श्रीमद्देवीभागवत महात्म्यअध्याय–2 देवीभागवत  महिमा

अध्याय–२
ऋषियों ने पूछा- महा बुद्धिमान् सूतजी ! महाभाग वसुदेव ने कैसे पुत्र प्राप्त किया ? श्रीमद्देवी भागवत की यह कथा वसुदेवजी ने किस विधि से सुनी और इसके वक्ता koun हुए सूतजी बोले- भोजवंशी राजा सत्राजित् द्वारका में सुखपूर्वक रहते ? थे । भगवान् सूर्य ने सत्राजित् को भक्ति से परम प्रसन्न होकर उन्हें ‘स्यमन्तक’ नामक मणि दी । सत्राजित् के एक भाई लौटा। थे । उनका नाम प्रसेन था। एक बार वे उस मणिको गले पुत्रप्रापि में धारणकर शिकार’ खेलने के लिये वन को चल पड़े। उन्हें अराधन सिंह ने घोड़े सहित मारकर मणि लेली । ऋक्षराज जाम्बवान् मे उस सिंह को मारकर उससे मणि छीन ली कुछ समय बाद भगवन् जब प्रसेन नहीं लौटे, तब सत्राजित को महान् दुःख हुआ ।
बम फिर तो जनसमाज के मुख से द्वारका में इस प्रकार किंवदन्ती फैल गयी कि हो न हो श्रीकृष्णने प्रसेन को मार डाला है, क्योंकि मणिमें उनकी आसक्ति हो गयी थी। यह बात भगवान् श्रीकृष्ण के कानों में भी पड़ी। तब अपने ऊपर लगे हुए इस कलंक को दूर करने के लिये वे वनमें पहुंचे यह सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेन को देखा। रक्त से चिन्हित मार्ग को पकड़कर बढ़े । एक बिलके द्वार पर मरा हुआ सिंह दिखाई है, पड़ा। वे पुरवासियों से कहने लगे-‘तुम लोग मेरे लौटने तक, यहीं रहना । मणि लेने वाले का पता लगाने के लिये मैं इस तब बिल के अन्दर जा रहा हूँ । द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा में बिल के द्वार पर रुके थे । बारह दिनों तक उन्होंने प्रतीक्षा की । तत्पश्चात् डरकर वे अपने-अपने घर | लौट गये। अपने पुत्र की यह कष्ट कहानी महाभाग वसुदेव के कानों में पड़ी। परिवार सहित शोकसागर में डूबने- उतरने लगे। इतने में देवर्षि नारदजी ब्रह्मलोक से वहां पधारे। बसु वसुदेवजी उठकर खड़े हो गये । उनकी यथोचित पूजा की । नारदजीने वसुदेवजी से कुशल समाचार पूछा ।

वसुदेवजी ने कहा- मेरा प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण प्रसेन को खोजने के लिए बनमें गया था । मेरा वह प्राण प्रिय पुत्र नहीं लौटा। इसी से मैं चिन्तित हूँ । नारदजी बोले-यदुश्रेष्ठ ! तुम पुत्रप्राप्ति के लिये अम्बिका देवी की आराधना करो । उनके अराधन से ही तुम्हारा शीघ्र कल्याण होगा । वसुदेवजी ने | पूछा-देवर्षे ! वे अम्बिका देवी कौन हैं, उनकी क्या महिमा है। भगवन् ! यह बताने की कृपा कीजिये ।

वसुदेवजी का कथन सुनकर नारदजी प्रसन्न हो गये ।
शुभ दिन और शुभ नक्षत्र में उन्होंने कथा आरम्भ कर दी । वसुदेव जी भक्ति पूर्वक सुनते रहे। नवें दिन में कथा-प्रसंग समाप्त हुआ। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण का जाम्बवान् के साथ बिल में युद्ध चल रहा था। पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण सन्निक के मुष्टिप्रहार से जाम्बवान् घायल हो गया। तब उसने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मस्तक झुकाया और अपार श्रद्धा प्रकट करता हुआ वह उनसे अपना अपराध क्षमा कराने लगा। फिर तो ऋक्षराज जाम्बवान ने प्रीति पूर्वक भगवान् कृष्ण की पूजा की। अपनी कन्या जाम्बवती का उनके फिर साथ विवाह कर दिया और मणि भी सौंप दी। विप्रगण आशीर्वाद दे रहे थे कि उसी समय भगवान कृष्ण मणि धारण किये हुए पत्नी के साथ वहाँ आ पहुँचे । तदनन्तर देवर्षि नारदजी भगवान कृष्ण के आगमन से हर्षित हो श्रीकृष्णचन्द्र और वसुदेव जी से आज्ञा लेकर ब्रह्मसभा को चल दिये ।

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