चतुरशीतितमोऽध्यायः नाना प्रकारके तीर्थोंकी महिमा | महाभारत दिवित्य भाग 84 अध्याय

पुलस्त्य उवाच

ततो गच्छेन्महाराज धर्मतीर्थमनुत्तमम् । यत्र धर्मो महाभागस्तप्तवानुत्तमं तपः ॥ १ ॥

पुलस्त्यजी कहते हैं-महाराज ! तदनन्तर परम उत्तम धर्मतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ महाभाग घर्मने उत्तम तपस्या की थी ॥ १ ॥

तेन तीर्थ कृतं पुण्यं स्वेन नाम्ना च विश्रुतम् । तत्र स्नात्वा नरो राजन् धर्मशीलः समाहितः ॥ २ ॥ आसप्तमं कुलं चैव पुनीते नात्र संशयः ।

राजन् ! उन्होंने ही अपने नामसे विख्यात पुण्य तीर्थकी स्थापना की है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य धर्मशील एक एकाग्रचित्त होता है और अपने कुलकी सातवीं पीढ़ी तकके लोगोंको पवित्र कर देता है। इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥

ततो गच्छेत राजेन्द्र ज्ञानपावनमुत्तमम् ॥ ३ अग्निष्टोममवाप्नोति मुनिलोकं च गच्छति ।

राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम ज्ञानपावन तीर्थ में जाय वहाँ जानेसे मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञका फल पाता और मुनिलोक जाता है ॥ ३३ ॥
सौगन्धिकवनं राजंस्ततो गच्छेत मानवः ॥ ४ ॥

राजन् ! तत्पश्चात् मानव सौगन्धिक वनमें जाय ॥ ४ ॥ तत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः । सिद्धचारणगन्धर्वाः किंनराश्च महोरगाः ॥ ५ ॥

वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, किन्नर और बड़े-बड़े नाग निवास करते हैं ॥ ५ ॥

तद् वनं प्रविशन्नेव सर्वपापैः प्रमुच्यते । ततश्चापि सरिच्छ्रेष्ठा नदीनामुत्तमा नदी ॥ ६ ॥ लक्षादेवी स्त्रता राजन् महापुण्या सरस्वती । तत्राभिषेक कुर्वीत वल्मीकान्निःसृते जले ॥ ७ ॥

उस वन में प्रवेश करते ही मानव सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उससे आगे सरिताओंमें श्रेष्ठ और नदियों में उत्तम नदी परम पुण्यमयी सरस्वतीदेवीका उद्गम स्थान है, जहाँ वे प्लक्ष (पकड़ी) नामक वृक्षकी जड़से टपक रही हैं। राजन् ! वहाँ बाँबीसे निकले हुए जलमें स्नान करना चाहिये ॥ अर्चयित्वा पितॄन् देवानश्वमेधफलं लभेत् । ईशानाध्युषितं नाम तत्र तीर्थ सुदुर्लभम् ॥ ८ ॥

 

 

वहाँ देवताओं तथा पितरोंकी पूजा करने से मनुष्यको अश्वमेघयशका फल मिलता है। वहीं ईशानाध्युषित नामक परम दुर्लभ तीर्थ है ॥ ८ ॥
षद्सु शम्यानिपातेषु वल्मीकादिति निश्चयः । कपिलानां सहस्रं च वाजिमेधं च विन्दति ॥ ९ ॥ तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र दृष्टमेतत् पुरातनैः ।

जहाँ बाँबी का जल है, वहाँसे इसकी दूरी छः शम्यानिपात है। यह निश्चित माप बताया गया है। नरश्रेष्ठ | उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र कपिलादान और अश्वमेघयज्ञका फल प्राप्त होता है; इसे प्राचीन ऋषियोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है।

सुगन्धां शतकुम्भां च पञ्चयक्षां च भारत ॥ १० ॥ अभिगम्य नरश्रेष्ठ स्वर्गलोके महीयते ।

भारत ! पुरुषरत्न ! सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पञ्चयज्ञा तीर्थमें जाकर मानव स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है ॥ १०३ ॥ त्रिशूलखातं तत्रैव तीर्थमासाद्य भारत ॥ ११ ॥ तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः । गाणपत्यं च लभते देहं त्यक्त्वा न संशयः ॥ १२ ॥

भरतकुलतिलक ! वहीं त्रिशूलखात नामक तीर्थ है; वहाँ जाकर स्नान करे और देवताओं तथा पितरोंकी पूजा में लग जाय । ऐसा करनेवाला मनुष्य देहत्यागके अनन्तर गणपति-पद प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है ।११-१२॥ ततो गच्छेत राजेन्द्र देव्याः स्थानं सुदुर्लभम् । शाकम्भरीति विख्याता त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ १३ ॥

