अम्बाष्टक स्तोत्रम्
– श्रीमदाद्यशङ्कराचार्यविरचितम
(हिंदी भावार्थ सहित)

चेटीभवन्निखिलखेटी कदम्बतरुवाटीषु नाकिपटली-
कोटीरंचारुतरकोटीमणीकिरणकोटीकरम्बितपदा।
पाटीरगन्धकुचशाटी कवित्वपरिपाटीमगाधिपसुता
घोटीकुलादधिकधाटीमुदारमुखवीटीरसेन तनुताम्॥१॥
विद्याधरी आदि समस्तगगनचारिणीदेवियां दासी के रूप में जिन की सेवा करती है; अपने निवासस्थान कदम्बवन में आकर प्रणाम करते हुए इन्द्रादि देवताओं के किरीटों के सुन्दर किनारों पर लगे. हुए आसंख्य मणियों की किरणों से जिन के चरण झिलमिल होते रहते हैं; जिन की चोली चन्दन की सुगन्धी से सुगन्धित होकर सेवकों की घ्राणेन्द्रिय को तर करती रहती है; दिव्य ताम्बूल से शोभायमान जिन का मुख दर्शकों के नेत्रों को आकर्षित करता है, हिमालयपुत्री वे माता हमारी काव्यवाणी को ऐसी द्रुतगति प्रन करें जैसे घोडियां दौड़ती हुई आगे बढ रही हों, साथ ही उसे रसपूर्ण भी बनायें |

कूलातिगामिभयत्लावलिज्वलनकीला निजस्तुतिविधा-
कोलाहलक्षपितकालाऽमरी कुशलकीलालपोषणनभाः
स्थूला कुचे जलदनीला कचे कलितलीला कदम्बविपिने
शूलायुधप्रणतिशीला विभातु हृदि शैलाधिराजतनया॥२॥
:श्रीमाता के सामने महाभय भी रुई के बराबर और उसे जलाने में स्वयं अग्निज्वाला के समान है । उनकी स्तुति का कोलाहलात्मक शब्द स्तोता के मृत्युक्लेश को समाप्त करता है । वे माता इह-पर लोक मङ्गलरूपी जल बरसानेवाली मेघमाला है, स्थूल स्तनों से (उनके संगीतात्मक दुग्ध धारा से जगत का पोषण करती हुई) शोभा सम्पन्ना है, मेघ सदृश श्यामल बालों से सनोहर स्वरूपा है, कदम्ब वन में लीलातत्पर है, शङ्कर भगवान के अनुकूल वर्तिनी है । वे शैलपुत्री पार्वती मेरे हृदय में नित्य विराजमान हो।

 

 

 

यत्राशयो लगति तत्रागजा वसतु कुत्रापि निस्तुलशुका
सुत्रामकालमुखसत्राशन्प्रकरसुत्राणकारिंचरणा।
छत्राऽनिलातिरयपत्राऽभिरामगुणमित्राऽमरीसमवधूः
कुत्रासहृन्मणिविचित्राकृतिः स्फुरितपुत्रादिदाननिपुणा॥३॥
मेरा मन जहाँ कहीं भी लगे वहीं माता पार्वती निवास करें (समस्त जगत को मै मातास्वरूप ही देखूंं) । वे माता इन्द्रयमादि समस्त देव समूह की रक्षा करती हैं (अतः मेरी भी रक्षा अवश्यमेव करेगी ) वे छत्रधारिणी (एकछत्राधिपति सर्वेश्वरी) है । वायुवेगवाले वाहन (सिंह) पर स्थित है । मनोहर गुण से संपन्न हैं । ब्राह्मी आदि अमरशक्ति सहित हैं । त्रास नाशिनी है । मणियों की सजावट से सुन्दर आकृतियुक्त है । योग्य पुत्रपौत्रादि प्रदान करनेवाली है ।

द्वैपायनप्रभृतिशापायुधत्रिदिवसोपानधूलिचरणा
पापापहस्वमनुजापानुलीनजनतापापनोदनिपुणा।
नीपालया सुरभिधूपालका दुरितकूपादुदञ्चयतु मां
रूपाधिका शिखरिभूपालवंशमणिदीपायिता भगवती॥४॥
भगवती कदम्बवनवासिनी है । सुगन्धित धूप से सौरभित केशवाली है । रूपवती है। पर्वतराज हिमालय के वंश को उज्ज्वल बताने वाला मणिदीप है । व्यासादि शापायुध (शाप को ही अपना अस्त्र बनाये हुए) महामुनियों के स्वर्गारोहण के लिये भगवती की चरणधूल ही सोपान है । वे अपने पापहारी मन्त्र जप करने में तन्मय भक्तों के ताप को नष्ट करती है । वे मुझे पाप के गर्त से उबारें ।

