।।श्री गणेशाय नमः ।।
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
        श्री रामचरित मानस
प्रथम सोपान
बालकाण्ड – भाग  – 3

बालकाण्ड  भाग 3 यह श्री रामचरितमानस पुण्यरूप , पापों का हरण करने वाला , सदा कल्याणकारी , विज्ञानं और भक्ति को देने वाला , माया मोह और मल का नाश करने वाला , परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय हैं |जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं , वे इस संसार रूपी सूर्य की अति प्रचंड किरणों से नहीं जलते |

 

चौ 0 –  सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाई । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना ॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥
हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥
दो ०- परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥
चौ 0 –  तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥
दो ० – सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥
चौ 0 –  हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥
संकर सहज सरुप सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥
दो ० – सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ ५८ ॥
चौ 0 –  नित नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥
अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥
जौ प्रभु दीनदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥
जौं मोरे सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥
दो ० – तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ ।
होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ ५९ ॥
चौ 0 –  एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥
बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥
लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
दो ० – दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ ६० ॥
चौ 0 –  किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥
पति परित्याग हृदय दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥
बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥
दो ० – पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ ।
तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ ६१ ॥
चौ 0 –  कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥
दो ० – कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि ।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ ६२ ॥
चौ 0 –  पिता भवन जब गई भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥
सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥
दो ० – सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ ६३ ॥
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥
दो ० – सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥
चौ 0 –  समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाई ॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥
दो 0 – सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति ।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ ६५ ॥
चौ ० – सरिता सब पुनित जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥
नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥
नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥
दो ० – त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ ६६ ॥
चौ ० – कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥
सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥
अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥
दो ० – जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ ६७ ॥
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥
नारदहुँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहि दंपति सखीं सयानी ॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥
दो ० – कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार ।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥
चौ ० –  तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलहि उमहि तस संसय नाहीं ॥
जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥
जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई । रबि पावक सुरसरि की नाई ॥
दो ० –  जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान ।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ ६९ ॥
चौ ० –  सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥
बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥
दो० – अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस ।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ ७० ॥
चौ ० –  कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा । करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥
अस कहि परि चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥
दो ० – प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान ।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ ७१ ॥
चौ ० –  अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू । तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू ॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका । सबहि भाँति संकरु अकलंका ॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं । गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं ॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥
बारहिं बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥
दो ० – सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि ।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ ७२ ॥
चौ ० –  करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरइ महिभारा ॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥
सुनत बचन बिसमित महतारी । सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई । चलीं उमा तप हित हरषाई ॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता । भए बिकल मुख आव न बाता ॥
दो ० – बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ ७३ ॥
चौ ० –  उर धरि उमा प्रानपति चरना । जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू । पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥
नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥
संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा । किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥
बेल पाती महि परइ सुखाई । तीनि सहस संबत सोई खाई ॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना । उमहि नाम तब भयउ अपरना ॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा । ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥
दो ० – भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि ।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ ७४ ॥
चौ ० –  अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी । भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी । सत्य सदा संतत सुचि जानी ॥
आवै पिता बोलावन जबहीं । हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं ॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा । जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी । पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा । सुनहु संभु कर चरित सुहावा ॥
जब तें सती जाइ तनु त्यागा । तब सें सिव मन भयउ बिरागा ॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा । जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥
दो ० – चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम ।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ ७५ ॥
चौ ० – कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना । कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती । नित नै होइ राम पद प्रीती ॥
नैमु प्रेमु संकर कर देखा । अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥
प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला । रूप सील निधि तेज बिसाला ॥
बहु प्रकार संकरहि सराहा । तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥
दो ० –  अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु ।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ ७६ ॥
चौ ० –  कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥
अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥
दो ० – पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ ७७ ॥
चौ ० –  रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥
कहत बचत मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥
मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥
देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥
दो ० – सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह ।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ ७८ ॥
चौ ० –  दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥
दो ० – अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं ।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ ७९ ॥
चौ ० – अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥
दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥
सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥
कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥
दो ० – महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ ८० ॥
चौ ० –  जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥
जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहि सत बार महेसू ॥
मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥
दो ० – तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु ।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ ८१ ॥
चौ ० –  जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥
भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥
तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥
तेंहि सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥
अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥
दो ० – सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥
चौ ० –  मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥
जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥
एहि बिधि भलेहि देवहित होई । मर अति नीक कहइ सबु कोई ॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥
दो ० –  सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार ।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ ८३ ॥
चौ ० –  तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥
पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥
सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥
छं ० – भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे ।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा ।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा ॥
दो ० – जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम ।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥ ८४ ॥
चौ ० –  सब के हृदयँ मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई । संगम करहिं तलाव तलाई ॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी । भए कामबस समय बिसारी ॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥
छं॰ भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै ।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥
सो ० – धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे ।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ ८५ ॥
चौ ० –  उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥
भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥
बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥
छं ० – जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही ।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥
दो ० – सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत ।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ ८६ ॥
चौ ० – देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥
सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छुटि समाधि संभु तब जागे ॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥
हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥
छं॰ जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई ।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई ।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही ।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥
दो ० –  अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु ।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥ ८७ ॥
चौ ० –  जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥
दो ० – सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ ८८ ॥
चौ ० –  यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ।
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥
प्रथम गए जहँ रही भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥
दो ० – कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ ८९ ॥
मासपारायण,तीसरा विश्राम
 श्री रामचरित मानसप्रथम सोपानबालकाण्ड – भाग  -1
श्री रामचरित मानसप्रथम सोपानबालकाण्ड – भाग  – 2
 श्री रामचरित मानसप्रथम सोपानबालकाण्ड – भाग  – 3