राजेन्द्र ! वहाँसे परमदुर्लभ देवीस्थानकी यात्रा करे, वह देवी तीनों लोकोंमें शाकम्भरीके नामसे विख्यात है ॥१३॥ दिव्यं वर्षसहस्रं हि शाकेन किल सुव्रता | आहार सा कृतवती मासि मासि नराधिप ॥ १४ ॥ ऋषयोऽभ्यागतास्तत्र देव्या भक्त्या तपोधनाः । आतिथ्यं च कृतं तेषां शाकेन किल भारत ॥ १५ ॥

नरेश्वर ! कहते हैं उत्तम व्रतका पालन करनेवाली उस देवीने एक हजार दिव्य वर्षोतक एक-एक महीनेपर केवल शाकका आहार किया था। देवीकी भक्ति से प्रभावित होकर बहुत-से तपोधन महर्षि वहाँ आये। भारत ! उस देवीने उन महर्षियोंका आतिथ्य-सत्कार भी शाकके ही द्वारा किया ||

ततः शाकम्भरीत्येव नाम तस्याः प्रतिष्ठितम् । शाकम्भरीं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः ॥ १६ ॥

त्रिरात्रमुषितः शाकं भक्षयित्वा नरः शुचिः | शाकाहारस्य यत् किंचिद् वषैर्द्वादशभिः कृतम् ॥ १७ ॥ तत् फलं तस्य भवति देव्याश्छन्देन भारत ।

भारत ! तबसे उस देवीका ‘शाकम्भरी’ ही नाम प्रसिद्ध हो गया। शाकम्भरीके समीप जाकर मनुष्य ब्रह्मचर्यपालन पूर्वक एकाग्रचित्त और पवित्र हो वहाँ तीन राततक शाक खाकर रहे तो बारह वर्षोंतक शाकाहारी मनुष्यको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह उसे देवीकी इच्छासे ( तीन ही दिनों में) मिल जाता है ॥ १६-१७३॥

ततो गच्छेत् सुवर्णाख्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ १८ ॥ तत्र विष्णुः प्रसादार्थ रुद्रमाराधयत् पुरा । वरांश्च सुबहॅल्लेभे दैवतेषु सुदुर्लभान् ॥ १९ ॥

तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने रुद्रदेवकी प्रसन्नता के लिये उनकी आराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये ॥ १८-१९ ।।

उक्तश्च त्रिपुरध्नेन परितुष्टेन भारत । अपि च त्वं प्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यसि ॥ २० ॥ त्वन्मुखं च जगत् सर्व भविष्यति न संशयः । तत्राभिगम्य राजेन्द्र पूजयित्वा वृषध्वजम् ॥ २१ ॥ अश्वमेधमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति । धूमावतीं ततो गच्छेत् त्रिरात्रोपोषितो नरः ॥ २२ ॥ मनसा प्रार्थितान् कामॉल्लभते नात्र संशयः ।

भारत !उस समय संतुष्ट चित त्रिपुरारी शिव ने श्री विष्णु से कहा – ” श्री कृषण !तुम मुझे इस लोक में अत्यंत प्रिय होओगे | संसार में सर्वत्र तुम्हारी ही प्रधानता होगी , इसमें संशय नहीं हैं | ” राजेंदर  ! उस तीर्थ में जाकर भगवान शंकर की पूजा करने से मनुष्य अश्वमेघ यज्ञ

 

 विरात्रमुषितः शार्क अज्ञयित्वा नः शुचिः | शाकाहारस्य यत् किंचिद् वर्षेद्वादशभिः कृतम् ॥ १७ ॥ तत् फलं तस्य भवति देव्यादउन्दैन भारत ।

भारत ! तबसे उस देवीका ‘शाकम्मरी’ ही नाम प्रसिद हो गया। शाकम्भरीके समीप जाकर मनुष्य ब्रह्मचर्यपालन पूर्वक एकाग्रचित्त और पवित्र हो यहाँ तीन राततक शाक खाकर रहे तो बारह वर्षोंतक शाकाहारी मनुष्यको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह उसे देवीकी इच्छासे (तीन ही दिनों में)

मिल जाता है । १६-१७३॥ ततो गच्छेत् सुवर्णाण्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ १८ ॥ तत्र विष्णुः प्रसादार्थ रुद्रमाराधयत् पुरा ।

