श्री सत्यनारायण व्रत कथा – लकडहारे की कथा | stynarayn-vrt-katha-lkdhare-v-sadhu-vnik-ki-katha

सत्यनारायण व्रत – कथा के प्रसंग में लकडहारे की कथा 

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सूतजी बोले ! ऋषियों ! अब इस सम्बन्ध में सत्यनारायण व्रत के आचरण से कृतकृत्य हुए भिल्लो की कथा सुने |एक समय की बात हैं , कुछ निषादगण वन से लकड़ियाँ काटकर नगर में लाकर बेचा करते थे | उनमे से कुछ निषादगण वन से लकडियां काटकर कांशीपूरी लकड़ी बेचेने आये | उन्ही में से एकप्यासा लकडहारा सदानंद [ शतानन्द ] के आश्रम में गया | वहाँ उसने जल पियाँ और वहा देखा कि ब्राह्मण लोग सत्यनारायण भगवान की पुजा कर रहे थे | लकडहारे के मन में विचार आया कि ये गरीब ब्राह्मण इतना धनमान कैसे हो गया ? इसपर उसने पूछा – महाराज ! आपको यह एश्वर्य कैसे प्राप्त हुआ और आपको निर्धनता मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? यह बताने का कष्ट करे मैं सुनना चाहता  हूँ | ‘

सदानन्द ने कहा – भाई ! यह सब सत्यनारायण भगवान की आराधना का फल हैं, उनकी आराधना से क्या नही होता | भगवान सत्यनारायण की अनुकम्पा से हुआ हैं |

लकडहारे ने उनसे पूछा —– महाराज सत्यनारायण भगवान का क्या महात्म्य हैं ? इसकी क्या विधि हैं ? आप मुझे बताए |

सदानन्द बोले —- एक समय की बात हैं , केदारनाथ क्षेत्र के रहने वाले राजा चन्द्रचुड मेरे आश्रम आए और मैंने जों उन्हें बताया था , उसे तुम सुनों —–

सकामभाव से या निष्काम भाव से मन में संकल्प कर नारायण की पूजा अर्चना करनी चाहिये | सवासेर गौधुम के चूर्ण [ गाय के घी से बना आटे का सतु } को प्रसाद के रूप में भगवान को अर्पण करना चाहिए | भगवान सत्यनारायण को पंचामृत इ स्नान कराकर  चन्दन का तिलक  लगा, फल सुघन्दित पुष्प ,घुप ,दीप , दधि तथा नैवैध्य आदि से भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए | यदि आपका सामर्थ्य अधिक हैं तो आप अधिक उत्साह तथा समारोह से पूजा करनी चाहिए |

भगवान केवल श्रद्दा से ही प्रसन्न होते हैं – जैसे विदुर के आश्रम आकर शाक – भाजी ग्रहण की ,सुदामा के चावल कण स्वीकार कर उन्हें अपना सर्वस्व लौटाने को तैयार हो गये | और उन्हें दुर्लभ सम्पतिया प्रदान की |

निषादपुत्र ! मेरे से सुनकर राजा चन्द्रचुड ने यह पूजा , व्रत किया और आज आनन्दित होकर अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया | इसलिये तुम भी भक्तिपूर्वक उपासना करों | इससे तुम इस लोक में सुख़ भोग कर अंत में भगवान विष्णु का सानिध्य प्राप्त करोगे |

यह सुनके लकडहारा कृत – कृत्य हो गया विप्रश्रेष्ट ब्राह्मण को प्रणाम कर अपने घर जाकर उसने संकल्प लिया की आज मुझे जितना भी धन प्राप्त होगा में ‘ उससे अपने सभी परिवार जनों के साथ भक्तिपूर्वक हम सत्यनारायण की पूजा करगे | उस दिन लकड़ी बेचने से पहले की अपेक्षा चार गुना अधिक धन प्राप्त हुआ | स्त्रियों व परिवार जन के साथ ,सबने मिलकर आदर पूर्वक भगवान सत्यनारायण की पूजा की और कथा का श्रवण किया तथा भक्तिपूर्वक भगवान का प्रसाद सबको वितरित कर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया |

पूजा के प्रभाव से पुत्र , पोत्र , पत्नी आदि से समन्वित निषादगणों ने पृथ्वी प[र द्रव्य और श्रेष्ट ज्ञान को प्राप्त किया |

दिव्ज श्रेष्ठ ! उन सबसे यथेष्ट भोगो का उपभोग किया और अंत में वें सभी योगीजनों के लिये भी दुर्लभ वैष्णव धाम प्राप्त हुए |

