क्या आप जानते हैं पूजा के  बाद क्यों की जाती हैं

आरती आइये जानते हैं

आरती करने का इतना अधिक महत्व क्यों हैं |

जिस घर में हो आरती , चरण कमल चित्त लाय |

तहां हरी बासा करें , ज्योत अनन्त जगाय ||

आरती का महत्त्व

 शास्त्रों में नवधा भक्ति को उतम माना गया हैं , जिसके श्रवण , कीर्तन , पादसेवन , अर्चन ,वन्दन आदि के बाद होती हैं – आरती को “ आरात्रिक “ अथवा “आरार्तिक “ और निराजन भी कहते हैं | पूजा के अन्त में आरती की जाती हैं | पूजन में जों त्रुटी रह जाती हैं – उसकी पूर्ति करती हैं आरती | “ स्कन्द पुराण “ के अनुसार

मन्त्रहीनं क्रियाहींनं यत, कृतं पूजनं हरे: |          

सर्व सम्पूर्ण तामेति कृते नीराजने शिवे ||

अर्थात पूजन मन्त्र हीन और क्रिया हीन होने पर भी निराजन [ आरती ] कर लेने से , उसमें पूर्णता आ जाती हैं |

शाश्त्रो के मतानुसार आरती करना ही नही , देखना भी बड़े पुण्य का काम एवं सौभाग्यमय हैं | “ विष्णु – धर्मोत्तर “ में लिखा हैं –

धूपं चारात्रिकं पश्येत कराभ्यां च प्रवन्दते |

कुलकोटिम समुद्ध्रित्य्म पाती विष्णो: परम् पदम् ||

अर्थात जों धुप और आरती को देखता हैं और दोनों हाथो से आरती लेता हैं वह करोड़ पीढियों का उद्धार करता हैं और भगवान विष्णु के परम् पद को प्राप्त होता हैं |

 

आरती करने की सही विधि , कैसे करेआरती 

आरती से पहले मूल मन्त्र यानि जिस देवता की आरती की जा रही हैं उसके मन्त्र के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल , मृदंग ,शखं , घंटा घडियाल आदि महावाद्य बजाते हुये उस देव या देवी की जयजयकार करते हुए घृत या कपूर से विषम संख्या की बतिया जलाकर आरती करनी चाहिये | सामान्यतया पांच बत्तियो से आरती की जाती हैं – इसे पंच प्रदीप भी कहते हैं | “ पदम् पुराण “ में आया हैं – कुंकुम , अगर , कपूर ,घृत , और चंदन की सात या पांच बत्तियाँ बनाकर शखं , घंटा आदि बजाते हुये आरती करना बहुत शुभ हैं |

आरती क्यों की जाती हैं

आरती पूजन के अंत में ईष्ट देवता की प्रसन्नता हेतु की जाती हैं | इसमे इष्ट देव को दीपक दिखाने के साथ साथ उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता हैं | दीप बत्तियाँ जलाकर उनके चारों घुमाने का प्रथम अभिप्राय यह हैं की उनका एक एक अगं उजागर हो जाय , आलोक से आलोकित हो जाय जिससे की भक्तगण उनका सौन्दर्य निहार सकें एवं अपने इष्ट की नयनाभिराम झांकी देख सके | “ आरती “ शब्द जों संस्कृत के “ आर्ति “ का प्राकृत रूप हैं और जिसका अर्थ हैं ‘ अरिष्ट “ | “आरती वारना “ का अर्थ “ आर्ति निवारण “ अनिष्ट से अपने प्रीयतम प्रभु को बचाना |

आरती का दूसरा अभिप्राय

यह हैं कि अपने प्रिय के “ आर्ति “  [ कष्ट ] को अपने ऊपर लेना | बलैया लेना , बलिहारी जाना , बलि जाना , वारी जाना , न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के हैं |

|| वन्दे विष्णु ||               ||  वन्दे विष्णु ||                         || वन्दे विष्णु ||

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