्य की सीमा तक पहुँचाकर घर लौटे। राजा अपनी रान से बोला- “रानी ! इस रागद्वेषादि छः शत्रुओं
इस नश्वर संसार में मनुष्यों को क्या सुख है? अब भी पुरुषोत्तम प्रभु का स्मरण करने वन को जाना चाहता हूँ। तब पतिव्रता रानी ने कहा- “मैं भी आपके साथ चलूँगी। स्त्री का पति ही देवता है। पति के चलें जाने के बाद पुत्र-पुत्रवधु के आधीन रहना तो पराये घर में कुतिया की भाँति रहने जैसा होता है। “तब राजा ने उसका वचन मान उसे भी चलने की स्वीकृति दे दी। राजा समस्त मुनि आचार्य तथा परिवारियों के मध्य अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके वन को चला गया। वह हिमालय के निकट नित्य स्नान करता और भगवान् की पूजा आदि में समय बिताने लगा। पुरुषोत्तम मास आने पर निराहार रहकर श्रीकृष्ण नाम को जपता। पतिव्रता रानी भी सेवा में तत्पर रहती थी। पुरुषोत्तम मास व्रत पूर्ण होने पर वह हरि गणों के द्वारा विमान में बैठाकर गोलोक को ले जाया गया।

नारायण ने नारद से कहा कि मैं इस व्रत का क्या माहात्म्य बतलाऊँ। भूल से अनजाने में यदि तीन रात्रि बन्दर द्वारा यहस्नान करने से उसके पापों के समूह को नाश कर देता है तो पूर्ण मास के स्नान व्रत से क्या नहीं प्राप्त होगा ? तब नारद जी आश्चर्य करते बोले -“ओह! हे तपोनिधि मुझे यह सब बताओ कि वह कौन बन्दर
था? अनजाने में उसने यह व्रत – स्नान कैसे किया ? ॥ श्री नारायण बोले- “वह पूर्वजन्म में एक कंजूस के चित्रशर्मा नाम का ब्राह्मण था । उसने जीवन में कभी न श्रेष्ठ अन्न वस्त्रादि भी न भोगे थे और न पुत्रादि का भी भली प्रकार पालन किया। उसने कभी भी कोई 7 दान अपने कंजूसपन के कारण नहीं किया। लोग उसे 1 कदर्य नाम से पुकारने लगे। वह बार-बार यही कहता व था कि मुझ गरीब के पास क्या है जो दानादि दूँ । उसका 4 एक माली मित्र था। वह उससे कहता कि घर के सब लोग उसका तिरस्कार करते हैं। यह सुनकर माली ने न उसे एक दिन अपने पास रख लिया। वहू वहाँ आनन्द से रहने लगा। माली ने उस पर विश्वास कर उसे अपने बाग की देख-रेख सौंप दी। माली को राजमन्दिर की नौकरी मिलने पर वह उस बाग को उस पर छोड़कर चला गया। अब तो वह बगीचे का मालिक ही बन बैठा ! आनन्द से खूब फल खाता और फलों को बेचता रहता। इस प्रकार से प्राप्त धन को जमीन में गाड़ता रहता । माली के पूछने पर असत्य कहता कि बगीचे के फल पक्षी खा जाते हैं जिन्हें मैं मारता रहता हूँ। और वह बगीचे में बिखरे पंखों को दिखा देता। एक दिन वह मूढ़ मर गया तो उसके शुभ-अशुभ कर्मों को चित्रगुप्त ने देखकर बताया तो धर्मराज ने उसको बन्द योनि में रखने का आदेश दिया।

 

 

 