सत्यनारायण – व्रत के प्रसंग में साधू वणिक एवं जामाता की कथा

सूतजी बोले — ऋषियों ! अब मैं एक साधू वणिक की कथा कहता हूँ | एक बार भगवान सत्यनारायण का भक्त मणिपुरक नगर का स्वामी महायशस्वी राजा चन्द्रचुड अपनी प्रजाओं के साथ व्रत पूर्वक सत्यनारायण भगवान का पूजन कर रहा था , उसी समय रत्नपुर निवासी महाधनी साधू वणिक अपनी नौका को धन से परिपूर्ण कर नदी तट से यात्रा करता हुआ वहाँ आ पहुचा | उस नगरी को देख साधू ने कहा यहाँ पर नौका रोक दो | मैं यहाँ का आयोजन देखना चाहता हूँ | जहाँ आयोजन हो रहा था साधू यहाँ पुचा , वहाँ सत्यनारायण का पूजन हो रहा था |

साधू ने पूछा — ‘ महाशय ! आपलोग कौनसा पुण्य कार्य कर रहे हैं ? ‘ इस पर लोगो ने कहा हम लोग अपने राजा के साथ भगवान सत्यनारायन की पूजा – कथा का आयोजन कर रहे हैं | इसी वत्र के अनुष्ठान से इन्हे निष्कंटक राज्य प्राप्त हुआ हैं |

भगवान सत्यनारायण की पूजा से धन की कामना वाला धन , पुत्र की कामना वाला उत्तम पुत्र , ज्ञान की कामना वाला ज्ञान – दृष्टि , वर की इच्छा रखने वाली कन्या उत्तम वर , गृह क्लेश से व्याकुल मनुष्य सुखी परिवार को प्राप्त करता हैं |

यह सुनकर भगवान सत्यनारायण को दंडवत प्रणाम कर सभासदों को प्रणाम किया और कहा – भगवन मेरे कोई सन्तान नहीं हैं , मेरा सारा एश्वर्य और सारा उद्दम व्यर्थ हैं | हे कृपा सागर ! यदि आपकी कृपा से सन्तान को प्राप्त करूंगा तो स्वर्णमयी पताका बनाकर आपकी पूजा करूंगा | ’ इस पर सभी सभासदों ने कहा ‘ आपकी कामना पूर्ण हो | ‘ हृदय से भगवान का चिन्तन करता हुआ वह साधू वणिक सबके साथ अपने घर गया | सब ने वहाँ उसका स्वागत किया | उसकी पतिव्रता पत्नी लीलावती ने उसकी सित्रियोचित सेवा की |

भगवान सत्यनारायण की कृपा से समय आने पर कमल के समान नेत्रों वाली एक कन्या उत्पन्न हुई | साधू वणिक अत्यन्त प्रसन्न हुआ और ब्राह्मणों से उसका नामकरण करवाकर उसका नाम कलावती रखा | ब्राह्मणों धन का दान दिया |कलानिधि चन्द्रमा की कला के समान वह कलावती नित्य बढने लगी | समयानुसार कलावती विवाह योग्य हो गयी | उसके पिता ने कलावती को विवाह योग्य जानकर उसके सम्बन्ध की चिंता करने लगा |

कंचनपुर नगर में एक कुलीन , रूपवान , सम्म्पतिशाली , शील और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न एक शंखपति नाम का वणिक रहता था | अपनी पुत्री के योग्य उस वर को देखकर शुभ लग्न में अग्नि के सानिध्य में कन्या का विवाह कर दिया | साधू वणिक अपने घर में रखकर उसे पुत्र के समान मानता था और वह भी पिता के समान  साधू वणिक का आदर करता था |

और साधू वणिक ने सन्तान होने हे| जों शपथ ली थी ,  कृपा सागर ! यदि आपकी कृपा से सन्तान को प्राप्त करूंगा तो स्वर्णमयी पताका बनाकर आपकी पूजा करूंगा | ’  पर वह इस बात को भूल गया | उसने पूजा नही की |

कुछ दिनों बाद वह अपने जामाता के साथ सुदूर देश व्यापार करने गया पर तब भी उसे सत्यनारायण भगवान का ध्यान नहीं आया और सत्यनारायन भगवान रुष्ट हो गये और अनेक संकटो से ग्रस्त हो गया | एक समय कुछ चोरों ने रात्रि में वहाँ के राजमहल से बहुत सा धन ,  मानक ,मोती माला आदि चुरा लिया |और चोरों ने भगते हुए राजा के सैनिको के भय से साधू वणिक और जमता के पास चुराया हुआ धन रख कर भाग गये | राजा के सैनिको ने  साधू वणिक और जामाता को पकड़ लिया और कारागार में डाल दिया | अपने जामाता के साथ वह वणिक अत्यंत दुखी हो विलाप करने लगा | ’  हा पुत्र ! मेरा धन अब कहा चला गया   , मेरी पुत्री और पत्नी कहा हैं ? विधाता की प्रतिकूलता तो देखो | हम दुःख सागर में निमग्न हो गये हैं |अब इस संकट से हमे कौन तारेगा ?