वरांश्च सुबहँल्हेमे दैवतेषु सुदुर्लमान ॥१९. ।। तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ पूर्यकालमें भगवान् विष्णुने रुद्रदेवकी प्रसन्नता के लिये उनकी आराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लन उत्तम वर प्राप्त किये ॥ १८-१९ ।।

उक्तख त्रिपुरध्नेन परितुटेन भारत । अपि च त्वं प्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यति ॥ २० ॥ त्वन्मुखं च जगत् सर्व भविष्यति न संशयः । तत्राभिगम्य राजेन्द्र पूजयित्वा वृषध्वजम् ॥ २१ ॥ अश्वमेघमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति । धूमावर्ती ततो गच्छेत् त्रिरात्रोपोषितो नरः ॥ २२ ॥ मनसा प्रार्थितान् कामल्लभते नात्र संशयः ।

भारत ! उस समय संतुष्टचित त्रिपुरारि शिवने श्रीविष्णुसे कहा- ‘श्रीकृष्ण ! तुम मुझे लोकमै अत्यन्त प्रिय होओगे। संसार में सर्वत्र तुम्हारी हो प्रधानता होगी। इसमें संशय नहीं है ।” राजेन्द्र ! उस तीर्थ में जाकर भगवान् शंकरको पूजा करनेसे मनुष्य अश्वमेधयशका फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है । वहाँसे मनुष्य धूमावतीतीर्थको जाय और तीन रात उपवास करे। इससे वह निःसदेह मनोवाञ्छित

कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । २०-२२३ ॥ देव्यास्तु दक्षिणार्धेन रथावर्तो नराधिप ॥ २३ ॥ तत्रारोहेत धर्मज्ञ श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ।

 

 

महादेवप्रसादाद्धि गच्छेत परमां गतिम् ॥ २४ ॥ रेश्वर! देवीसे दक्षिणार्ध भागमें स्थावर्त नामक तीर्थ है। धर्मज्ञ | जो श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय पुरुष उस तीर्थकी यात्रा करता है, वह महादेवजीके प्रसादसे परम गति प्राप्त कर

लेता है ॥ २३-२४ ॥

प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ । धारां नाम महाप्राशः सर्वपापप्रमोचनीम् ॥ २५ ॥

भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर महामाश पुरुष उस तीर्थकी परिक्रमा करके धाराकी यात्रा करे, जो सब पापसे छुड़ाने बाली है ॥ २५ ॥
तंत्रस्नात्यानरम्याम न शोचति नराधिप ।

नरख्याम 1 मराचिय | यहाँ स्नान करके मनुष्य कमी शोकमै नहीं पड़ता है ।। २५२ ।। तो गच्छेत धर्म नमस्कृत्य महागिरिम् ॥ २६ ॥ स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गाद्वारं न संशयः । तत्राभिषेकं कुर्वीत कोठितीर्थे समाहितः ॥ २७ ॥

धर्मश ! यहाँसे सहापर्यंत हिमालयको नमस्कार करके सुमादार ( हरिद्वार ) की यात्रा करे जो स्वर्गद्वारके समान है। इसमें संशय नहीं है। यहाँ एकाग्रचित्त हो कोटितीर्थमें स्नान करे ।। २६-२७ ॥

पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् । उष्येकां रजनीं तत्र गोसहस्रफलं लभेत् ॥ २८ ॥ ऐसा करनेवाला मनुष्य पुण्डरीका फल पाता और अपने कुलका उदार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहल गोदानका फल मिलता है ॥ २८ ॥ सप्तगझे त्रिगङ्गे च शकावर्ते च तर्पयन् ।

देवान् पितं श्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते ॥ २९ ॥

तदनन्तर कनखलमें स्नान करके तीन रात उपवाकरनेवाला मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकजाता है ॥ ३० ॥

कपिलावटं ततो गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप उपोष्य रजनीं तत्र गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ३१ ॥

नरेश्वर ! उसके बाद तीर्थसेवी मनुष्य कपिलवन्ट तीर्थम जाय। वहाँ रातभर उपवास करनेसे उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है ॥ ३१ ॥

नागराजस्य राजेन्द्र कपिलस्य महात्मनः । तीर्थ कुरुवरथेष्ठ सर्वलोकेषु विश्रुतम् ॥ ३२ ॥ राजेन्द्र ! कुरुश्रेष्ठ ! वही नागराज महात्मा कपिलका तीर्थ है, जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात है ॥ ३२ ॥ तत्राभिषेकं कुर्वीत नागतीर्थे नराधिप । कपिलानां सहस्रस्य फलं विन्दति मानवः ॥ ३३ ॥