अट्ठाईसवाँ अध्याय
बन्दर योनि के बाद नरक की पीड़ा

नारायण ने कहा- हे नारद! उसे चित्रगुप्त की आज्ञा से ताड़ना दी जाने लगी। पहले वह फलरहित वन में प्रेत बनाया जो भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल घूमता रहता। फिर फलों की चोरी के पाप के फलस्वरूप उसे बन्दर की योनि मिली। किन्तु, इस बन्दर को एक सुन्दर मृगतीर्थ में जन्म मिला जो पापों को नाश करने वाला था। नारद ने पूछा-“ऐसे पापियों को पवित्र तीर्थ कैसे मिल गया ? ” तब नारायण ने कहा- “चित्रकुंडल नामक एक वैश्य ने मास के अन्तिम दिन आने पर भक्तिपूर्वक उद्यापन किया था। उसके यहाँ यह कंजूस कदर्य भी जा पहुँचा और ब्राह्मणों को दक्षिणा आदि से सन्तुष्ट करने वाले वैश्य के सामने रोता- गिड़गिड़ाता धन माँगने लगा। वैश्य ने उसे भी कुछ धन दिया। तब वह गद्गद् वाणी से उस वैश्य चित्रकुण्डल की प्रशंसा करने लगा-“वैश्यपति, तेरी पूजा को देख मैं चकित हूँ। तुमने निस्सन्देह बहुत
भारी कर्म किया है। अहो! तुम धन्य हो जो पुरुषोत्तम की इस प्रकार पूजा कर पुण्य के भागी बने। “

इस प्रकार वैश्य से वह कंजूस धन लेकर चला जिसे उसने धरती में गाड़ दिया। हे नारद! इस समारोह के दर्शन और स्तुति करने से ही उसे यहमृगतीर्थ प्राप्त हुआ जो सुन्दर सरोवर मीठे फलों से युक्त तथा पुष्पों से परिपूर्ण एक वन प्रदेश था। किन्तु तुम जानते हो कि जहाँ जीव जाता है, वहीं उसके कर्म भी साथ जाते हैं । क्योंकि बिना भोगे कर्मों का नाश नहीं है, ऐसा वेदों की आज्ञा है । सो, वह बन्दर वहाँ की पवित्र भूमि को प्राप्त हुआ किन्तु, उसके मुख में फोड़ा होने से वह फल आदि खा नहीं पाता था। फोड़े की पीड़ा से व्याकुल वह भूखा बन्दर फलों को खाने में असमर्थ होने से क्रोध में उनको तोड़-तोड़ कर फेंक देता था। भूखा होने से जर्ज शरीर वाला वह खड़ा भी नहीं हो पाता था ।

इस प्रकार वह पापों का मारा दुःख पाता था वि पुरुषोत्तम मास आ गया। एक बार कृष्ण पक्ष अन्धकार के कारण एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर कूद हुआ वह सरोवर में गिर गया। निराहारी दुर्बल बन दसमी से चार दिन तक उस कुण्ड में लुढ़कता रहा अ पाँचवें दिन उसने प्राण त्यागे। अब उसका शरीर रहित हो गया था। सो, विष्णु दूत विमान लेकर आए और उसे विमान में चढ़ा ले जाने लगे तो वह महाभार बन्दर उनसे पूछने लगा कि मुझ पापी को यहसुख कैसे मिल रहा है? उसने हरि के पार्षद से आश्चर्य चकित हो इस बात का रहस्य पूछा।

 

 

 

उन्तीसवाँ अध्याय

विष्णु पार्षद द्वारा बन्दर के पुण्य कार्यों का वर्णन

विष्णु पार्षद सुशील कहने लगे- “तुमने पुरुषोत्तम का जो सामीप्य प्राप्त किया है और मुख रोग के कारण वानर योनि में निराहार रहने से अनजाने यह व्रत oभी तुमसे हो गया। तुम जो अपने वानर स्वभाव से फल तोड़-तोड़ कर फेंकते रहें, उन्हें अन्य-अन्य पुरुष खाकर तृप्त हुए और स्वयं तुमने खाना तो दूर पानी तक नहीं पिया। इससे तुम्हारा पुरुषोत्तम मास का तप पूर्ण हुआ। तुमने अभी पुरुषोत्तम मास का प्रभाव नहीं जाना है? यह महापवित्र मास विष्णु भगवान को प्रिय है। तुमने वे फल दूसरों को खिलाकर परोपकार भी किया, स्वयं सरोवर में निराहार पाँच दिन तक गोते लगाए। इससे तुम्हें पुरुषोत्तम व्रत और स्नान का फल मिला है। यह सुनकर वह कदर्य आश्चर्य में पड़ गया।
वृक्षों को तथा सरोवर को के समस्त लता- वन स्वस्कार कर विमान में बैठकर गोलोक पहुँचा तो वहाँ समस्त देव चकित रह गये। “

