माघ मास महात्मय सत्रहवां अध्याय

माघ मास माघ मास अप्सरा कहने लगी कि हे राक्षस! वह ब्राह्मण कहने लगा कि इन्द्र इस प्रकार अपनी अमरावती पुरी को गया सो हे कल्याणी! तुम भी देवताओं से सेवा किये जाने वाले प्रयाग में माघ मास में स्नान करने से निष्पाप होकर स्वर्ग में जाओगी सो मैंने उस ब्राह्मण के यह वचन सुनकर उसके पैरों में पड़ कर प्रणाम किया और घर में आकर सब भाई बांधव नौकर चाकर धनादिक त्याग कर शरीर को नष्ट होने वाली वस्तु समझकर घर से निकली और माघ मास में गंगा-यमुना के संगम पर जाकर स्नान सो हे निशाचर! तीन दिन के स्नान से मेरे सब पाप नष्ट हो गये और माघ मास महात्म्य लोग सदैव दूसरे के दुःखों से दुखी होते हैं। अब यह बताओ कि इस दुःख रूप समुद्र को कैसे पारकर सकता हूं? क्या क्षीरसागर हंस को ही दूध देता है? बगुले को नहीं देता? दत्तात्रेय जी कहने लगे इस प्रकार उसके वचन सुनकर कंचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! मैं अवश्य तुम्हारा कल्याण करूंगी। मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है कि तुम्हारी मुक्ति के लिए प्रयत्न करूंगी।

मैंने बहुत बार प्रयाग में माघ स्नान किया है। वेद जानने वाले ऋषियों ने दुखी को दान देने की प्रशंसा की है। समुद्र में जल बरसने से क्या लाभ? प्रयाग में स्नान करने का एक बार का फल मैं तुम्हें देती हूं। उसी से तुमको स्वर्ग की प्राप्ति होगी उसके फल का अनुभव मैं कर चुकी हूं। तब उस अप्सरा ने अपने गीले वस्त्र का जल  निचोड़कर जल को हाथ में लेकर माघ स्नान के फल को उस राक्षस के अर्पण किया। उसी समय पुण्य प्राप्त करके वह राक्षसी शरीर को छोड़कर तेजमय सूर्य सदृश देवता रूप हो गया। आकाश में विमान पर चढ़कर अपनी कांति से चारों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ कांचन मालिनी की प्रशंसा करता हुआ शोभायमान हुआ और कहने लगा कि ईश्वर ही जानता है तुमने कितना उपकार मुझ पर किया है। अब भी कृपया कुछ भिक्षा दो जिससे मैं कभी पाप न करूं। अब मैं तुम्हारी आज्ञा पाकर स्वर्ग में जाऊंगा। तब कांचन मालिनी ने कहा कि सदैव धर्म की सेवा करो, काम रूपी शत्रु, को जीतो, दूसरे के गुण तथा दोषों का वर्णन मत करो, शिव और वासुदेव का पूजन करो, इस शरीर का मोह मत करो,

पुत्र, धनादि की ममता त्यागो सत्य बोलो, वैराग्य भाव धारण कर योगी बनो। मैंने तुमसे यह धर्म के लक्षण कहे, अब तुम देवता रूप होकर शीघ्र ही स्वर्ग को जाओ। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार गंधर्वों से सेवित वह राक्षस कांचन मालिनी को नमस्कार करके स्वर्ग को गया और देव कन्याओं ने वहां • आकर कांचन मालिनी पर पुष्पों की वर्षा की और प्रेमपूर्वक कहा कि हे भद्रे! तुमने राक्षस का उद्धार किया। इस दुष्ट के डर से कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं करता था। अब हम निडर होकर विचरेंगे। इस प्रकार कांचन मालिनी उस राक्षस का उद्धार करके प्रेमपूर्वक देव कन्याओं से क्रीड़ा करते हुए शिव लोक को  गई।

।। इति श्री पद्मपुराणान्तर्ग सोलहवा अध्याय समाप्त हुआ ||

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