महाराज ! वहाँ नागतीर्थ में स्नान करना चाहिये। इससे मनुष्यको सहल कपिलादानका फल प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ ततो ललितकं गच्छेच्छाम्तनोस्तीर्थमुत्तमम् । तत्र स्नात्वा नरो राजन् न दुर्गतिमवाप्नुयात् ॥ ३४ ॥

तत्पश्चात् शान्तनुके उत्तम तीर्थ ललितकमें जाय । राजन् ! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता ॥ ३४ ॥

गङ्गायमुनयोर्मध्ये स्नाति यः संगमे नरः । दशाश्वमेधानाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ३५ ॥

जो मनुष्य गङ्गा-यमुनाके बीच संगम (प्रयाग ) में स्नान करता है, उसे दस अश्वमेघ यज्ञका फल मिलता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है ॥ ३५ ॥

ततो गच्छेत राजेन्द्र सुगंधां लोकविश्रुताम् । सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३६ ॥

राजेन्द्र ! तदनन्तर लोकविख्यात सुगन्धातीर्थकी यात्रा करें। इससे सब पापसे विशुद्धचित्त हुआ मानव ब्रह्मलोकमें पूजित होता है ॥ ३६॥

रुद्रावर्ते ततो गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप । तत्र स्नात्वा नरो राजन् स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ २७ ॥

नरेश्वर ! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष रुद्रावर्ततीर्थ में जाय ।

राजन् ! वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है ॥ ३७॥

गङ्गायाश्च नरश्रेष्ठ सरस्वत्याश्च संगमे । स्नात्वाश्वमेधं प्राप्नोति स्वर्गलोकंच गच्छति ॥ ३८ ॥

नरश्रेष्ठ ! गङ्गा और सरस्वती के संगममें स्नान करने

मनुष्य अश्वमेधयशका फल पाता और स्वर्गलोक जाता है ॥ ३८ ॥
भद्रकर्णेश्वर गत्वा देवमर्च्य यथाविधि ।

न दुर्गतिमवाप्नोति नाकपृष्ठे च पूज्यते ॥ ३९ ॥

भगवान् भद्रकर्णेश्वरके समीप जाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और स्वर्ग लोकमें पूजित होता है ॥ ३९ ॥

ततः कुब्जाम्रकं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप । गोसहस्रमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ ४० ॥

नरेन्द्र ! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मानव कुब्जाम्रक तीर्थ में जाय। वहाँ उसे सहस्त्र  गोदानका फल मिलता है और अन्त में वह स्वर्गलोकको जाता है ॥ ४० ॥

अरुन्धतीवट गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप ।

सामुद्रकमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी समाहितः ॥ ४१ ॥ अश्वमेधमवाप्नोति त्रिरात्रोोषितो नरः । गोसहस्रफलं विद्यात् कुलं चैव समुद्धरेत् ॥ ४२ ॥

नरपते ! तत्पश्चात् तीर्थसेवी अरुन्धती-वट के समीप जाय और सामुद्रकतीर्थ में स्नान करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात उपवास करे। इससे मनुष्य अश्वमेघ यश और सहस्र गोदानका फल पाता तथा अपने कुलका उद्धार कर देता है ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्मायते ततो गच्छेद ब्रह्मचारी समाहितः। अश्वमेधमवाप्नोति सोमलोकं च गच्छति ॥ ४३ ॥

तदनन्तर ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक चित को  एक करके ब्रह्मावर्ततीर्थमे जाम । इससे वह अश्वमेधमशका फल पाता और सोमलोकको जाता है ॥ ४२ ॥

यमुनाप्रभवं गत्वा समुपस्पृश्य यामुनम् । अश्वमेधफलं लब्ध्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ ४४ ॥

यमुनाप्रभव नामक तीर्थ में जाकर यमुनाजल में स्नान करके अश्वमेघ यज्ञ का  फल पाकर मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ ४४ ॥ दवसंक्रमणं प्राप्य तीर्थ त्रैलोक्यपूजितम् ।

अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ ४५ ॥ दवी संक्रमण नामक त्रिभुवनपूजित तीर्थ में जाने से तीर्थ यात्री अश्वमेधयशका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है ॥ ४५ ॥

सिन्धोध प्रभवं गत्वा सिद्धगन्धर्वसेवितम् ।

तत्रोष्य रजनीः पञ्च विन्देद् बहुसुवर्णकम् ॥ ४६॥

सिंधुके उद्गमस्थान में, जो सिद्ध-गन्धवाद्वारा सेवित है, जाकर पाँच रात उपवास करनेसे प्रचुर सुवर्णराशिकी प्राप्ति होती है ॥