यह सब सुनकर नारद जी बोले- “हे तपोधन, आपने व्रत के अन्य-अन्य कर्मों को नहीं बताया कृपा करके वे भी बताएं। नारायण बोले-“व्रती को बाहिए कि वह मध्याह्न पश्चात् संध्या-तर्पण करके अन्न-फलादि ग्रहण करे। फिर पंचमहायज्ञ, भूतवलि, काक बलि स्नानादि करके श्रद्धा-विधिपूर्वक आचमन करे। गायत्री मंत्र का जाप, सायंकाल और प्रातः काल बलिवैश्य देव कर्म करे।” नारदजी बोले – “हे भगवान्! ये सब कर्म तो बहुत कठिन हैं। आप साधारण जनों और गृहस्थ जनों के लिये सरल कर्मों को बताएँ जिससे वे थोड़े में ही इस व्रत की पूर्ति कर सकें। ” श्री नारायण बोले-“वहसेवकों सहित अल्प भोजन करे, अतिथि की सेवा और भिक्षुकों को भिक्षा शक्ति-सामर्थ्यानुसार करे। हाथ-पाँव धोकर शैय्या पर जाये। घर में पूर्व की ओर यदि परदेश हो तो पश्चिम की ओर सिर करके सोये। उत्तर की ओर सिर ‘करके कभी न सोए। सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया रखना, बिना दिये किसी की कोई वस्तु न लेना,
माँस का सेवन न करना और परस्त्री भोग-विलास न करना! ये सभी मोक्षदायी हैं। सभ उत्तम प्राणियों को ये कार्य करने चाहिए?

 

 

 

तीसवाँ अध्याय

पतिव्रता के लिए नियम

नारदजी बोले – हेतपोनिधे! आपने पहले जो पतिव्रता स्त्री की महानता बताई और उसके भी व्रत-उपवास में साथ रहने की बात कही तो आप बताएँ कि पतिव्रता स्त्री के क्या लक्षण हैं और उसे किन नियमों का पालन करना चाहिए।

श्री नारायण जी बोले -“हे नारद! पतिव्रता नारी। मन, क्रम, वचन से अपने पति को निरन्तर सम्मान देती है। अहंकार तथा क्रोध को त्याग कर पति की सेवा कर उसे आनन्द देती है और स्वयं भी आनन्दित होती है। पतिव्रता स्त्री को अपना पति ही सब कुछ होता है। विवाह से पूर्व यदि उसका पति अन्धा, काना, लूला, लंगड़ा कैसा भी हो और उससे विवाह किसी दशा में हो जाये तो उसे वह किसी भी प्रकार त्यागती नहीं। विवाह उपरान्त यदि किसी दुर्घटना अथवा बीमारी से यदि पति अपाहिज हो जाये अथवा किसी प्रकार से आर्थिक रूप से तंगी में आ जाये तो श्री पतिव्रता स्त्री उसे त्यागती नहीं। उसकी समस्त विपदाओं में उसके साथ ही रहती है। पतिव्रता किसी श्री लोभ या आकर्षण में आकर अपने पति को नहीं त्यागती। मन में किसी दूसरे की इच्छा करना, उसके साथ हँसना-बोलना आदि उसे पसन्द नहीं होता और वह इन बातों से बचती रहती है। पति के साथ उसके व्यवहार में कटुता नहीं आती। उसको अपने पति के कार्यों में सहायक के रूप में पाते हैं। पतिव्रता स्त्री न कभी भी अपने पति से छिपाकर, उसकी आज्ञा के बिना किसी को भी यहाँ तक कि अपने भाई-बहिनो को भी धन नहीं देती है। पतिव्रता बुरे व्यक्तियों से, बु स्त्रियों से, बुरे कामों से सदा अपने को दूर ही रखतीहै। “पतिव्रता कभी भी अपने पति के अलावा किस व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करती। पति के कार्यों में बिन सोचे-समझे बाधा नहीं पहुँचाती। पति के बुलाने प तुरन्त पहुँच जाती है। अपने पति से ऊँचे स्वर में न बोलती और अपनी सहेलियों में, अपने माता-पि बन्धु बान्धवों से पति की बुराई नहीं करती। अ पति से द्वेष नहीं रखती। पति जब काम-काज से हार थक घर आए तो वह मधुर वाणी से बोले और उसके श्रम को हरने का प्रयत्न करें। पतिव्रता के लिये पति ही देवता, गुरु, तीर्थ, व्रत धर्म, सब कुछ वही होता है। ऐसी पतिव्रता उत्तम लक्षणों वाली स्त्री अपने पति के साथ स्वर्ग का आनन्द भोगती है। “

