माघ मास महात्म्य अट्ठारहवां अध्याय

माघ मास माघ मास माघ मास श्री वशिष्ठ ऋषि कहने लगे हे राजन्! मैंने दत्तात्रेय जी द्वारा कहा माघ मास माहात्म्य कहा अब माघ मास के स्नान का फल सुनो-हे परंतप ! माघ मास स्नान सब व्रतों का और तपों का फल देने वाला है। माघ मास स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं किन्तु उनके माता और पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है। माघ मास में स्नान करने वाले दुराचारी और कुकर्मी मनुष्य भी पापों से मुक्त हो जाते हैं और इस मास में हरि का पूजन करने वाले पाप समुदाय से छूटकर भगवान के शरीर वाले हो जाते हैं। यदि कोई आलस से भी माघ में स्नान करता है, उसके भी सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे
गन्धर्व कन्यायें राजा के श्राप से भयंकर कल  भोगती हुई लोमश ऋषि के वचन से माघ मास  में स्नान करने से पापों से छूट गई। यह वार्ता  सुनकर राजा दिलीप विनय से पूछने लगे  कि गुरुदेव ! ये कन्यायें किसकी थीं, उनको यह श्राप कब  और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे, ऋषि के कृपा  से कैसे श्राप मुक्त हुईं और उन्होंने किस स्थान पर माघ स्नान किया? आप विस्तारपूर्वक सब कथा कहिए । वशिष्ठ जी कहने लगे-हे राजा! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है। वैसे ही यह कथा धर्म और सन्तान उत्पन्न करती है। हे राजन! सुख संगीत नामक गंधर्व की कन्या का नाम विमोहिनी था। सुशीला तथास्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा तथा सुप्रभा की कन्या चन्द्रिका ये पांच सब समान आयु वाली तथा चन्द्रमा की जैसी कांतिवाली और सुन्दर थीं। जैसे रात्रि को
पुष्प चन्द्रमा शोभायमान होता है। वैसे ही! की कलियों के समान खिली हुई ये अप्सरायें थीं। ऊँचे पयोधर वाली पदानी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई तीन पत्तों वाली . लता के सदृश, गोरे रंग, सोने के सदृश चमकती हुई और सोने के अलंकारों से सुशोभित, सुन्दर वस्त्र धारण करे हुए अनेक प्रकार के गाने और वीणा अन्यथा बांसुरी तथा दूसरे बाजे बजाने में प्रवीण और ताल, स्वर तथा नृत्य कला में निपुण थीं।

 

 

इस प्रकार वे कन्याएं क्रीड़ा करती हुईं कुबेर के स्थान में विचरती थीं। एक समय कौतुकवश माघ मास में एक वन से दूसरे वन में विचरती हुईं, मंदिर के पुष्प तोड़कर सरोवर पर गौरी पूजा के लिए गईं। स्वच्छ जल के सरोवर पर स्नान करके वस्त्र धारण कर, मौन हो, बालू मिट्टी की गरी बनाकर चन्दन, कपूर कुंकुम और
 सुन्दर कमलों से उपचार सहित पूजन क ये पांचों कन्याएं ताल, नृत्य करने लगी, फिर ऊंचे गांधार स्वर में सुन्दर गीत गाने लगी। ये कन्यायें गाने और नाचने में लीन थी तोड अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्नि ऋषि स्नान को गये। युवा ऋषि सुन्दर मुख, कमल सदृश नयन, विशाल छाती, सुन्दर भुजाओं वाला, दूसरे कामदेव के समान था। शिखा सहित दण्ड लिए, मृगचर्म ओढे, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था। उसको देख कर पांचों कन्यायें मुग्ध हो गई और उसका रूप एवं यौवन देखकर कामदेव से पीड़ित हो देखो-देखो ऐसा कहती हुई उस ब्राह्मण के चित्त में कामदेव का कर उत्पन्न करने लगीं और आपस में विचार करने लगी कि यह कौन है। रति रहित होने से नहीं, एक होने से अश्विनीकुमार
नहीं।

 

यह कोई गन्धर्व या किन्नर या कामरूप धारण कर कोई सिद्ध या किसी ऋषि का श्रेष्ठ पुत्र था मनुष्य है कोई भी हो ब्रह्मा जी ने इसको हमारे लिए बनाया है। जैसे पूर्व कर्म के प्रभाव से सम्पत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरीजी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर दिया है और आपस सबका पुत्र में यह तुम्हारा वर है या मेरा अथवा ऐसा कहने लगीं जिस समय उस ऋषि ने अपनी मध्यान्ह की क्रिया करके ऐसे वचन सुने तो वह सोचने लगा कि यह तो बड़ी उत्पन्न हो गई। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े योगीश्वर भी स्त्रियों के भ्रम जाल में मोहित हो गए हैं। इनके तीक्षण वाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नहीं हो सकता। जब तक नीति और बुद्धि रहती है तब तक पाप से भय रहता है। जब तक तप की गम्भीरता रहती है

 

 

यम विधि का पालन
माघ मास महात्म्य होता है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के बाणों से बींधा नहीं जाता। ये मुझे मुग्ध कर रही हैं। किन गुणों से धर्म की हो सकती है। स्त्रियों के मांस, रक्त, मूत्र से बने घृणित और अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुन्दरता की कल्पना करके रमण कर सकते हैं। शुद्ध बुद्धि वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना कष्टकारक कहा है सोजब तक यह पास आवें घर चले चलना चाहिए। अतः जब तक वह उसके पास आईं वह योग बल से अन्तर्ध्यान हो गया। ऋषि पुत्र के ऐसे अद्भुत कर्म देखकर वह चकित होकर डरी हुई चारों तरफ देखने लगीं और आपस में कहने लगीं यह क्या इन्द्रजाल था, जो देखते देखते विलीन हो गया और वह विरह की अग्नि में जलने लगीं और कहने लगी कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहां चले गये,

क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरहरूपी अग्नि ये जलाने के लिए ही बनाया था? क्या तुम्हारा चित्त दया रहित है जो हमारा चित्त दुखाकर चले गए? क्या तुमको हमारा विश्वास नहीं, क्या तुम कोई मायावी हो बिना किसी अपराध के लोगों पर क्यों क्रोध करते हो। हे हृदेश्वर! तुम्हारे बिना हम नहीं जीवेंगी। जहां पर आप गये हों हमें शीघ्र ले चलो। हमारा संताप हरो और हमको दर्शन दो। दया करो। सज्जन लोग किसी का नाश नहीं देखते।

॥ इति श्री पद्मपुराणान्तर्गत अष्टदशोध्याय समाप्तः ॥

 

 

 

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