साधू वणिक ने सत्यनारायण भगवान का व्रत न कर प्रतिज्ञा भंग की थी इसलिए चोरो ने व्नेक के घर का भी समस्त धन चुरा लिया लीलावती और उसकी पुत्री कलावती घौर संकट से ग्रसित हो गई |

एक दिन उसकी कन्या कलावती भूख से व्याकुल होकर किसी ब्राह्मण के घर गई और वहाँ भगवान सत्यनारायण की पुजा करते हुए देखा | उसने मन ही मन प्राथना कि की हे भगवान श्री सत्यनारायण देव ! मेरे पिता और पति घर आ जायेगें तो मैं भी आपकी पूजा करूगीं | उसकी बात सुनकर ब्राह्मणों ने कहा — ‘ ऐसा ही होगा  | ‘ वह अपने घर लौट आई |  माता ने उससे पूछा तुम्हारे मन में क्या हैं तुम इतनी रात्रि तक कहा थी | तब अपनी माता को सारा वृतांत बताया और प्रसाद खिलाया और कहा —- माँ ! मैंने वहा सुना की भगवान सत्यनारायण कलियुग में प्रत्यक्ष फल देने वाले हैं | माँ ! मैं उनकी पूजा करना चाहती हूँ तुम मुझे आज्ञा प्रदान करों |मेरे पिता और स्वामी घर आ जाये यही मेरी कामना हैं |

रा त  में ऐसा निश्चय कर प्रात: वह कलावती शिलपाल नामक एक वणिक के घर पर धन प्राप्त करने की इच्छा से गयी ओर  कहा – बन्धो ! थौड़ा धन दे जिससे मै भगवान सत्यनारायण की पूजा कर सकूं | यह सुनकर शिलपाल ने उसे पांच असरफिया दी और कहा —— ‘ कलावती मैंने तुम्हारे पिता से कर्ज लिया था मैं उसे ही वापस कर रहा हूँ | इसे देकर आज मैं उऋण हो गया | कन्या ने अपनी माता के साथ उस धन से बगवान सत्यनारायण व्रत का श्रद्दा व भक्ति से विधिपूर्वक अनुष्ठान किया | इससे सत्यनारायण भगवान संतुष्ट हो गये |

रात्रि में राजा को ब्राह्मण वैषधारी भगवान  सत्यनारायन ने स्वप्न में आकर कहा —- राजन तुम शीघ्र उठकर उन निर्दोष वणिको को बंधन मुक्त कर दो |  वे दोनों बिना अपराध ही बंदी बा लिए गये | यदि तुम ऐसा नही करोगे तों तुम्हारा कल्याण नही होगा | ‘  इतना कहकर वे अंतर्धयान हो गये | राजा निंद्रा से सहसा जग उठा | वह परमात्मा का स्मरण करने लगा | प्रात काल राजने सभासदो को बुलाया और स्वप्न का फल पूछा और आदेश दिया की वणिक और जामाता को बुलाओं |

तुम दोनों कहाँ रहते हो और तुम कौन हो ? इस पर साधू वणिक ने कहा – राजन ! मैं रत्नपुर निवासी एक वणिक हूँ | मैं व्यापार करने के लिए यहा आया था आपके सैनिको ने हमें चोर समझ के पकड़ लिया , साथ मैं मेरे जामाता को भी | उनकी बाते सुनकर राजा को बड़ा पश्चाताप हुआ | उन्होंने उसे बहुत सारी धन सम्पति देकर बंधन मुक्त कर दिया |

साधू वणिक अपने जामाता के साथ राजा द्वारा सम्मानित होकर दुगुना धन लेकर रत्नपुर की और चला |