नारदजी ने पूछा-हे भगवान्! जो स्त्री अपने पतिव्रत स्वभाव से गिर जाती है, सो उसको क्या फल मिलते हैं। नारायण बोले-नारद, जिस स्त्री का श्र पातिव्रत्य नष्ट हो जाता है। उसका शील समाप्त होने ने से वह अपनी दुष्प्रकृति से पिता के और पति के दोनों च कुलों को बदनाम करती है, दोनों कुलों को अपयश प दिलाती है और अपना लोक-परलोक बिगाड़ कर अन्त में नरकगामी होती है। यदि प्रारब्धवश पति की अनुकूलता न मिले तो भी वहशील से रहे। श्रेष्ठ नियमों का पालन करे। नियम से रहने वाली विधवा स्त्री भी पतिव्रता कही जाती है। जो स्त्री पति की कामनाऐं प्रसन्नता से पूर्ण करती हैं तो वह भी सदा प्रसन्नता व आनन्द की अधिकारिणी बन जाती है। बुरे कर्मों में संलग्न रहकर पति का निरादर करने वाली तथा दिखावटी अर्थात् पतिव्रत का ढोंग करने वाली स्त्री आगामी जन्मों में कुतिया -सुअरी आदि अधम योनियों
को प्राप्त होती हैं।

 

 

 

इकत्तीसवाँ अध्याय
पुरुषोत्तम मास के व्रत की पूर्णता

नारदजी ने पूछा- “हे बद्रीपते! आपने व्रती काँसी का सम्पुट देने को कहा है, सो ऐसा क्यों श्रीनारायण बोले- हे नारद! किसी समय पार्वती ने यह व्रत किया था तब उन्होंने महादेवजी से यह जा चाहा कि ऐसी कौन-सी क्रिया आवश्यक हैजिससे पुरुषोत्तम व्रत पूर्ण होवे। तब महादेवजी ने बताया व्रत को पूरा करने के लिये ब्रह्माण्ड के आकार योग्य सम्पुट देना चाहिए। किन्तु, ऐसा सम्भव न से उसके एवज में काँसी का सम्पुट दिया जाये। इ लिये काँसी का थाल या परात लेकर उसमें मालपुए सात बार धागों से लपेटकर रखें और मन से उनका पूजन करें और ब्राह्मण को देवें। शक्ति-सामर्थ्य हो तो ऐसे तीस सम्पुट दिये चाहिए। पार्वती जी ने ऐसा ही किया और उत्तम ब्राह्मणों को दान देकर विधिपूर्वक अपना पुरु व्रत पूर्ण किया। श्रीनारायण के वचनों को सुनकर
नारदजी ने उन्हें बारम्बार प्रणाम कर कहा-मन इ पुरुषोत्तम मास का श्रेष्ठ माहात्म्य सुना। मुझे निश्चय हो गया है कि इसके भक्तिपूर्वक सविधि सम्पन्न करने और माहात्म्य को सुनने से मनुष्यों के महापाप तक नष्ट हो सकते हैं। जब किसी मनुष्य को अमृत मिल जाये तो वो और किस वस्तु की इच्छा करेगा ?

नैमिषारण्य में सूतजी द्वारा सहस्रों मुनियों के मध्य कहा हुआ यहपुरुषोत्तम मास का माहात्म्य अत्यन्त श्रेष्ठ पुण्य करि  प्राचीन है जो भक्तों को वांछित फल देने में कल्प वृक्ष के समान है। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य को पृथ्वी की प्रदक्षिणा का फल मिलता है। ब्राह्मण ब्रह्म तेज को प्राप्त करता है। क्षत्रिय पृथ्वी का अधिपति होता है, वैश्य धनपति हो जाते हैं और शूद्र को श्रेष्ठता को प्राप्ति होती है। भगवान् श्रीकृष्ण की यह कथा अमृत वाणी है, जिसे श्रवण कर नैमिषारण्य में एकत्र मुनीश्वरों ने अत्यन्त सुख प्राप्त किया।

॥ पुरुषोतम मास महात्म्य समाप्त  ॥

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