
भगवान शिव और उनका नाम समस्त संसार के मंगलो का मूल हैं | शिव , शम्भु और शंकर – ये तिन उनके मुख्य नाम हैं और तीनों का अर्थ हैं — सम्पूर्ण रूपसे कल्यानमय मंगलमय और परम् शान्तमय |
शिवोपासना के कुछ आवश्यक नियम
भगवान शिव के विशिष्ट उपासको के लिए कुछ आवश्यक नियमों का विधान हैं , जिसमे त्रिपुण्ड धारण , भ्स्मावलेपन , रुद्राक्ष माला पर मन्त्र जप तथा रुद्राक्ष धारण भी आवश्यक माना जाता हैं | भगवान शिव को धतुर पुष्प , श्र्वेत मन्दार और बिल्व पत्र ,जलधारा , शतरुद्रियका पाठ ,तथा पंचाक्षर मन्त्र का जप अति प्रिय हैं , इससे वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं |
प्रदक्षिणा
भगवान शिव की प्रदक्षिणा भी विशिष्ट रूप से होती हैं |मन्दिर के पीछे जल – नालिका – प्रवाह को सोमसुत्र कहा जाता हैं | वहाँ से चल कर मन्दिर के सामने नन्दीश्रर के पीछे तक जाया जाता हैं और पुन: वहाँ से सोमसुत्र तक लौटकर आना होता हैं | भगवान शिव इस प्रदक्षीणा –कर्म से बहुत प्रसन्न होते हैं |
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‘ शिवस्यार्थ प्रदक्षिणा ‘
अर्थात शिव की आधी परिक्रमा की जाती हैं | सोमसूत्र [ जल – नालिका } का उल्घंन नही करना चाहिये |
प्रदोष काल की त्रयोदशी को शिव प्रदोष व्रत होता हैं |
प्रदोष व्रत की कथा
विदर्भ देश में सत्यरथ नाम के एक परम् शिव भक्त पराक्रमी और तेजस्वी राजा थे |उन्होंने अनेक वर्षो तक राज्य किया , परन्तु कभी एक दिन भी शिव पूजा में किसी प्रकार का अंतर न आने दिया |
एक बार शाल्व देश के राजा ने कई दुसरे राजाओ को साथ लेकर विदर्भ पर आक्रमण कर दिया | सात दिन तक घोर युद्ध होता रहा , अंत में दुदैववश सत्य रथ को परास्त होना पड़ा , इससे दुखी होकर वे देश छोड़ कर कही निकल गये | शत्रु नगर में घुस पड़े |रानी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह राजमहल से निकल कर सघन वन में प्रविष्ट हो गई | उस समय नौ मास का गर्भ था और वह आसन्न प्रसवा ही थी | अचानक एक दिन अरण्य [ जंगल ] में ही उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ | बच्चे को वहा अकेला छोडकर वह प्यास के मारे पानी के लिए वन में एक सरोवर के पास गयी और वहाँ एक मगर उसे निगल गया |
उसी समय उमा नाम की एक ब्राह्मणी विधवा अपने शुचीव्रत नामक एक वर्ष के बालक को गोद में लिये उसी रास्ते से होकर निकली | बिना नाल कते बच्चे को देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ | वह सोचने लगी की यदि इस बच्चे को अपने घर ले जाऊ तो लोग मुझ पर अनेक प्रकार की शंका करेंगे और यदि यही छोड़ देती हूँ तो कोंई हिंसक पशु इसे कहा जायेगा |इस प्रकार सोच रही थी की भगवान शिव प्रकट हुऐ और उस विधवा से कहने लगे – ‘ इस बच्चे को तुम अपने घर ले जाओ , यह राजपुत्र हैं |अपने पुत्र के समान इसकी रक्षा करना और लोगों को इस बात को प्रकट न करना , इससे तुम्हारा भाग्योदय होगा | ‘ इतना ही कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये | ब्राह्मणी ने उस राजपुत्र का नाम धर्मगुप्त रखा |
वह विधवा दोनों को साथ लेकर उस बच्चे के पिता को ढूढने लगी | ढूंढते – ढूंढते शांडिल्य ऋषि के आश्रम में पहुची | ऋषि ने बताया की ‘ राजा सत्यरथ का देहांत हो गया हैं | पूर्व जन्म में प्रदोष व्रत को अधुरा छोड़ने के कारण ही उसकी ऐसी गति हुई हैं तथा रानी ने भी पूर्व जन्म में अपनी सपत्नी को मारा था , उसी ने इस जन्म में मगर के रूप में इसका बदला लिया |’
ब्राह्मणी ने दोनों बच्चो को ऋषि के पैरों पर डाल दिये | ऋषि ने उन्हें शिव पंचाक्षरी मन्त्र देकर प्रदोष व्रत करने का उपदेश दिया | इसके बाद ऋषि का आश्रम छोड़ कर एकचक्रा नगरी में निवास कर चार माह तक शिव आराधना करते हुये प्रदोष व्रत किया | एक दिन शुचिव्रत को असर्फियो से भरा स्वर्ण कलश मिला , उसे लेकर वह घर आ गया | माता यह देख कर अत्यंत प्रसन्न हुई और इससे उसे प्रदोष व्रत की महिमा का ज्ञान हुआ |
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इसके बाद दोनों बालक वनविहार के लिए एक साथ निकले , वहाँ अंशुमती नाम की कन्या को देखा | उसने धर्मगुप्त से कहा की में एक गन्धर्व राज की कन्या हूँ , श्री शिवजी ने मेरे पिता से कहा की अपनी कन्या का विवाह सत्यरथ राजा के पुत्र धर्मगुप्त से करना |’ तब धर्मगुप्त ने कहा मैं वही हूँ और विवाह प्रस्ताव रखा |
धर्मगुप्त ने वापस आकर अपनी माता को बताया ब्राह्मणी ने उसे शिव पूजा का फल और शांडिल्य मुनि का आशीर्वाद समझा | बड़े आनन्द से दोनों का विवाह करवाया | गन्धर्व राज ने बहुत धन और अनेको दास – दासी धन सम्पदा प्रदान किये | इसके बाद धर्मगुप्त को अपना राज्य वापस मिल गया | वह सदा प्रदोष – व्रत शिवाराधना करते हुये उस ब्राह्मणी और उसके पुत्र शुचिव्रत के साथ सैकड़ो वर्ष सुख़ से राज्य करता रहा और अंत में शिवलोक को प्राप्त हुआ |
|| ॐ नम: शिवाय || || ॐ नम: शिवाय ||