अथ वेदीं समासाद्य नरः परमदुर्गमाम् । अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ ४७ ॥ तदनन्तर मनुष्य परम दुर्गम बेदीतीर्थ में जाकर अश्वमेघ  यशका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है॥ ४७ ॥

ऋषिकुल्यां समासाद्य वासिष्ठं चैव भारत।

वासिष्ठी समतिक्रम्य सर्वे वर्णा द्विजातयः ॥ ४८ ॥ भरतनन्दन | ऋषिकुल्या एवं वासिष्ठतीर्थ में जाकर स्नान आदि करके वासिष्ठीको लाँघकर जानेवाले क्षत्रिय आदि सभी वर्गोंकि लोग द्विजाति हो जाते हैं ॥ ४८ ॥

ऋषिकुल्यां समासाद्य नरः स्नात्वा विकल्मषः । देवान् पितं श्वार्चयित्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते ॥ ४९ ॥

ऋषि जाकर स्नान करके पापरहित मानव देवताओं और पितरोंकी पूजा करके में जाता है ॥

यदि तत्र वसेन्मासं शाकाहारो नराधिप ।

भृगुतुहं समासाद्य वाजिमेधफलं लभेत् ॥ ५० ॥

नरेश्वर ! यदि मनुष्य भगतुहमें जाकर शाकाहारी हो वहाँ एक मासतक निवास करे तो उसे अश्वमेधयज्ञ  फल प्राप्त होता है ॥ ५० ॥

गत्या वीरप्रमोक्षं च सर्वपापैः प्रमुच्यते । कृत्तिकामघयोश्चैव तीर्थमासाथ भारत ॥ ५१ ॥ अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलमानोति मानवः । तत्र संभ्यां विद्यातीर्थमनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

उपस्पृदय से थिय उभोपपद्यते । महाश्रमे पसेद् रात्रि सर्वपापप्रमोचने ॥ ५३॥ एकफाळं निराहारो लोकानावसते शुभान् ।

वीरमगोक्षतीर्थ जाकर मनुष्य सब पापी छुटकारा पा जाता है। भारत | कृतिका और मचाके ठीमें जाकर मानव अभिम और अतिराम यशका फल पाता है। वहीं प्रातः-समय परम उत्तम विद्यातीय में जाकर स्नान करनेसे मनुष्य जहाँ कहीं भी विद्या प्राप्त कर लेता है। जो सब पापोंसे छुड़ानेवाले महाश्रमतीर्थ में एक समय उपवास करके एक रात वहाँ निवास करता है, उसे शुभ लोकोंकी प्राप्ति होती है । ५१-५२३ ॥

दुरामा असुर  अमुरकुर्मरूप धारण करके हरकर लिये जाता था। राजन् ! यह देख सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने उस तीर्थश्रेणीका उद्धार किया। युधिष्ठिर ! वहाँ उस वीर्घकोटिमें स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेवाले यात्रीको पुण्डरीक सरका फल मिलता है और यह विष्णुलोकको जाता है ।। १२०-१२२३ ।।

ततो गच्छेत राजेन्द्र स्थानं नारायणस्य च ॥१२२॥ सदा संनिहितो यत्र विष्णुर्वसति भारत। यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋऋषयश्च तपोधनाः ॥ १२३|| आदित्या बसवो रुद्रा जनार्दनमुपासते । शालग्राम इति ख्यातो विष्णुरद्भुतकर्मकः ॥१२४ ॥

राजेन्द्र तदनन्तर नारायण स्थान  जाय । भरतनन्दन ! यहाँ भगवान् विष्णु सदा निवास करते हैं। ब्रह्मा  आदि देवता, तपोधन ऋऋषि आदित्य, वसु तथा रुद्र भी यहाँ रहकर जनार्दनकी उपासना करते हैं। उस तीर्थ में अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु शालग्राम  नाम से प्रसिद्ध हैं।

अभिगम्य त्रिलोकेशं वरदं विष्णुमव्ययम् ।

अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति ॥ १२५॥

तीनों लोकोंके स्वामी उन वरदायक अविनाशी भगवान् विष्णुके समीप जाकर मनुष्य अवमेध यज्ञका फल पाता और विष्णुलोक में जाता है । १२५ ।।

तत्रोपानं धर्मश सर्वपापप्रमोचनम् ।

समुद्रास्तत्र चत्वारः कृपे संनिहिताः सदा ॥ १२६॥

धर्मज्ञ  ! वहाँ एक कूप है, जो सब पापोंको दूर करनेवाला है। उसमें सदा चारों समुद्र निवास करते हैं ॥ १२६ ।।

तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र न दुर्गतिमवाप्नुयात् । अभिगम्य महादेवं वरदं रुद्रमव्ययम् ||१२|| विराजति यथा सोमो मेघैर्मुक्तो नराधिप । जातिस्मरमुपस्पृश्य शुचिः प्रयतमानसः ॥१२८ ।।

राजेन्द्र ! उसमें निवास करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। सबको वर देनेवाले अविनाशी महादेव रुद्रके समीप जाकर मनुष्य मेघोंके आवरणसे मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति सुशोभित होता है। नरेश्वर ! वहीं जातिस्मर तीर्थ है; जिसमें स्नान करके मनुष्य पवित्र एवं शुद्धचित्त हो जाता है। अर्थात् उसके शरीर और मनकी शुद्धि हो जाती है ॥१२७-१२८ ।।

जातिस्मरत्वमाप्नोति स्नात्वा तत्र न संशयः । माहेश्वरपुरं गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम् ॥ १२९ ॥

ईप्सितासँभते कामानुपवासान्न संशयः ।

ततस्तु वामनं गत्वा सर्वपापप्रमोचनम् ॥१३०॥

अभिगम्य हरि देवं न दुर्गतिमवाप्नुयात् ।
 कुशिकस्याश्रमं गच्छेत् सर्वपापप्रमोचनम् ॥१३२॥

उस तीर्थ में स्नान करने से पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण करनेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है. इसमें संशय नहीं है। माहेश्वरपुर जाकर भगवान् शङ्करकी पूजा और उपवास करने से मनुष्य सम्पूर्ण मनोवाच्छित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तत्पश्चात् सब पापको दूर करनेवाले वामन तीर्थ  यात्रा करके भगवान् श्रीहरिके निकट जाय । उनका दर्शन करने से मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इसके बाद सब पापोंसे छुड़ाने वाले कुशिका श्रम की  यात्रा करे ॥ १२९-१३१ ।।

कौशिकों तत्र गच्छेत महापापप्रणाशिनीम् ।

राजसूयस्य यशस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥१३२॥

वहीं बड़े-बड़े पापका नाश करनेवाली कौशिकी (कोशी) नदी है। उसके तटपर जाकर स्नान करे। ऐसा करनेवाला मानव राजसूययज्ञका फल पाता है ।। १३२ ।।

ततो गच्छेत राजेन्द्र चम्पकारण्यमुत्तमम् ।

तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ॥१३३॥

राजेन्द्र ! तदनन्तरं उत्तम चम्पकारण्य ( चम्पारन) की यात्रा करे। यहाँ एक रात निवास करनेसे तीर्थयात्रीको सहस्र गोदानका फल मिलता है ॥ १३३ ।।

मथ ज्येष्टिलमासाद्य तीर्थे परमदुर्लभम् । तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् ॥१३४॥

तत्पश्चात् परम दुर्लभ ज्येष्ठिल तीर्थ में जाकर एक रात निवास करनेसे मानव सहस गोदानका फल पाता है ॥ १३४ ॥

तत्र विश्वेश्वरं दृष्ट्वा देव्या सह महाधुतिम् ।

मित्रावरुणयोर्लोकानाप्नोति पुरुषर्षभ ॥ १३५॥

त्रिरात्रोपोषितस्तत्र अग्निष्टोमफलं लभेत् ।

पुरुषरत्न ! वहाँ पार्वतीदेवी के साथ महातेजस्वी भगवान् विश्वेश्वरका दर्शन करनेसे तीर्थयात्रीको मित्र और वरुण देवताके लोकोंकी प्राप्ति होती है वहाँ तीन रात उपवास करनेसे अग्निष्टोमयज्ञका फल मिलता है || १३५३ ।।

कम्यासंवेद्यमासाद्य नियतो नियताशनः ॥ १३६॥ मनोः प्रजापतेर्लोकानाप्नोति पुरुषर्षभ । कन्यायां ये प्रयच्छन्ति दानमण्वपि भारत ॥ १३७॥ तदक्षय्यमिति प्राहुर्ऋऋषयः संशितव्रताः ।

पुरुषश्रेष्ठ ! इसके बाद नियमपूर्वक नियमित भोजन करते हुए तीर्थयात्रीको कन्यासंवेद्य नामक तीर्थमें जाना चाहिये । इससे वह प्रजापति मनुके लोक प्राप्त कर लेता है। भरतनन्दन ! जो लोग कन्यासंवेद्य तीर्थमें थोड़ा-सा भी दान देते हैं, उनके उस दानको उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि अक्षय बताते हैं ॥ १३६-१२७३ ॥
 निधी समासाद्य त्रिषु लोकेषु विधुताम् ॥१३८॥ अश्वमेधमयामोति गच्छति । ये तु दानं प्रयच्छन्ति निधीरासंगमे नराः ॥१३९॥ ते यान्ति नरशार्दूल शोकमनामयम् ।

