माघ मास महात्मय इक्कीसवां अध्याय

[  माघ मास ] लोमश जी कहने लगे कि पूर्व काल में अवन्ती देश में वीरसैन नाम का राजा था। उसने नर्मदा के किनारे राजसूय यज्ञ किया और अश्वमेघ यज्ञ भी किये जिनके खम्भे सोने के बनाये गए। ब्राह्मणों को अन्न का बहुत-सा दान किया और बहुत-सी गौवें, सुन्दर वस्त्र और सोने के आभूषण से युक्त दान करने वाला था। भद्रक नाम का एक ब्राह्मण जो अत्यन्त मूर्ख कुलहीन, कृषि कार्य करने वाला, दुराचारी तथा अधर्मी था। वह भाई बन्धुओं से त्यागा हुआ इधर-उधर घूमता हुआ देव यात्रियों के साथ प्रयाग में आया और माघ में उनके साथ तीन दिन तक स्नान किया। वह तीन दिन में ही निष्पाप हो गया। फिर वह अपने घर चला गया। उसने ब्राह्मण और राजा दोनों को बराबर इन्द्रलोक में देखा। तेज, रूप, बल, स्त्री, वस्त्र और आभूषणों में दोनों समान थे। ऐसा देखकर उसके माहात्म्य को क्या कहा जाय। राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग के सुख भोग कर फिर भी जन्म लेता है परन्तु संगम में स्नान करने वाला जन्म मरण से रहित हो जाता है। गंगा और यमुना ही बहुत से के संगम की हवा के स्पर्श से दुःख नष्ट हो जाते हैं। अधिक क्या कहें और किसी भी तीर्थ में किए गए पाप माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से नाश हो जाते हैं। मैं पिशाच मोचन नाम का एक पुराना इतिहास सुनाता हूं। इस इतिहास को यह कन्यायें और तुम्हारा पुत्र भी सुने
 उससे इनको स्मृति प्राप्त होगी। पुराने समय  में देवद्युति नाम का बड़ा विनम  वेदों कापारंगत एक वैष्णव ब्राह्मण था उसने पिशाच को निर्मुक्त किया था।

 

वेदनिधि कहने लगे कि वह कहां का रहने वाला, किसका पुत्र, किस पिशाच को उसने निर्मुक्त किया। आप विस्तारपूर्वक यह सब कथा सुनाइए। लोमश ऋषि ने कहा-किल्पज्ञ से निकली हुई सुन्दर सरस्वती के किनारे पर उसका स्थान था। जंगल के बीच में पुण्य जल वाली सरस्वती बहती थी। वन में अनेक प्रकार के पशु भी विचरते थे। उस ब्राह्मण के श्राप के भय से पवन भी बहुत सुन्दर चलती थी तथा समय पर वर्षा भी बरसती थी और वह वन चैत्र रथ के समान था। उस जगह आश्रम में धर्मात्मा देवद्युति रहता था उसके पिता का
नाम सुमित्र था और वह लक्ष्मी के वरदान से उत्पन्न हुआ था। वह सदैव आत्मा को स्थिर रखता। गर्मी में अपने नेत्र सूर्य की रखता, वर्षा में खुली जगह पर तपस्या करता। हेमन्त ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता। जितेन्द्रिय और सत्यवादी भी था। आपसे आप गिरे हुए फल और पत्तियों का भोजन करता था। इसका शरीर सूखकर केवल हड्डियां मात्र रह गई थीं। इस प्रकार उसको तप करते हुई वहां पर हजार वर्ष बीत गए। तप के प्रभाव से उसका शरीर अग्नि के समान प्रज्वलित था। विष्णु की प्रसन्नता से ही वह सब कर्म करता। दधीचि ऋषि के वरदान से ही वह श्रेष्ठ वैष्णव हुआ था। एक समय उस ब्राह्मण ने वैशाख महीने की एकादशी को हरि कमाघ मास महात्म्य कर उनकी सुन्दर स्तुति तथा विनती करी। उसकी विनती सुनकर भगवान उसी समय गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए। चतुर्भुज विशाल नेत्र, मेघ जैसा स्वरूप ! भगवान को स्पष्ट देखकर प्रसन्नता के मारे उसकी आंखों में आंसू भर आए और कृतकृत्य होकर भगवान को प्रणाम किया। उसने अपने शरीर को भी याद न रखा और भगवान ने कहा कि हे देवद्युति मैं जानता हूं कि तुम मेरे परम भक्त हो मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं तुम वर मांगो। इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर प्रेम के मारे लड़खड़ाती हुई वाणी में कहने लगा कि हे देवाधिदेव! अपनी माया से शरीर धारण करने वाले आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है। अब आपका दुर्लभ दर्शन भी हो गया मुझको और क्या चाहिए। मैं सदैव

आप की भक्ति में लगा रहूं। भगवान् उसके वचन सुनकर कहने लगे कि ऐसा ही होगा तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी, उसके धर्म कार्य सांगपांग होंगे और उसकी ज्ञान में परमनिष्ठा होगी।

॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत एकोनविन्शोध्याय समाप्तः ।।

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