दशावतार – व्रत कथा , विधान और फल


भगवान श्री कृषण कहते हैं —- राजन ! सतयुग के प्रारम्भ में भृगु नाम के एक ऋषि हुए थे | उनकी भार्या दिव्या अत्यंत पतिव्रता थीं | वे आश्रम की शोभा थी और निरन्तर ग्रहकार्य में सलग्न रहती थी | वे महऋषि भृगु की आज्ञा का पालन करती थीं | भृगु जी भी उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे |

किसी समय देवासुर सग्राम में भगवान विष्णु के द्वारा असुरों  को महान भय  उपस्थित हुआ | तब वें सभी असुर महऋषि भृगु की शरण में आये | महऋषि भृगु अपना अग्निहोत्र आदि कार्य अपनी भार्या को सोंप कर स्वयं संजीवनी – विद्या को प्राप्त करने के लिये हिमालय के उत्तरी भाग में जाकर तपस्या करने लगे | वे भगवान शंकर जी की आराधना कर संजीवनी – विद्या को प्राप्त कर दैत्यराज बलि को सदा के लिए विजयी करना चाहते थे | इसी समय गरुड पर चढकर भगवान विष्णु जी वहाँ आये और दैत्यों का वध करने लगे | क्षण भर में ही उन्होंने दैत्यों का संहार कर दिया | भृगु जी की पत्नी दिव्या भगवान को श्राप देने के लिये उद्धत हो गई | उनके मुख से श्राप निकलना ही चाहता था कि भगवान विष्णु ने चक्र से उनका सिर काट  दिया | इतने में भृगु मुनि जी भी संजीवनी – विद्या को प्राप्त कर वहाँ आ गये | उन्होंने देखा की सभी दैत्य मारे गये हैं और मेरी भार्या भी मार दी गई हैं | क्रोधान्ध हो भृगु ने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि ‘ तुम दस बार मनुष्य लोक में जन्म लोंगे |

भगवान श्री कृष्ण ने कहा —– महाराज भृगु के श्राप के कारण जगत की रक्षा के लिये मैं बार – बार अवतार ग्रहण करता हूँ | जों लोग भक्तिपूर्वक मेरी अर्चना करते हैं , वे अवश्य ही इस लोक में प्रसिद्ध होकर स्वर्ग में स्थान प्राप्त करता हैं |

दशावतार व्रत का विधान

 भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष दशमी को संयतेन्द्रित हो नदी आदि में स्नान कर तर्पण सम्पन्न करे तथा घर आकर तीन अंजुली धान्य का चूर्ण लेकर घृत [ घी ] में पकाये | इस प्रकार दस वर्षो तक प्रतिवर्ष करें | प्रतिवर्ष क्रमश; पूरी , घेवर , कसार , मोदक , सोहालक , खण्डवेष्टक , कोकरस , अपूप , कर्णवेष्ट तथा खण्डक – ये पकवान उस चूर्ण से बनाये और उसे भगवान को नैवैध्य के रूप में समर्पित करे | प्रत्येक दशहरा को दस गौएँ दस ब्राह्मणों को दे [ चांदी अथवा पिली मिट्टी की भी दे सकते हैं ] नैवैध्य का आधा भाग भगवान को समर्पित करें , चौथाई ब्राह्मण को दे और चौथाई भाग पवित्र जलाशय पर जाकर बाद में स्वयं भी ग्रहण करे | गंध , पुष्प , धुप ,दीप आदि उपचारों से मन्त्र पूर्वक दशावतारों का पूजन करें | भगवान के दश अवतारो के नाम इस प्रकार हैं – [ 1 ] मत्स्य

[ 2 ]  कुर्म  [ 3 ] वराह  [ 4 ] नृसिंह  [ 5 ] त्रिविक्रम  {वामन } [ 6 ] परशुराम  [ 7 ] श्री राम  [ 8 ]    श्री कृष्ण [ 9 ] बुद्ध तथा कलिक |

अनन्तर प्राथर्ना करे —–

“ दस अवतारों को धारण करने वाले सर्वव्यापी , सम्पूर्ण संसार के स्वामी हे नारायण हरी ! मैं आपकी शरण में आया हूँ | हे देव ! आप मुझ पर प्रसन्न हो | जनार्दन ! आप भक्ति द्वारा प्रसन्न होते हैं | आप अपनी वैष्णवी माया को निवारित करें , मुझे आप अपने धाम में ले चले | मैंने अपने को आप के लिए सौप दिया हैं | ‘

इस प्रकार जों इस व्रत को करता हैं , वह भगवान के अनुग्रह से इस लोक में सुख़ भोग कर जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त कर लेता हैं और सदा विष्णु लोक में निवास करता हैं |

जीवन में एक बार यह व्रत करना चाहिए | इससे अत्यंत आनन्द की प्राप्ति होती हैं| 

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