ताश्रम वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥१४०॥

तदन्तर त्रिलोक विख्यात निधीरा नदीकी यात्रा करे  इससे अश्मेघयज्ञ है और तीर्थयात्री  पुरुष भगवान् विष्णुके लोक मै जाता है। नर स्श्रेष्ट !  जो मानव निश्रीराम दान देते हैं, ये रोग- शोक से रहित इन्द्रलोकमें जाते हैं। वहीं तीनों लोको में विख्यात वशिष्ठ  आश्रम हैं  ॥

तत्राभिषेकं कुर्वाणो बाजपेयमवाप्नुयात् । देवकूट समासाय ब्रह्मर्थिगण सेवितम् ॥१४१॥ अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुझरेत् ।

यहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य जाता है। तदनन्तर से ब्सेरह्विम ऋषियों सेवित देवकूट तीर्थमें जाकर स्नान  करे ऐसा करनेवाला पुरुष अश्वमेधयाफल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है ।। १४१३ ।। ततो गच्छेत राजेन्द्र कौशिकस्य मुनेहंदम् ॥१४२॥ यत्र सिद्धि परां प्राप्तो विश्वामित्रोऽथ कौशिकः । तत्र मासं वसेद् वीर कौशिक्यां भरतर्षभ ॥ १४२॥

राजेन्द्र तात्कौशिक मुनिके कुण्डमै स्नान के लिये जाय

जहाँ कुशिकनन्दन विश्वामित्रने उत्तम सिद्धि प्राप्त की थी। बीर भरतकुलभूषण ! उस तीर्थ कौशिकी नदीके तटपर एक मासतक निवास करे ॥ १४२-१४३ ॥

अश्वमेधस्य यत् पुण्यं तन्मासेनाधिगच्छति । सर्वतीर्थवरे चैव यो बसेत महाहदे ॥ १४४ ॥

न दुर्गतिमवाप्नोति विन्देद् बहु सुवर्णकम् । ऐसा करनेसे एक मासमें ही अश्वमेधयशका पुण्यफल प्राप्त हो जाता है। जो सब तीथों में उत्तम महाहृदमें ज्ञान करता है, वह कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता और प्रचुर सुवर्णराशि प्राप्त कर लेता है ॥ १४४३ ॥

कुमारमभिगम्याथ वीराथमनिवासिनम् ॥ १४५॥अश्वमेधमवाप्नोति नरो नास्त्यत्र संशयः ।

तदनन्तर वीराजमनिवासी कुमार कार्तिकेयके निकट जाकर मनुष्य अश्वमेधयशका फल प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है । १४५३ ॥ अग्निधारां समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् ॥१४६॥

तत्राभिषेकं कुर्वाणो ह्यग्निष्टोममवाप्नुयात् ।

अग्निधारातीर्थ तीनों लोकों में विख्यात है। वहाँ जाकर स्नान करनेवाला पुरुष अमिष्टोम यशका फल पाता है।॥ १४६३॥ अधिगम्य महादेवं वरदं विष्णुमव्ययम् ॥१४७॥
 यहाँ पर देनेवाले महान देवता अधिनायी भगवान् विष्णुके निकट जाकर उनका दर्शन और पूजन करे || १४७||

पितामहमरो शैलराजसमीपतः । 

तत्राभिषेकं कुर्याणो ह्यग्निष्टोममवाप्नुयात् ॥ १४८॥

गिरिराज हिमालय के निकट पितामसरोवरमें जाकर स्नान करनेवाले पुरुषको अग्निष्टोम यज्ञ का फल  मिलता है |

पितामहस्य सरसः प्रत्रता लोकपावनी ।

कुमारधारा तत्रैव त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ १४९ ॥

पितामसरोवर से सम्पूर्ण जगत को पवित्र  पवित्र करनेवाली एक धारा प्रवाहित होती है, जो तीनों लोकोंमें कुमारधारा के नाम से विख्यात हैं  ॥ १४९ ॥

यत्र स्नात्वा कृतार्थोऽस्मीत्यात्मानमवगच्छति । पटकालोपवासेन मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥१५० ॥

उसमें स्नान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ मानने लगता है। यहाँ रहकर छठे समय उपवास करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या से छुटकारा पा जाता है ।। १५० ।।

ततो गच्छेत धर्मश तीर्थसेवनतत्परः । शिखरं वे महादेव्या गौर्यास्त्रैलोक्यविश्रुतम् ॥१५१ ।।