याऽऽलीभिरात्मतनुताली सकृत् प्रियकपालीषु खेलति भय
ब्यालीनकुल्यसितचूलीभरा चरणधूलीलसन्मुनिवरा।
बालीभृति श्रवसि तालीदलं वहति याऽलीकशोभितिलका
साडलीकरोतु मम काली मनः स्वपदनालीकसेवनविधौ॥५॥
देवी शिवा कभी नृत्य करतीं है तो अपनी सहोलियों के साथ कुछ ताली बजातीं है फिर प्रियतम शहर के गले में पडी मुण्डमाला को बजाने लगतीं है जिस में उन्हें भय नहीं । बल्की भयरूपी सांपिन के लिये वे नेवली जैसी हैं । सब के भय को दूर करती हैं । वे सांवले सघन केशों से अपने शान्त स्वभाव को प्रगट करती है । उन की चरणधूलि में बडे-बडे ऋषि-मुनि लोटते हैं । उनके कानों में कर्णभूषण और ताटङ्क शोभा पा रहे हैं । तथा ललाट पर तिलक चमक रहा है । वे काली भगवती अपने चरण कमलों के सेवन में मेरे मन को भ्रमररूप कर दें तन्मय बना दें।
न्यङ्काकरे वपुषि कङ्कालरक्तपुषि कङ्कादिपक्षिविषये
त्वं कामनामयसि किं कारणं हृदय पङ्कारिमेहि गिरिजाम्।
शङ्काशिलानिंशितटङ्कायमानपदसङ्काशमानसुमनो
झङ्कारिमानततिमङ्कानुपेतशशिसङ्काशिवक्त्रकमलाम्॥६॥
हे हृदय | यह शरीर तो तुच्छ अधम तत्वों का खान है, अस्थिपञ्जर रक्त मांसादि का पोषक या उन से पोषित है । चील गिद्ध आदि पक्षियों का भक्ष्न्य है । इस में तुम क्यों आसक्त हो रहे ह ? सकल दोष हारिणी गिरिसुता अम्बा के चरणों में क्यों नहीं लग रहे हो । उन्हीं की शरण में जाओ । संशयरूपी शिला तोडने में तीखे घन सदृश, अपने पद में तन्मय होकर विराजमान विद्वानों के मुख से गूंजने वाली विद्या वे ही भगवती है। उन का मुख मानो निष्कलङ्क चन्द्रमा ही है । परम आह्लादकारी है।

 

 

 

कुम्बावतीसमविडम्बा गलेन नवतुम्बाभवीणसविधा
शं बाहुलेयशशिबिम्बाभिराममुखसम्बाधितस्तनभरा।
अम्बा कुरङ्गमदजम्बारलरोचिरिह लम्बालका दिशतु मे
बिम्बाधरा विनतशम्बायुधादिनिकुरम्बा कदम्बविपिने॥७॥
शंख के समान मनोहर जिन का गला है या गलेतक सडियों से जो आवृत है, नवीन तुंबी से शोभायमान वीणा जिन के बगल में है या जिन का कण्ठ वैसी वीणा के स्वर के बराबर सुन्दर है, शरत पूर्णिमा के चन्द्र के समान सुन्दर मुख की आभा वक्षःस्थल की कान्ति को भी फीकी करती है, ललाट कस्तूरीतिलक से मनोहर है, बाल लम्बे है, ओष्ठ बिम्बाफल के समान अरुण है, जो कदम्बवन में इन्द्रादिदेवताओंसे नमस्कृत है वे अम्बा हमें मङ्गल प्रदान करें ।

इन्धानकीरमणिबन्धा भवे हृदयंबन्धावतीव रसिका
संधावती भुवनसन्धारणेऽप्यमृतसिन्धाबुदारनिलया।
गन्धानुभावमुहुरन्धाज्ञिवीतकचबन्धा समर्पयतु मे
शं धाम भानुमपि सन्धानमाशु पदसन्धानमप्यगसुता॥८॥
तोते के सदृश आकृतिवाले सुन्दर मणिबन्ध से युक्त, अपने हृदयबन्धु शिव में अत्यन्त रसिक, लोकरक्षणार्थ कृतप्रतिज्ञ, फिर भी सुधासिन्धु वांसिनी वे भगवती जिन के पारिजातादिपुष्पवेणी से सुगन्धित केशों में मोहान्ध भ्रमर व्याप्त हो गये हैं, इह लोक में कल्याण, परलोक में अपना दिव्य धाम, तदर्थ ज्ञान प्रकाश और सर्वमूल निजचरणध्यान मुझे प्रदान करें।

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