साधू वणिक उस समय भी सत्यनारायण की पूजा करना भूल गया | भगवान सत्यदेव तपस्वी का रूप धारण कर उनसे आकर पूछा —- साधो ! तुम्हारी नौका में क्या हैं ? साधू वणिक ने उत्तर दिया —- इसमे फूल पत्ते भरे हैं तपस्वी ने कहा ऐसा ही होगा | इतना कहकर तपस्वी अंतर्धयान हो गया | नौका में फूल पत्ते हो गये | साधू वणिक विलाप करने लगा ,जामाता के समझाने पर उसी तपस्वी के आश्रम में गये और क्षमा मांगते हुए कहा प्रभो ! मैं आपकी महिमा को नही जानता आप मेरे अपराधों को क्षमा करे और नौका को पहले के समान कर दे |

तपस्वी ने भगवान सत्यनारायण की पूजा के लिए की गई प्रतिज्ञा को याद दिलाया और कहा —  तुम सत्यनारायण भगवान को याद करों और पूजा करों

उसके देखते ही देखते वे तपस्वी भगवान सत्यनारायण में परिवर्तित हो गये और तब वह उनकी स्तुति करने लगा ————

‘ सत्यस्वरूप सत्यनारायण भगवान हरी को नमस्कार हैं | जिस सत्य से जगत की प्रतिष्ठा हैं उस सत्य स्वरूप को मेरा बार – बार नमस्कार हैं | कृपा सागर ! आप मुझे अपने चरणों का दास बना ले  ,जिससे मुझे आपके चरण कमलो का नित्य स्मरण होता रहे “ |

इस प्रकार स्तुति कर उस साधू वणिक ने एक लाख मुद्रा से पुरोहित के द्वारा सत्यनारायण की पुजा की प्रतिज्ञा की | इस पर भगवान ने प्रसन्न होकर कहा —— वत्स ! तुम्हारी इच्चा पूर्ण होगी | तुम पुत्र – पौत्र से समन्वित होकर श्रेष्ट भोगो को भोग कर मेरे सत्यलोक को प्राप्त कर मेरे साथ आनन्द प्राप्त करोगे |यह कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये | भगवान का आशीर्वाद प्राप्त कर अपने नगर में आ गये | दूत जब संदेश देने गया तब लीलावती अपनी पुत्री के साथ सत्यनारायन भगवान की पूजा कर रही थी |  संदेश सुनते ही वह पूजा को बीव में ही छोड़ पूजा का दायित्व अपनी कन्या को सौप शीघ्रता से नौका के पास चली गई |  कलावती भी अपनी सखियों के साथ पूजा समाप्त कर बिना प्रसाद खाये ही नौका के पास आ गई | इससे सत्यदेव रुष्ट हो गये और जमता को नौका सहित पानी में डूबा दिया | अपने पति को न पाकर यह सब देख कलावती मूर्छित हो  पृथ्वी पर गिर गयी और उसका सारा शरीर आंसुओ भींग गया | वे कहने लगी —– हे विधाता ! आपने मुझे पति से वियुक्त कर मेरी आशा छोड़ दी | पति के बिना स्त्री का जीवन अधुरा एव निष्फल हैं | ’

हे सत्यदेव ! हे भगवन ! मैं अपने पति के वियोग में जल में डूबने वाली हूँ | आप मेरे अपराधो को क्षमा करे पति को प्रकट कर मेरे प्राणों की रक्षा करे | उसी समय आकाशवाणी हुई —– हे साधो तुम्हारी !  पुत्री ने मेरे प्रसाद का अपमान किय हैं \ यदि यह पुन: घर जाकर मेरा प्रसाद खोग्ढ़ं कर ले तो उसका पति वापस लौट आयेगा, कलावती ने वैसा ही किया और नौका सहित वापस आ गया | घर आकर वणिक ने एक लाख | इस प्रकार स्तुति कर उस साधू वणिक ने एक लाख मुद्रा से पुरोहित के द्वारा सत्यनारायण की पुजा की प्रतिज्ञा की | इस पर भगवान ने प्रसन्न होकर कहा —— वत्स ! तुम्हारी इच्चा पूर्ण होगी | तुम पुत्र – पौत्र से समन्वित होकर श्रेष्ट भोगो को भोग कर मेरे सत्यलोक को प्राप्त कर मेरे साथ आनन्द प्राप्त करोगे |यह कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये |

सूतजी बोले !  ऋषिगणों ! मैंने सभी व्रतों में श्रेष्ठ इस सत्यनारायन व्रत को कहा |ब्राह्मण के मुख से नकल हुआ यह व्रत कलियुग मैं अतिशय पुण्य पद हैं | जय बोलो सत्यनारायन भगवान की जय |

|| जय सत्य देव ||

|| सत्यनारायण व्रत कथा सम्पूर्ण ||

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