धर्मज्ञ  ! तदनन्तर तीर्थसेवन में तत्पर मानव महादेवी गौरीके शिखरपर जाय, जो तीनों लोकोंमें विख्यात  है।। १५१॥ समारुहा नरश्रेष्ठ स्तनकुण्डेषु संविशेत् ।

स्तनकुण्डमुपस्पृश्य बाजपेयफलं लभेत् ॥१५२॥ नरश्रेष्ठ | उस शिखरपर चढ़कर मानव स्तन कुण्ड में स्नान करे। स्तनकुण्डमें अवगाहन करने से बाजपेययका फल प्राप्त होता है ॥ १५२ ॥

तत्राभिषेकं कुर्वाणः पितृदेवार्चने रतः | हयमेधमवाप्नोति शकलोकं च गच्छति ॥ १५३ ॥

उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं और पितरोंकी पूजा करनेवाला पुरुष अश्वमेघयतका फल पाता और इन्द्रलोक में पूजित होता है । १५३ ॥

ताम्रारुणं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः ।

अश्वमेधमवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति ॥१५४ ॥

तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो ताम्रारुण तीर्थकी यात्रा करने से मनुष्य अश्वमेघ यज्ञ का  फल पाता और ब्रह्मलोक जाता है ॥ १५४ ॥

नन्दिन्यां च समासाद्य कूपं देवनिषेवितम् । नरमेधस्य यत् पुण्यं तदाप्नोति नराधिप ॥१५५॥

नन्दिनीतीर्थ में देवताओं द्वारा सेवित एक कूप है। नरेश्वर ! वहाँ जाकर स्नान करने से मानव नरमेधयज्ञका पुण्यफल प्राप्त करता है । १५५ ।।
 त्रिोपोषितो राजन् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१५६४ राजन् ! कौशिकी-अरुणा तरास और कालिका-संगममें स्नान  करके  तीन रात उपवा स करनेवाला मनुष्य सब पापो से मुक्त  हो जाता है ॥ १५६ ॥

उर्वशीतीर्थमासाद्य ततः सोमाश्रमं बुधः ।

कुम्भकर्णाश्रमं गत्या पूज्यते भुवि मानक ॥१५७॥

तदनन्तर उर्वशीतीर्थ, सोमाभन और कुम्भकर्णाशमकी यात्रा करके मनुष्य इस भूतल पर पूजित  होता है ।। १५७ ।। |

कोकामुखमुपस्पृदय ब्रह्मचारी पतमतः

जातिमरत्वमाप्रोतिमेतत्पुरातः नै ॥१५८॥

कोकामुखतीर्ममें स्नान करके अह्मचर्य एवं संयम-नियमका पालन करनेवाला पुरुषपूर्वी बालीको सारण करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। यह बात प्राचीन पुरुषोंने प्रत्यक्ष देखी है ॥

१५८ ॥ माझ्नदीं च समालाय कृतात्मा भवति द्विजः।

सर्वपापविशुद्धात्मा शक लोके च गच्छन्ति  ॥१५९॥

प्रांग नदी तीर्थ में जाने से दिव्ज कृतार्थ हो जाता हैं वः सब पापोंसे शुद्चित होकर इंद्र लोक में जाता हैं |

ऋषभद्वीपमासाद्य मेध्यं की निषूदनम् । सरस्वत्यामुपस्पृदय विमानस्थो विराजते ॥१६०॥

तीर्थसेवी  मनुष्यः पवित्र  ऋषीभ द्वीप  और कोचनिषूदन तीर्थ में  जाकर सरस्वती ज्ञान करने वापर विराजमान होता है ।। १५ ।।

ओदालक महाराज तीर्थ मुनिनिषेवितम् । तत्राभिषेकं कृत्वा वै सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १६१ ॥

महाराज ! मुनियोंसे सेवित ओरालकती में स्नान करके मनुष्य पापमुक हो जाता है ।। १६२ ॥ धर्मतीय समासाद्य पुण्यं ब्रह्मर्षिसेवितम् । वाजपेयमवाप्नोति विमानस्थध पूज्यते ॥१६२॥

परम पवित्र ब्रह्म ऋषि सेवित धर्मतीपमें जाकर स्नान करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल  पाता और विमानपर बैठकर पूजित होता हैं  ॥ १६२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणिः तीर्थयात्रापर्वणि पुलस्त्यतीर्थयात्रार्या चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥८४॥ प्रकार श्रीमहाभारत इनके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वको मात्र सम्बन्ध रखनेवाला चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८४ ॥

 

 

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